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चुनावी मौसम में ‘तेजाबी’ फुहार

चुनावी मौसम इस समय उफान पर है और देशवासी अगले पांच साल के लिए मुल्क की तकदीर लिखने जा रहे हैं मगर एक सवाल उठ रहा है कि इस माहौल में एक सामान्य

चुनावी मौसम इस समय उफान पर है और देशवासी अगले पांच साल के लिए मुल्क की तकदीर लिखने जा रहे हैं मगर एक सवाल उठ रहा है कि इस माहौल में एक सामान्य देशवासी या आम आदमी कहां खड़ा हुआ है ? हमारे सामने दो ताजा उदाहरण हैं। एक तो बेगूसराय से चुनाव लड़ रहे श्री कन्हैया कुमार को देश की जनता चुनाव खर्च के लिए 70 लाख रुपये का चन्दा इकट्ठा करके देती है और दूसरी तरफ अगस्ता वेस्ट लैंड हेलीकाप्टर के कथित खरीद घोटाला मामले में अबूधाबी से भारत लाकर प्रवर्तन निदेशालय द्वारा मुजरिम बनाया गया क्रिश्चेयन मिशेल है।

अगस्ता खरीद मामला ऐसा विचित्र मुकदमा है जिसमें हेलीकाप्टरों की खरीद को रद्द कर दिया गया और हेलीकाप्टर बनाने वाली कम्पनी से मनमोहन सरकार ने दी गई पेशगी रकम भी वापस ले ली मगर भ्रष्टाचार का इल्जाम लगे रहने दिया गया। यह स्वयं किसी भी सामान्य व्यक्ति को चक्कर में डालने वाला सवाल है कि जब कोई व्यापारिक सौदा हुआ ही नहीं तो उसमें भ्रष्टाचार कहां से हो गया ?

क्रिश्चेयन मिशेल को हेलीकाप्टर सौदे का बिचौलिया बताया जा रहा है और निदेशालय उस पर जो आरोप लगा रहा है वे चुनावी मैदान में राजनैतिक रंग देकर उछाले जा रहे हैं और उनका सम्बन्ध पूर्व सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस के प्रमुख नेताओं से उस डायरी में लिखे कुछ शब्दों से जोड़ा जा रहा है जिनका जो चाहे मतलब निकाला जा सकता है। एेसे ही अंग्रेजी शब्द ‘एपी’ और ‘फैम’ हैं।

निदेशालय एक सरकारी वित्तीय जांच एजेंसी है और मिशेल को उसने न्यायिक हिरासत में लिया हुआ है और वह उससे पूछताछ कर रही है। इस पूछताछ से निकले हुए किसी भी तथ्य को सबसे पहले उसे चार्जशीट दायर करके न्यायालय में ही पेश करना होता है जिसके बाद इसकी खबर मीडिया को होती है मगर यहां उल्टा हो गया, चार्जशीट की खबर पहले मीडिया को दी गई और अदालत में उसे बाद में दाखिल करने की तैयारी की गई। अतः मीडिया रिपोर्ट के आधार पर चुनावी वातावरण मंे बयान जारी होने लगे और एपी को अहमद पटेल और फैम को गांधी परिवार बताने में राजनीतिज्ञों को सुविधा हो गई।

इसका मतलब यही निकलता है कि जांच एजेंसी स्वयं राजनीति में मशगूल हो गई जिसका संज्ञान चुनाव आयोग द्वारा लेना लाजिमी बनता है क्योंकि कोई भी सरकारी संस्था राजनीति को प्रभावित करने का काम नहीं कर सकती लेकिन हमने देखा कि किस प्रकार अदालत में ही राजद्रोही के आरोपी बने कन्हैया कुमार को देश की आम जनता ने 70 लाख रुपये इकट्ठा करके चुनाव लड़ने के लिए दिया। यही भारत के आम आदमी की इन चुनावों में हैसियत है, इसका अर्थ राजनीतिज्ञों को समझना चाहिए।

कन्हैया कुमार पूरे देश में सत्ता द्वारा लगाये गये उन आरोपों के प्रतिकार ‘प्रतीक’ बन चुके हैं जिनमें राजद्रोह या राष्ट्रद्रोह को ही प्रतीकात्मक रूप से निरूपित किया गया है जबकि अगस्ता वेस्टलैंड मामले में भी भ्रष्टाचार को प्रतीकात्मक स्वरूप देकर राजनीति का खेल खेला जा रहा है मगर दोनों मामलाें में एक गजब की समानता है कि जांच एजेंसियां कई साल बाद अचानक सोते से उठी हैं और लोकसभा चुनावों की सरगर्मी शुरू होने के बाद इनके कान खड़े हुए हैं।

क्रिश्चेयन मिशेल को पिछले वर्ष भारत तब लाया गया जब पांच प्रमुख राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे थे और उसे भारत लाते ही ‘मामा’ पुकार कर हमने भारत के आम आदमी का अपमान कर डाला जबकि कन्हैया कुमार के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने आधी-अधूरी चार्जशीट तब दायर की जब चुनावी घंटियां बजने लगी थीं। भारत संविधान से चलने वाला देश है, इसमें किसी की भी चरित्र हत्या करने की इजाजत न तो कानून देता है और न राजनीति ही देती आयी है।

भारत के लोगों ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया है। इस देश के लोगों में यह राजनीतिक सूझबूझ गांधी बाबा कूट-कूट कर भर कर चले गये हैं कि लोकतन्त्र में बुराई का राजनैतिक इस्तेमाल विरोधी के लिए किस तरह होता है। स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा गांधी व नेहरू की चरित्र हत्या करने में पीछे नहीं थे और देशी राजे-रजवाड़ों और नवाबों के साथ मिलकर तरह-तरह की अफवाहें उड़ाया करते थे। यह सत्य एक अमेरिकी पत्रकार ‘लुई फिशर’ ने ही 40 के दशक में उजागर किया था कि बूढ़े गांधी किसी एक नौजवान से भी तेज चलते हैं वरना लीग-सभा और रजवाड़े मिल कर गांधी के बारे में अफवाहों की फुहार उड़ाया करते थे। लोकतन्त्र कभी भी अफवाहों से नहीं चलता है और न उत्पादित अवधारणाओं से यह चलता है, तो भविष्य की दूरदृष्टि से इसका प्रत्यक्ष प्रमाण इसी देश की जनता ने तब दिया जब 1980 में स्व. इदिरा गांधी के हाथ मंे पुनः सत्ता सौंप कर साफ कर दिया।

इससे पहले के तीन सालों 1977 से 80 के बीच जिस प्रकार के ऊल-जुलूल आरोप इन्दिरा जी पर लगाये गये थे उन्हें इस देश के लोग कूड़ेदान में फेंकते हैं और उनकी पार्टी कांग्रेस के हाथ में ही इस देश की तकदीर सौंपते हैं। हम चुनावों में भूल जाते हैं कि यह जनता की सर्वोच्च अदालत होती है जिसके हाथ में न्याय की तराजू रहती है और वह हर आरोप को बहुत सावधानी के साथ आंक कर ही अपना फैसला सुनाती है। इस मामले में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी का भी उदाहरण बहुत सटीक है।

उनके खिलाफ 1998 से 2004 तक हुए तीन लोकसभा चुनावों में वह दस्तावेज न जाने कहां से निकल कर बाहर आ जाता था कि आजादी की लड़ाई के दौरान उन्होंने एक स्वतन्त्रता सेनानी की मुखबिरी की थी मगर हर बार आम जनता ने उस दस्तावेज को कूड़े की टोकरी में फेंककर उन पर विश्वास किया मगर सोचने वाली बात यह है कि उस 2-जी घोटाले का क्या हुआ जिसने 2014 में जमीन-आसमान एक कर रखा था। अन्त में अदालत को पता चला कि यह कोई घोटाला था ही नहीं। उस कोयला घोटाले का क्या हुआ जिसकी वजह से पिछली पूरी सरकार के मुंह पर कालिख पोत दी गई थी? अंत में पता चला कि कोयला ब्लाकों की नीलामी वर्तमान सरकार के ही एक मन्त्री ने अपने हिसाब से कर डाली और बाद में रेलवे स्टेशनों तक को बेच डाला।

चुनाव पूरे पांच साल का हिसाब-किताब रखने के बही खाते का नाम होता है न कि आरोपों की तेजाबी बरसात लगा कर खुद को छाते के साये में रखने का। बेशक यह काम चुनाव आयोग का ही है कि वह किसी भी राजनैतिक दल के सिर पर सत्ता का छाता न रहने दे। इसलिए अहमद पटेल की इस चुनौती को स्वीकार किया जाना चाहिए कि शीशे के घर में रहने वाले लोग पत्थर लिये चीख रहे हैं।

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