एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा संगोष्ठी में एक जापानी ने बताया कि उन्नति की दौड़ में जापान इस लिए काफ़ी आगे पहुंच गया क्योंकि उसके देश में अंग्रेजी अन्यथा किसी और माध्यम में शिक्षा प्रदान नहीं की जाती और चाहे विज्ञान की शिक्षा हो या वाणिज्य आदि की, सभी का माध्यम जापानी भाषा ही रहता है। अब थोड़ी नज़र हम अपनी भारतीय शिक्षा प्रणाली पर भी डालते हैं, जहां हिंदी और अन्य लगभग 20 प्रांतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेजी को इस प्रकार से थोप दिया गया है कि लगता है जब तक इंटरव्यू में प्रत्याशी टॉप के गोले की गति से अंग्रेज़ी नहीं बोलेगा, सफ़लता प्राप्त नहीं होगी। इस प्रकार का आडंबर बना हुआ है, जिसके कारण वे विद्यार्थी और व्यक्ति, जो कैंब्रिज, ऑक्सफोर्ड या अमेरिकन ब्रैंड की अंग्रेज़ी नहीं बोल पाते, हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं और अंग्रेज़ी बोल-चाल में दक्ष होने हेतु विशेष "इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स", "रेपिडेक्स इंग्लिश" आदि का सहारा लेते हैं। ये कोर्स बड़े महंगे होते हैं और एक साधारण व्यक्ति इनकी फीस नहीं दे सकता।
हाल ही में एक पत्रकार ने लच्छेदार अंग्रेज़ी भाषा बोलने और लिखने के लिए समय देने का आग्रह किया कि उनकी अंग्रेज़ी अच्छी होती तो वह कंपनी के सीईओ होते। ऐसे ही एक भारतीय युवाओं की हिमायत में एक बहस भी रखी थी कि विदेशों में नौकरी और शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा रखने वालों से कुछ अंग्रेज़ी सीखने वाले संस्थान लाखों रुपए ऐंठ लेते हैं और नतीजा, टाएं-टाएं फिस। इस प्रकार का एक रैकेट चल रहा है।
एक लेखक ने लिखा है कि अमरीकी नोबेल पुरस्कार विजेता वंगारी मथाई ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि फिरंगी इस बात को भली भांति समझ चुके थे कि जहां उनको राज करना है तो सर्वप्रथम, उन लोगों या उस क्षेत्र की भाषा को समाप्त कर, अपनी भाषा का वर्चस्व कायम करना है। भारत में यह कार्य लॉर्ड थॉमस बेबिंगटन मैकॉले (1800-1859) ने बड़े सटीक तरीके से किया कि यहां की अपनी भाषाओं के माध्यम में पढ़ाई कराने की बजाय अंग्रेज़ी को माध्यम बनाया। उसने बड़े शातिर अंदाज़ में भारत की "सुप्रीम काउंसिल" की सदस्यता प्राप्त की, क्योंकि मौजूदा संसद की तरह इसकी पकड़ जनता की नब्ज़ पर थी। उसने इस प्रौजेक्ट को पास करा तो लिया, मगर कुछ समझदार व ईमानदार अंग्रेज़ अफसर ऐसे भी थे, जिन्होंने इस पर आपत्ति जताई और कहा कि भारत एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक भाषाई विरासत है, जहां संस्कृत, फ़ारसी और अरबी भाषाओं का बोलबाला है।
उन्होंने हवाला भी दिया कि 1786 में सर विलियम जोन्स और सर जॉन शोर ने इस बात पर लेख लिखे थे कि भारतीय भाषा, संस्कृत, लातीनी, ग्रीक और अतल्वी भाषाओं से कहीं अधिक समृद्ध थी और भारत की आत्मा उस में थी। इन दोनों और दूसरों ने भी इस बात का हवाला भी दिया कि 1823 में उस समय भारत के गवर्नर जनरल, लॉर्ड एमहर्सट ने देश में संस्कृत भाषा पर रोक लगाने की कोशिश की कि यह तो बड़ी कठिन भाषा और "डैड लैंग्वेज है, तो सामाजिक कार्यकर्ता राजा राम मोहन राय ने इसका घोर विरोध किया और ऐसा होने से रोका। 1873 में बंकिम चंद्र चटर्जी ने भी इस बात का विरोध किया कि उन्हें अंग्रेज़ी से कोई नफ़रत नहीं, मगर भारतीय भाषाओं को बने रहना चाहिए। उन्होंने मैकॉले के अंग्रेजी 'बाबुओं' अर्थात क्लर्क्स का बड़ा विरोध किया था, जो भारत की भाषा और तहज़ीब को डुबो रहे थे।
उस समय फारसी बाज़ार और सरकार की भाषा भी हुआ करती थी, मगर भारतवासियों को बांटने के साथ-साथ, फिरंगियों ने भाषाओं को भी बांट दिया। इससे मैकॉले के अंग्रेज़ी मध्यम के कार्यक्रम पर थोड़ा स्पीड ब्रेक लगा। उस समय, हिंदी का चलन भी था और उर्दू भी शुरू हो चुकी थी। हुआ यह कि 1835 में मैकॉले भाषा समिति का अध्यक्ष बन गया और उसने अंग्रेज़ी को भारत वासियों पर थोप दिया। इस बात को हमें जान लेना चाहिए कि किसी देश या क़ौम को समाप्त करने के लिए पहले उसकी भाषा समाप्त की जाती है और फिर शिक्षा पर ग्रहण लगाया जाता है। अतः हिंदी हमरे दिल और रूह की भाषा है, इसको भारत ही में नहीं विश्व स्तर पर ले जाना होगा।
– फ़िरोज़ बख्त अहमद