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चुनावी चंदे की चुनौती

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राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे पर हमेशा से पारदर्शिता की अंगुली उठती रही है। कानूनन राजनीतिक दल 20 हजार से अधिक के नकद चंदे को ही सार्वजनिक करने के लिए बाध्य होते हैं। लिहाजा इनको मिले चंदे में करीब 70 फीसदी हिस्सा इस तय सीमा से कम के चंदों का होता था। चंदे के यही बेनामी स्रोत सारे फसाद की जड़ हैं। कालाधन खपाने के लिए बड़े स्रोत के रूप में यह प्रक्रिया अपनाई जाती रही है। पारदर्शिता लाने के क्रम में सरकार ने चंदे को सार्वजनिक करने की सीमा 2 हजार कर दी। राजनीतिक चंदे की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए केन्द्र सरकार ने चुनावी बांड जारी करने का कदम उठाया। चुनावी बांड योजना के तहत चंदा देने वाला व्यक्ति चैक और डिजिटल भुगतान के तहत निर्धारित बैंकों से बांड खरीद सकता है।

ये बांड पंजीकृत राजनीतिक दल के निर्धारित बैंक खाते में ही भुनाए जा सकते हैं। बांड खरीदने वाले की पहचान गोपनीय रखी जाएगी। इस गोपनीयता के पीछे सरकार ने दलील दी थी कि नाम उजागर होने पर लोग विपक्ष या आयकर विभाग के निशाने पर आ सकते हैं। इस व्यवस्था के तहत बांड खरीदने वाला व्यक्ति कर चुकाने के बाद ही इसे खरीदेगा। सरकार का दावा था कि इससे राजनीतिक चंदे के लिए कर चोरी द्वारा अर्जित धनराशि के इस्तेमाल पर रोक लगेगी। चुनाव आयोग ने अब सरकार के इलैक्टोरल बांड सिस्टम के खिलाफ रुख अपनाया है। सुप्रीम कोर्ट में इलैक्टोरल बांड की मान्यता पर सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग ने इलैक्टोरल बांड को ही प्रतिगामी कदम बता दिया है। चुनाव आयोग ने कहा है कि चुनावी बांड के जरिये राजनीतिक दल सरकारी कम्पनियों और विदेशी स्रोत से फंड प्राप्त कर सकेंगे जो कानून का सीधा उल्लंघन है।

इलैक्टोरल बांड के माध्यम से प्राप्त धन को रिपोर्ट नहीं किया जा सकता, ऐसे में जानकारी प्राप्त करना मुश्किल होगा कि क्या जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 29 बी के तहत उल्लंघन हुआ है या नहीं जबकि इस धारा के तहत राजनीतिक दल सरकारी कम्पनियों या विदेशी स्रोतों से धन प्राप्त ही नहीं कर सकते। चुनाव आयोग का यह कहना है कि चुनावी बांडों का फायदा उठाकर फर्जी कम्पनियां पार्टियों को कालाधन बांट रही हैं। चुनाव आयोग के विरोध के चलते अब यह स्पष्ट हो चुका है कि व्यवस्था में ही खामियां हैं, जिस चंदे को अज्ञात स्रोत कहा जाता है उन सबको जायज बनाने के लिए ही चुनावी बांड योजना तैयार की गई। जहां तक राजनेताओं की सम्पत्ति में अप्रत्याशित उछाल की बात है तो इसकी बड़ी वजह राजनीतिक दलों द्वारा नकद में चंदे लेने का बढ़ता शौक हो सकता है। देश में डिजिटल इंडिया के तहत सभी तरीके के लेन-देन डिजिटल माध्यम से किए जाने पर जोर दिया जा रहा है।

कालाधन कम करने का यह प्रभावी तरीका भी है। चौंकाने वाली बात यह है कि राजनीतिक दलों को नकद चंदा लेने की छूट अभी भी है, चाहे वह 2 हजार रुपए तक ही क्यों न हो। जब साधारण नागरिक छोटे से छोटा भुगतान भी डिजिटल माध्यम से कर सकता है तो यह समझ में नहीं आता कि छोटे-बड़े सभी राजनीतिक दलों को नकद चंदा लेने की क्या आवश्यकता है। इसका एक ही कारण समझ में आता है कि अगर चंदा चेक या डिजिटल माध्यम से दिया और लिया जाए तो सारे का सारा पैसा हिसाब में आ जाता है लेकिन अगर चंदा नकदी के रूप में लिया जाए तो उसमें से थोड़ा-बहुत हिस्सा इधर-उधर करने की सम्भावना बनी रहती है। मान लीजिए कि किसी कम्पनी के मालिक ने अपने किसी आदमी को 10 करोड़ रुपए देकर कहा कि इसे अमुक पार्टी के फलां कार्यकर्ता को दे आओ। कम्पनी का आदमी पार्टी कार्यकर्ता को 9 करोड़ रुपए ही देता है और अपने मालिक को पूरी रकम देने की बात बता देता है।

चूंकि मामला नकद का है लिहाजा उसकी कोई पक्की रसीद तो होगी नहीं। दूसरी तरफ पार्टी का कार्यकर्ता अपने नेता को बताता है कि कम्पनी ने 8 करोड़ रुपए ही भेजे। इस प्रकार राजनीतिज्ञों की निजी सम्पत्ति भी बढ़ती रहती है। इलैक्टोरल बांड लाने से असलियत में कुछ नहीं बदला। कानूनी उपायों की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि राजनीतिक दलों की नीयत ही साफ नहीं है। राजनीतिक दलों को अभी तक सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं लाया गया क्योंकि राजनीतिक दल ऐसा चाहते ही नहीं। अब चुनावी बांडों का मामला सुप्रीम कोर्ट में है। देखना है कि शीर्ष अदालत क्या फैसला करती है। चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता का अभाव बड़ी चुनौती है। लोगों को पता लगना ही चाहिए कि किस पार्टी को कौन-कौन सी कम्पनी कितना चंदा दे रही है। इसी पारदर्शिता से सब कुछ साफ हो जाएगा।

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