जब एक व्यक्ति ने कहा कि कैंडल मार्च से मोमबत्तियों की बिक्री बढ़ गई है तो वह एक कड़वी सच्चाई की ओर इशारा कर रहा था। वक्त आगे तो बढ़ रहा है लेकिन ज़्यादा कुछ बदलाव होते दिख नहीं रहे हैं। इसी तरह जब लगभग 40 साल के एक व्यक्ति ने इस आधार पर बंदूक लाइसेंस के लिए आवेदन करना जरूरी समझा कि वह दो बेटियों का पिता है, तो यह इस बात पर एक टिप्पणी थी कि हालात किस तरह से बद से बदतर हो रहे हैं।
सोशल मीडिया पे दोनों ही वीडियो ने लोगों का ध्यान खींचा है। दोनों ने लड़कियों और महिलाओं के प्रति क्रूर समाज की भयावहता की गंभीर वास्तविकता को सामने रखा है| दोनों ने ही इस कड़वी और गम्भीर सच्चाई की ओर इशारा किया है कि दिल्ली में क्रूर सामूहिक बलात्कार के बाद से बहुत कुछ नहीं बदला है, जब निर्भया पीड़िता थी या अब कोलकाता में जब एक युवा डॉक्टर का यौन उत्पीड़न किया गया और उसी अस्पताल में उसकी हत्या कर दी गई जहां वह काम करती थी।
2012 में पूरा भारत क्रोधित हो उठा था ः एक अंधेरी रात जब भारत की राजधानी में एक चलती बस में 23 वर्षीय एक लड़की के साथ मारपीट और बलात्कार किया गया था। हमले के दो सप्ताह के भीतर ही उसकी मृत्यु हो गई। तब भी सैकड़ों युवक-युवतियों ने कैंडल मार्च निकालकर न्याय की मांग की थी। पीड़िता की मां आशा देवी उनमें से एक थीं। विरोध-प्रदर्शन हुए और जैसे-जैसे लोग सड़कों पर उतरे मामले को संभालने के सरकार के तरीके की आलोचना की गई। इस बार भी प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतर आए और इस बार फिर सरकार सवालों के घेरे में है। यह कहना उदासीनता होगी कि दिल्ली और कोलकाता के मामले समान थे क्योंकि जब बलात्कार की बात आती है तो बलात्कार शब्द के अलावा कुछ भी समान नहीं हो सकता| आघात, दर्द, भय और त्रासदी का कोई समानांतर नहीं है। एक लड़की या महिला पर क्या बीतती है, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है।
9 अगस्त की रात को कोलकाता में जो हुआ उसने हर समझदार व्यक्ति को झकझोर कर रख दिया है। इसने साक्ष्यों से छेड़छाड़, कानून प्रवर्तन एजेंसियों और सरकार की भूमिका और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उस संस्थान की कार्यप्रणाली पर भी तीखे सवाल उठाए हैं जहां यह भयानक घटना हुई थी, सरकार द्वारा संचालित आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल।
जो घटनाएं सामने आईं वे इस प्रकार हैं : 9 अगस्त की रात को कोलकाता के आर.जी.कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में प्रस्नातकोत्तर शिक्षु डॉक्टर ने अपने सहकर्मियों के साथ रात्रिभोज किया। इसके बाद वह अस्पताल के सेमिनार हॉल में आराम करने चली गईं। अगली सुबह, उसका अर्धनग्न शरीर पाया गया जो स्पष्ट रूप से बलात्कार और हत्या के भयानक कृत्य का संकेत दे रहा था। अस्पताल पर आरोप है कि उसने जांच में देरी की और माता-पिता को तीन घंटे से अधिक समय तक उसका शव नहीं देखने दिया। वास्तव में पीड़िता के पिता ने सबके सामने यह बोला है की उन्हें बताया गया था कि उनकी बेटी ने आत्महत्या कर ली है। यह तो स्पष्ट है कि जो दिखता है उससे कहीं अधिक होता है। डॉ. संदीप घोष, जो उस समय अस्पताल का नेतृत्व कर रहे थे, इस्तीफा दे चुके हैं।
पीड़ितों को शर्मसार करने और कर्मचारियों के लिए पर्याप्त सुरक्षा बनाए रखने में विफल रहने के कारण उनकी भी काफी आलोचना हो रही है। गौरतलब है कि एक दिन से भी कम समय में उन्हें कलकत्ता मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के प्रिंसिपल के रूप में बहाल कर दिया गया। सबूतों से छेड़छाड़ की आशंका के चलते अपराध को छुपाने और उससे जुड़े सीसीटीवी फुटेज को नष्ट करने के भी आरोप हैं।
भारत के स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर 'रिक्लेम द नाइट' शीर्षक से एक शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन आयोजित किया गया लेकिन यह हिंसक हो गया क्योंकि भीड़ ने अस्पताल परिसर में तोड़फोड़ की, अस्पताल की संपत्ति को नुक्सान पहुंचाया और पुलिस के साथ झड़प की। वहां गुस्सा और घृणा दोनों है। बलात्कार ने डॉक्टरों की सुरक्षा और संस्थानों की व्यवस्थित विफलता, कानून लागू करने वाली मशीनरी इत्यादि जैसे मुद्दों को सामने लाया है। यहां तक कि देशभर में डॉक्टरों ने 'नो सेफ्टी, नो ड्यूटी' के बैनर दिखाते हुए आपातकालीन सेवाओं के अलावा, विरोध में सारे काम बंद कर दिए| हर एक बात को समझने पर इस चीज़ से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि अस्पतालों को अपने डॉक्टरों, कर्मचारियों और रोगियों के लिए एक सुरक्षित वातावरण प्रदान करना होगा।
यह कोई रहस्य नहीं है कि अस्पताल इलाज और उपचार के मंदिर होने के बजाय भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं। यदि निजी अस्पताल मरीजों को लूटते हैं तो राज्य द्वारा संचालित प्रतिष्ठान अनैतिक आचरण में लिप्त होते हैं। साथ ही यह भी बता दें कि आर.जी. कर अस्पताल में खतरनाक मेडिकल कचरा और लावारिस लाशें बेचने और दवाओं और मेडिकल उपकरणों की खरीद में अनियमितता के आरोप भी हैं।
हर बलात्कार, हर जघन्य अपराध प्रतिशोध की मांग करता है खासकर अगर इसमें लड़कियां और महिलाएं शामिल हों। पूरा समाज इसमें एकजुट अपनी असहमति और क्रोध दिखाता है जैसा कि दिल्ली और अब कोलकाता बलात्कार मामले में हुआ लेकिन सवाल यह है कि एक व्यक्ति के रूप में, एक समाज और एक राष्ट्र के रूप में हमें खुद से यह पूछने की ज़रूरत है, क्या जागृति केवल घटना आधारित होनी चाहिए? क्या हमेशा ऐसा ही चलने वाला है? क्या हमें यह समझने के लिए किसी अपराध के घटित होने का इंतजार करना होगा कि समाज में कितना कुछ गलत चल रहा है? या एक समाज के रूप में हमारा सिर्फ पतन हो रहा है?
इस अस्वस्थता के दो पहलू हैं, एक कानून और दूसरा राजनीति जो हमेशा चलती रहती है। जहां तक कानून का सवाल है, भले ही उनका न्याय करना आवश्यक है लेकिन इसे अंतहीन रूप से खींचा नहीं जाना चाहिए। जघन्य अपराधों की सज़ा मिलनी ही चाहिए और वह सज़ा कड़ी होनी चाहिए। और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह समय सीमा से संचालित होना चाहिए। यदि अपराध करने वालों को पता हो कि उनके चारों ओर शिकंजा जल्द ही कस जाएगा तो कानून का डर भी ऐसे अपराधों को रोक सकता है और अगर ऐसा नहीं भी हुआ तो त्वरित न्याय दूसरों के लिए निवारक के रूप में काम करेगा। अब तक जिस तरह से चीजें चल रही हैं, जब तक अपराधियों को सजा दी जाती है और वास्तव में दंडित किया जाता है तब तक लोग अपराध, पीड़ित और अपराधी को भूल जाते हैं, इसके क्यों और कैसे,जैसे सवालों की तो बात ही रहने दीजिए।
जबकि निर्भया मामला अभी भी दिमाग में है लेकिन समाज की याददाश्त काफी कमजोर है और कम ही लोगों को आज भी याद होगा कि उन आरोपियों के साथ क्या हुआ था लेकिन हां, हर नए अपराध के साथ जो अतीत में हुआ था वह फिर से सामने आ जाता है और एक बार फिर समझदार लोग एकजुट हो जाते हैं और सड़कों पर उतर आते हैं, एक बार फिर उनकी अंतरात्मा जागती है और वे न्याय की मांग करते हैं।
लेकिन क्या यह सोचने का समय नहीं है कि जघन्य कृत्यों का अंत क्यों नहीं हो रहा है? देश को न केवल महिलाओं के लिए बल्कि हर नागरिक के लिए सुरक्षित बनाने के लिए व्यवस्थाएं क्यों नहीं बदलतीं? दशकों बाद भी चीज़ें वैसी ही क्यों दिखती हैं? और राजनीति क्यों चलती है और हर चीज़ को पृष्ठभूमि में धकेल देती है? यह सुनने में भले ही गंभीर लगे लेकिन इस सब में यह आशा की किरण है कि इसके लिए समाज का हर नागरिक एकजुट होकर अन्याय के विरोध में बोले: बस बहुत हुआ…
– कुमकुम चड्डा