लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों की हार–जीत होती रहती है औऱ सत्ता की अदला- बदली इसी के तहत सामान्य प्रक्रिया होती है मगर सबसे महत्वपूर्ण यह होता है कि यह कार्य आम जनता करती है जिसे ‘जनादेश’ कहा जाता है। इसी जनादेश को पाने के लिए सियासी पार्टियां अपना पूरा दम लगा देती हैं और लोगों को विश्वास दिलाती हैं कि उनकी हुकूमत आने पर लोगों के दुख–दर्द ही दूर होंगे और देश का चहुमुंखी विकास होता है। यह समझना पूरी तरह गलत ही नहीं होता बल्कि नाजायज होता है कि इस व्यवस्था में किसी भी पार्टी की सरकार मुल्क की मालिक होती है। वह लोगों द्वारा देश की सम्पत्ति और लोगों के हकों की सिर्फ चौकीदारी इस तरह करती है कि उसमें किसी भी तौर पर अमानत में खयानत न हो परन्तु लोकसभा चुनावों की बाकायदा घोषणा होने से पूर्व ही जिस तरह मुल्क की फिजां में कड़वाहट घुल रही है उसे देखते हुए यकीनी तौर पर कहा जा सकता है कि चुनावी युद्ध राजनीतिक मर्यादाओं को तार–तार करने से बाज नहीं आएगा। इस माहौल को मर्यादित करने की जिम्मेदारी आम मतदाता पर नहीं डाली जा सकती मगर इसके नतीजे की जिम्मेदारी मतदाताओं पर ही रहेगी। इसलिए जरूरी है कि मतदाता इन राजनीतिक दलों का भाग्य विधाता बने और अपनी सूझ-बूझ से भटकी राजनीति को सही दिशा दिखाए। जाहिर है कि चुनावी मैदान में जबानी जंग से ही हार–जीत का फैसला होता है इसका आधार विचारधारा होती है।
जब भारत में 1952 के पहले आम चुनाव हुए थे तो प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने पूरे छह महीने तक पूरे भारत में धूम कर जनसभाएं करके लोगों को चुनाव में भाग लेने के लिए प्रेरित किया था और कांग्रेस पार्टी की प्रतिद्वन्द्वी पार्टियों को वैचारिक आधार पर अपनी ही सत्ता को चुनौती देने की खुली अपील भी की थी और कहा था कि चुनाव आम जनता को राजनीति का ज्ञान देने की सबसे बड़ी पाठशाला होते हैं परन्तु केवल सत्तर साल में ही हम कहां से कहां पहुंच गये हैं इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब संसद में बैठे जनता के प्रतिनिधि किस लहजे में भारत की समस्याओं की समीक्षा करते हैं? हर बड़े मुद्दे और समस्या पर हम सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा कर साबित कर रहे हैं कि हमारे चुने हुए नुमाइदें अपने फर्ज से गाफिल हो रहे हैं।
संसद में कानून बाद में बनता है और उसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने की तैयारी पहले से ही हो जाती है। यह भारत के लोकतन्त्र की अजीम ताकत का बेजा इस्तेमाल करना नहीं है बल्कि लोकतन्त्र का गलत मतलब निकालना है क्योंकि संसदीय प्रणाली में बहुमत के शासन का मतलब अल्पमत को दबाना नहीं बल्कि उसके मत को भी बहुमत के मत में इस तरह शरीक करना होता है जिससे कोई भी फैसला ज्यादा से ज्यादा लोगों की पसन्द बन सके क्योंकि संसद में अल्पमत में बैठे लोगों को भी आम जनता ही चुन कर भेजती है और कोई भी सरकार पूरे देश की जनता की सरकार होती है।
विवाद या मतभेद पैदा होना लोकतन्त्र की शर्त होती है जिसका निपटारा भी संसदीय व्यवस्था में ही हंसी–खुशी करके किया जाता है जिसे आम सहमति कहा जाता है.. शोर–शराबा होना कोई गलत नहीं है बशर्ते इसका लक्ष्य समस्या की तह तक पहुंचना हो। आज सर्वोच्च न्यायालय ने बहुजन समाज पार्टी की नेता सुश्री मायावती के उत्तर प्रदेश की मुख्यमन्त्री रहते जिस तरह पत्थर की मूर्तियों पर सरकारी धन को लुटाने पर आपत्ति व्यक्त की है , इसी बात का प्रमाण है कि राजनीति ने जनता की समस्याओं पर पत्थर दिली से काम लेना शुरू कर दिया है। इसी प्रकार जब भी किसी रक्षा सौदे पर विवाद खड़ा होता है तो हमें अचानक अपनी रक्षा सेनाओं की कुर्बानियां याद आने लगती हैं और हम उन सवालों से पल्ला झाड़ने लगते हैं जिनकी वजह से रक्षा सौदों पर शक किया जाता है। यह अवधारणा का प्रश्न नहीं है बल्कि सियासत की उस आबरू का सवाल है जो आम जनता से ही ताकत लेकर अपना सिक्का चलाती है। यही आम जनता सरहदों की रखवाली करने के लिए फौज में भर्ती होकर राष्ट्र पर मर–मिटने का अपना हक अदा करती है। अतः सारी पहेलियां लोकतन्त्र में आम जनता पर पहुंच कर ही खुलती हैं और यही आम जनता चुनावों में देश की सरकार चुनने का काम करती है। इसलिए चुनावी शगूफे जब सियासी पार्टियां छोड़ती हैं तो भूल जाती हैं कि उनकी हैसियत राजा की न होकर भिखारी की है क्योंकि उनकी झोलियों में रकम (वोट) सिर्फ जनता ही डाल सकती है। इसलिए जब कोई मसला इस तरह उलझता है कि उसे सुलझाने की हर कोशिश और ज्यादा उलझटें पैदा कर दे तो जनता ही उसके पेंच निकालने का काम करती है। इसी वजह से जनता लोकतन्त्र की मालिक कही जाती है। भारत का संविधान उसके इस मालिकाना हक की पूरी हिफाजत इस तरह करता है कि इसके सामने एक मन्त्री और एक सन्तरी बराबर तुलते हैं। जनता जानती है कि एक नई रेलगाड़ी चलाने और पुरानी चलती–चलाती रेलगाड़ी की रफ्तार बढ़ाने में क्या फर्क होता है।
नई रेलगाड़ी चलाने के लिए रेल की पटरी बिछाने से लेकर डिब्बे जोड़-जोड़ कर ईंजन जोड़ने और ड्राइवर से लेकर गार्ड तक को तैनात करके सफर करने का इन्तजाम किया जाता है। हिन्दोस्तान ने अपने लोकतन्त्र में यही काम करके तो पूरी दुनिया को चौंकाया है वरना आजादी के वक्त कहां 99 प्रतिशत खेती करते लोग और आज कहां शहर- शहर में फैक्टरियों में काम करते लोग। यह सारा काम लोगों की मेहनत और उनके साथ-साथ चलने के नजरिये से ही हुआ। लोकतन्त्र में सियासत सिर्फ इसी नजरिये को पुख्ता करके मुल्क को मजबूत बनाने का नाम होती है, इससे ज्यादा कुछ नहीं.. अब हम देख लें कि हम कहां खड़े हुए हैं एक तरफ कश्मीर है तो दूसरी तरफ असम और प. बंगाल।