भारत को हमारे संविधान निर्माताओं ने राज्यों का संघ (यूनियन आफ इंडिया) घोषित किया तो इसके पीछे बहुत बड़ा इतिहास था जिसे समझने की जरूरत है। 1857 की पहली आजादी की लड़ाई के असफल होने के बाद जब अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर का नामचारे का शासन भी समाप्त हो गया तो पूरे देश पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज कायम हो गया जिसने भारत की सल्तनत को तब ब्रिटिश की साम्राज्ञी महारानी विक्टोरिया को बेचा और उसके बाद सीधे भारत ब्रिटिश सरकार की हुकूमत में चला गया जिसने अपने अनुसार तक कम्पनी द्वारा विभिन्न देशी राजे-रजवाड़ों के साथ हुए समझौतों या सन्धियों के अनुसार चलाना शुरू किया और भारत में कानून, शिक्षा व प्रशासन के क्षेत्र में अपने नियम लागू करने शुरू किये और 1919 के आते-आते पहला भारत सरकार कानून बनाया जिसमें भारत को विभिन्न क्षेत्रों व जातीय समूहों व सम्प्रदायों व वर्गों का जमघट बताया गया। इस कानून में अंग्रजों ने भारत को एक देश या राष्ट्र के रूप में मान्यता नहीं दी और कई राष्ट्रीयताओं वाले देश के रूप में स्वीकार किया। मगर 1916 के बाद कांग्रेस पार्टी में महात्मा गांधी के सक्रिय होने के बाद अंग्रेजों की दासता से मुक्ति पाने का आन्दोलन जैसे-जैसे तेज होता गया वैसे-वैसे ही समूचे भारत में एक राष्ट्र होने के स्वर को मुखरता मिलने लगी और 1928 के आते-आते कांग्रेस पार्टी ने भारत के भविष्य के संवैधानिक स्वरूप के लिए देश के प्रख्यात वकील पं. मोती लाल नेहरू के नेतृत्व में एक संविधान तैयार करने की समिति गठित की जिसने देश के उस समय के सभी राजनैतिक दलों व प्रमुख सामाजिक संगठनों व आर्थिक संगठनों के प्रतिनिधियों को भी विचार-विमर्श के लिए आमन्त्रित किया। इस समिति के सदस्यों में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस भी शामिल थे। इस समिति ने 1932 में आयी अपनी रिपोर्ट में सबसे पहले यह घोषित किया कि भारत विभिन्न क्षेत्रीय पहचान वाले राज्यों का एक संघ राज्य है।
समिति की रिपोर्ट भारत के स्वतन्त्रता के इतिहास में कई मायनों में मील का पत्थर मानी जाती है क्योंकि इसने एक एेसी संघीय सरकार की परिकल्पना की थी जो विभिन्न राज्यों को उनके वाजिब प्रशासनिक अधिकार देते हुए केन्द्र सरकार को मजबूत स्थिति में देखती थी। इसके बाद अंग्रेज सरकार भारत की हुकूमत चलाने के लिए दूसरा भारत सरकार कानून लाई जिसमें भारत के एक संघीय राज्य होने को स्वीकृति दी गई थी परन्तु इसी वर्ष ब्रिटिश सरकार ने बर्मा (म्यांमार) को भारत से अलग करके नया देश बना दिया था। मोती लाल समिति ने केन्द्र व राज्य सरकारों के अधिकारों का बंटवारा भी किया था। बाद में जब 1946 से भारत का संविधान बाबा साहेब अम्बेडकर ने लिखना शुरू किया तो मोती लाल रिपोर्ट उनके लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित हुई। हालांकि 15 अगस्त, 1947 को भारत का बंटवारा मजहब की बुनियाद पर कर दिया गया था लेकिन इसके बावजूद भारत के संघीय राज्य की परिकल्पना वही रही जो रिपोर्ट में पेश की गई थी। अतः स्वतन्त्रता के बाद 1956 के आते-आते भाषाई आधार पर भारत में जो कुल 15 राज्य बने उनका मुख्य आधार सांस्कृतिक व सामाजिक एकता भी रही। इन राज्यों का सीधा अन्त-सम्बन्ध केन्द्र से जोड़े रखने के लिए ही राज्यपाल के पद को जरूरी समझा गया जिसकी मार्फत सम्पूर्ण भारत विविध सांस्कृतिक पहचान के क्षेत्रों के वजूद के बावजूद एकता के तार में बंधा रहे केन्द्र कृत्य रूप से लागू संविधान के अनुसार काम करता रहे।
राज्यपाल के कुछ अधिकार भी नियत किये गये और उसे विभिन्न राज्यों में जनता द्वारा चुनी गई सरकारों का संरक्षक भी बनाया गया क्योंकि ये सरकारें संविधान के अनुसार हुए चुनावों के बाद बहुमत की सरकारें होनी थीं। इन बहुमत की सरकारों की इच्छा संविधान के दायरे में उठाई गई किसी भी इच्छा को जनता की इच्छा माना गया और राज्यपाल के लिए इनको स्वीकार करना उसका कर्त्तव्य बनाया गया। जनमत की इच्छा का प्रदर्शन राज्य विधानसभाओं में ही हो सकता है क्योंकि वहां ही जनता के चुने हुए प्रतिनिधि एकत्र होकर सरकार का गठन करते हैं। यह सरकार अपने बहुमत के बूते पर जन हित के लिए कोई भी प्रस्ताव या विधेयक पारित करके राज्यपाल की स्वीकृति के लिए भेजती है, जिसे राज्यपाल सामन्य तौर पर अपनी सहमति प्रदान कर देते हैं। वह किसी विधेयक के बारे में यदि कोई आशंका व्यक्त करते हैं तो उसे केवल एक बार पुनर्विचार के लिए राज्य सरकार के पास भेज सकते हैं परन्तु उसके पुनः यथावत हालत में लौटाये जाने पर उस पर उन्हें अपने दस्तखत करने ही पड़ते हैं परन्तु तमिलनाडु के राज्यपाल श्री एन. रवि ने राज्य सरकार को उलझन में डालने की नई तरकीब निकाल रखी है।
पिछले लगभग डेढ़ वर्ष से ज्यादा से भी उनके पास मुख्यमन्त्री एम.के. स्टालिन की द्रमुक पार्टी की सरकार जो भी विधेयक विधानसभा में पारित करके भेजती है उसे वह दबा कर बैठ जाते हैं और और गुम हो जाते हैं। जाहिर है उनके इस कृत्य से जनता की चुनी हुई सरकार के लोकहित में किये जा रहे सभी कामों पर उल्टा असर पड़ता है। जब श्री रवि ने विधानसभा में पारित ‘आन लाइन गैम्बलिंग’ या इंटरनेट के जरिये जुए बाजी की लत लगाने वाले खेलों पर प्रतिबन्ध लगाने का विधेयक पारित किया तो हुजूर उसे भी दाब कर बैठ गये। इसके खिलाफ तमिलनाडु विधानसभा में पिछले सोमवार को ही राज्यपाल के इस तरीके के खिलाफ भारी बहुमत से प्रस्ताव पारित करके केन्द्र सरकार व राष्ट्रपति से गुहार लगाई गई कि वह राज्यपालों को विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को एक निश्चित समय के भीतर स्वीकृति देने का निर्देश दें जिससे संविधान का पालन हो सके और राज्यपालों को अपने पद की गरिमा के विपरीत राजनीति करने से रोका जा सके। मगर राज्यपाल रवि ने यह विधेयक पारित होते ही आन लाइन गैम्बलिंग के विधेयक को स्वीकृति दे दी और बाकी 13 विधेयकों की स्थिति यथावत रखी। सविधान के नजरिये से राज्यपालों को सार्वजनिक बयान देने से और चुनी हुई सरकारों के दैनन्दिन प्रशासनिक कार्यों में हस्तक्षेप करने से भी बचना चाहिए। किसी विधानसभा में जब अपने ही राज्यपाल के बारे में उसके विरोध में प्रस्ताव पारित होता है तो इसके बहुत गंभीर मायने निकलते हैं क्योंकि राज्यपाल राज्य में संविधान के संरक्षक का कार्य राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में करते हैं और उनकी नियुक्ति तभी तक हरकत में रहती है जब तक कि राष्ट्रपति उनसे प्रसन्न रहें।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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