संसद के बजट सत्र के दौरान ही भारत की संसदीय प्रणाली का जो फजीता हो रहा है उसकी भारत के संसदीय इतिहास में दूसरी मिसाल मिलना कठिन है, बेशक पिछले बीस सालों के दौरान ऐसे कई मौके आये हैं जब बजट बिना बहस के ही पारित हुआ है। बजट सत्र की शुरूआत प्रायः राष्ट्रपति के अभिभाषण से होती है जिसके लिए संसद के दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाया जाता है जिसमें राष्ट्रपति ‘अपनी’ सत्तारूढ़ सरकार की नीतियों के बारे में बताते हैं। संसदीय लोकतन्त्र में इसका विशेष महत्व होता है क्योंकि राष्ट्रपति ही लोकसभा में बहुमत पाने वाली पार्टी या विभिन्न दलों के समूह को सरकार बनाने की अनुमति व स्वीकार्यता देते हैं। यह सरकार संसदीय नियमावली के तहत लोकसभा व राज्यसभा के भीतर जनता के प्रति अपने उत्तरदायित्व को निभाते हुए सरकार चलाती है और विपक्ष द्वारा उठाये गये विभिन्न सवालों का जवाब देती है। इसके द्वारा जो भी विधायी कार्य सदन के भीतर किया जाता है उसे विपक्ष की तसदीक के लिए प्रस्तुत किया जाता है और इस सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं पर खुल कर चर्चा होती है। सरकार का वित्तीय कार्य लोकसभा का विशेषाधिकार होता है जिसे ‘मनी बिल’ के रूप में माना जाता है। बजट या वित्त विधेयक इसका सबसे बड़ा हिस्सा होता है। अतः जब बजट ही लोकसभा में बिना किसी बहस या शोर- शराबे के बीच पारित कर दिया जाता है तो संसद की सार्थकता के बारे में देश की जनता के मन में सन्देह उठने लगते हैं और वह सोचने पर मजबूर होने लगती है कि हर पांच साल बाद होने वाले लोकसभा चुनावों के जरिये वह अपने जिन 543 प्रतिनिधियों को चुन कर भेजती है उनका वहां पहुंचने के बाद क्या काम होता है।
इस सन्दर्भ में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि अल्पमत में बैठे विपक्षी सांसदों को संसद के भीतर वे ही अधिकार मिले होते हैं जो सत्तारूढ़ दल के सांसदों के पास होते हैं। विपक्षी सांसदों का चुनाव भी देश के मतदाता ही करते हैं अतः संसद के भीतर जो बहुमत की सरकार बनती है उसमें उनकी भी हिस्सेदारी होती है क्योंकि प्रजातन्त्र के राज को जनता का राज कहा जाता है। अतः उनके पास पूरे अधिकार होते हैं कि वे सरकार द्वारा संसद में रखे गये किसी भी विधेयक की ऊपर से लेकर नीचे तक जम कर तसदीक करें और सरकार को अपनी राय से अवगत करें जिससे वह किसी भी विधेयक की खामियों को जनहित में संशोधित या ठीक कर सके। पहले रेल बजट पृथक रूप से रखे जाने की भी परंपरा थी जिसे अब समाप्त कर दिया गया है। इसके साथ ही बजट के माध्यम से कोई भी सरकार देश की अर्थव्यवस्था को सकारात्मक दिशा देने की कोशिश करती है और लोगों को विश्वास दिलाती है कि उसकी नीतियों से जन मानस का जीवन अधिक सुखमय होगा और समाज के आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्तियों का जीवन स्तर सुधरेगा। इन मुद्दों पर जब संसद में बहस होती है तो जनता यह समझने में कामयाब होती है कि उसने देश की बागडोर जिन राजनैतिक लोगों या दलों के हाथ में दी है वे जन कल्याण के प्रति कितने संवेदनशील हैं।
बजट पर बहस न होना लोकतन्त्र में एक प्रकार से सत्तारूढ़ दल के खिलाफ ही जाता है । इसलिए हर सरकार कोशिश करती है कि उसका जो भी बजट हो उस पर संसद में खुलकर चर्चा की जाये जिससे आम जनता समझ सके कि जन कल्याण के लिए किये जा रहे उसके कार्यों को जनता का कितना समर्थन है। इसी वजह से वित्त विधेयक में विपक्षी सांसद अपने-अपने संशोधन प्रस्ताव यह जानते हुए भी रखते हैं कि उन पर मतदान होने की स्थिति में उनके संशोधन गिर जायेंगे क्योंकि उनके पक्ष का बहुमत नहीं है। मगर इस बहाने वे सरकार को सचेत करते हैं।
खैर हम सभी जानते हैं कि 1 अप्रैल से शुरू होने वाला बजट लोकसभा में पारित हो गया है जिस पर राज्यसभा केवल विचार करने के बाद इसे लौटा देगी। मगर वित्त मन्त्री ने इस दौरान केन्द्रीय कर्मचारियों की पेंशन स्कीम के बारे में पुनर्विचार करने का आश्वासन भी दिया। जाहिर है कि सरकार का इरादा पुरानी पेंशन स्कीम की तरफ लौटने का नहीं है क्योंकि वित्तमन्त्री ने वित्त सचिव के नेतृत्व में नई पेंशन स्कीम में सुधारों की सिफारिश करने के लिए एक समिति गठित करने का ऐलान किया है। इसका स्वागत किया जा सकता है क्योंकि रिटायर होने के बाद कर्मचारियों की सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा का मुद्दा उनकी पारिवारिक स्थिति तक से जाकर जुड़ता है। बुढ़ापे में उन्हें आर्थिक सुरक्षा की सबसे ज्यादा जरूरत होती है जिससे उनके परिवार में ही उनका मान-सम्मान बना रहे और वे अपने ही लोगों की उपेक्षा का शिकार न हों।