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ईवीएम और बैलेट की लड़ाई?

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चुनावों में ईवीएम मशीनों की सन्देहास्पद भूमिका को लेकर उठा विवाद कोई नया नहीं है मगर लन्दन में जिस तरह एक प्रेस कान्फ्रेंस करके भारत के ही साइबर विशेषज्ञ सईद शुजा ने खुलासा किया है कि पिछले आम चुनाव से लेकर विभिन्न राज्यों में हुए चुनावों में ईवीएम मशीनों को ‘हैक’ करके मनमाफिक नतीजे निकलवाये गये, यकीनन ऐसा गंभीर मामला है जिससे भारत का पूरा लोकतन्त्र कंपकंपाने लगा है लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ईवीएम मशीनों की वकालत में खड़ी होकर इसकी मुखालफत करने वाली राजनैतिक पार्टियों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रही है कि यह मसला सरकार के अधिकार क्षेत्र का न होकर पूरी तरह स्वतन्त्र व निष्पक्ष संवैधानिक संस्था ‘चुनाव आयोग’ के हक का है।

यद्यपि लंदन की प्रैस कांफ्रेंस में सईद शुजा के तर्कों में कोई दम नजर नहीं आ रहा लेकिन बवाल तो मच ही गया है। बिना शक सबसे पहले ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष सुश्री मायावती ने लगाया था और इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय तक का दरवाजा भी खटखटाया था मगर प्रश्न इससे भी बहुत बड़ा है जिसे संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने बहुत साफगोई के साथ बयान किया था।

उन्होंने कहा था कि भारत की संसदीय व्यवस्था के तहत विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका की इमारत चुनाव आयोग द्वारा तैयार जमीन पर इस तरह खड़ी होगी कि हर राजनैतिक दल के साथ एक बराबरी का व्यवहार हो और आम जनता के वोट से बनी इस इमारत की हर ईंट वोट की ही पवित्रता की गवाही दे रही हो। गौर करने वाली बात यह है कि चुनाव आयोग की ही प्रथम और अन्तिम जिम्मेदारी होती है कि वह जनता की इच्छा से बनने वाली सरकार को ही गद्दी सौंपने की जमीन तैयार करे। अतः सईद शुजा ने सीधे सवाल चुनाव आयोग से किया है क्योंकि भारत में ईवीएम मशीनों को बनाने में इस व्यक्ति की भूमिका रही है। हालांकि जब इन मशीनों को चुनाव आयोग द्वारा उपयोग करने के लिए संसद में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन करके प्राधिकृत किया गया था तो 1986 में स्व. राजीव गांधी की सरकार थी।

इसका मकसद चुनावी प्रक्रिया को जल्द से जल्द निपटाने का था मगर इस संशोधन की मार्फत चुनाव आयोग के लिए मतदान का नया विकल्प खोला गया था, उसे यही रास्ता अपनाने के लिए बाध्य नहीं किया गया था। नीति अच्छी थी मगर लोकतन्त्र में सबसे अहम नीति नहीं बल्कि नीयत होती है। सुश्री मायावती ने पहली बार ईवीएम पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हुए इसी नीयत पर सवाल उठाये थे। इसे गलत साबित करने की जिम्मेदारी सरकार पर मुख्य रूप से इसलिए थी कि उसने ही संविधान में संशोधन करके ईवीएम मशीनों को जारी किया था। अतः अपनी निष्पक्षता और सत्यता साबित करने की चुनौती उल्टे वह विपक्षी पार्टियों पर फेंक सकती थीं। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में पुनः संशोधन करके पुराने बैलेट पेपर के रास्ते चुनाव कराने की प्रणाली को लाजिम बना सकती थी मगर ऐसा करने के बजाय उसने ईवीएम मशीनों की तरफदारी करने की तहरीक छेड़ दी।

इससे सबसे बड़ा नुकसान उसे ही हुआ क्योंकि जब भाजपा विपक्ष मंे थी तो उसने ईवीएम मशीनों को हैक करने पर ही पूरी किताब लिख डाली थी। जिसने वह किताब लिखी थी वह सज्जन अब राज्यसभा की शोभा बढ़ा रहे हैं। सवाल यह बिल्कुल नहीं है कि चुनाव जीत जाने पर विपक्षी दल खुश हो जाते हैं और हारने पर ईवीएम के माथे दोष मढ़ने लग जाते हैं बल्कि असली सवाल यह है कि मशीनों की वोटर और वोट के बीच में हैसियत क्या है? संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि वोटर और वोट के बीच किसी भी दृश्य या अदृश्य रूप में किसी तीसरे की कोई भूमिका नहीं हो सकती। बैलेट पेपर प्रणाली में मतदाता अपने मत की पहचान करने का हक किसी तीसरी ताकत के हाथ मंे नहीं देता।

उसका छापा हुआ या लिखा हुआ ही बोलता है जबकि वर्तमान में ईवीएम मशीन बोलती है, यही वजह है कि दुनिया के हर बड़े लोकतान्त्रिक देश ने बैलेट प्रणाली ही अपनाना उचित समझा है और अमेरिका जैसे मुल्क ने भी बैलेट पेपर को ही सबसे मुफीद माना है इसके बावजूद चुनाव आयोग लगातार न जाने क्यों ईवीएम मशीनों के प्रयोग करने की जिद पर ही अड़े रहना चाहता है। लोकतन्त्र का मूल सिद्धान्त है कि ‘वोट हमारा-राज हमारा’ मगर ईवीएम मशीनों पर शक उठने से यह स्थिति बदल कर ‘वोट हमारा-राज तुम्हारा’ के सन्देह से क्यों घिरनी चाहिए। भारत के गांवों में एक कहावत है कि ‘सांच को आंच नहीं।’ इसकी हकीकत इतनी सी है कि सच सौ-सौ परीक्षाएं देने से भी डरता नहीं है क्योंकि गांवों में यह भी कहावत है कि आखिर में जीतेगा सच ही चाहे उसे जीतने में कितना ही वक्त लगे।

अतः आज वह कांग्रेस पार्टी भी ईवीएम मशीनों को बन्द करने की वकालत कर रही है जिसने इन्हें शुरू किया था। सवाल फिर से नीयत का ही आता है, नीति का नहीं। जाहिर तौर पर ईवीएम मशीनों की पैरवी हार का डर बताकर नहीं की जा सकती क्योंकि इसका मतलब उल्टा ही निकलेगा। यही वजह है कि सुश्री मायावती ने अब ईवीएम मशीनों को ‘वोट हमारा-राज तुम्हारा, नहीं चलेगा’ का उदाहरण बता दिया है। इस संशय के वातावरण के चलते चुनाव आयोग के इस तर्क को वाजिब नहीं कहा जा सकता है कि ईवीएम मशीनों के साथ लगी वीवीपैट मशीनों में मतदाता अपने डाले गये वोट की तसदीक सात सैकेंड में इसमें निशानी पर्ची को देखकर कर सकते हैं क्योंकि चुनाव परिणाम इन पर्चियों को गिन कर नहीं बल्कि मशीनों में दर्ज वोटों के आंकड़े निकाल कर घोषित किये जाते हैं।

इसके साथ ही यह सवाल भी जुड़ा हुआ है कि अधिसंख्य गांवों के अनपढ़ मतदाता एक मशीन में बटन दबा कर दूसरी मशीन में अपने वोट की तसदीक करने में कैसे निपुण हो सकते हैं ? इसमें कोई दो राय नहीं है कि आने वाले लोकसभा चुनाव बैलेट पेपर से कराने में चुनाव आयोग को बहुत मशक्कत करनी पड़ सकती है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि अगर ठान लिया जाये तो इसे मुमकिन नहीं बनाया जा सकता। अभी तो चुनावों में सत्तर दिन से ज्यादा का समय बचा हुआ है इसके बावजूद आगामी लोकसभा चुनाव मशीनों से ही पूरी ऐहतियात के साथ कराये जा सकते हैं। सरकार यह जरूर कर सकती है कि 31 जनवरी से शुरू होने वाले संसद सत्र में वह जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में उसी प्रकार संशोधन करा ले जिस तरह उसने दस प्रतिशत आरक्षण देने के संविधान संशोधन विधेयक को पारित कराया था। इससे उसकी नेकनीयत पर विपक्ष को सवाल उठाने का कोई अवसर नहीं मिल पायेगा।

इसके साथ ही चुनाव आयोग यह सुनिश्चित करे कि लोकसभा चुनावों के परिणाम वीवीपैट मशीनों की पर्चियों को गिनकर ही घोषित किये जायेंगे और इन मशीनों में मतदाता द्वारा अपने दिये गये वोट की तसदीक करने का समय सात सैकेंड से ज्यादा किया जायेगा और मतदाता को इस बारे में जागरूक करने का व्यापक अभियान चलाया जायेगा। सबसे पहला काम उस मतदाता का भरोसा जीतने का होना चाहिए जो किसी भी सरकार का मालिक होता है और मन्त्री नौकर होता है।

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