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कर्नाटक चुनावों की चुनौती

चुनाव आयोग ने कर्नाटक में चुनावों की समय तालिका घोषित कर दी है।

चुनाव आयोग ने कर्नाटक में चुनावों की समय तालिका घोषित कर दी है। आगामी 10 मई को पूरे राज्य में एक ही चरण में राज्य की कुल 224 विधानसभा सीटों पर मतदाना होगा जिनका नतीजा 13 मई को घोषित होगा। चालू वर्ष के दौरान यह देश की किसी चौथी विधानसभा के चुनाव होंगे। इससे पहले पूर्वोत्तर के तीन राज्यों त्रिपुरा, मेघालय व नगालैंड के चुनाव हो चुके हैं। कर्नाटक राज्य अभी तक हुए सभी विधानसभा चुनावों में सबसे महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि भारत के दक्षिणी क्षेत्र का प्रवेश द्वार माना जाता है जिसकी एक तरफ सीमा महाराष्ट्र से लगती है तो दूसरी तरफ केरल जैसे राज्य से लगती है। भारत की राजनीति में भी इस राज्य का विशेष महत्व है क्योंकि पूरे दक्षिण भारत में यह एकमात्र ऐसा राज्य है जहां केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने अपनी पैठ बनाने में सफलता प्राप्त की थी। हालांकि इस राज्य में इस पार्टी को अपने बूते पर चुनावों में अभी तक कभी भी पूर्ण स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ है परन्तु इसके बावजूद यह कई बार अपनी अगुवाई में सरकार बनाने में सफलता प्राप्त कर चुकी है। राज्य में इसका मुकाबला कांग्रेस पार्टी से ही होता है। 
पिछले 2018 के चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी और इसके 104 सदस्य चुने गये थे जबकि कांग्रेस के 78 व जनता दल (स) के 37 सदस्य चुने गये थे। जबकि भाजपा को 36 प्रतिशत मत मिले थे और कांग्रेस को 38 प्रतिशत। परिणामतः जनता दल (स) के नेता श्री एच.डी. कुमार स्वामी के नेतृत्व में कांग्रेस के साथ उनकी पार्टी की मिलीजुली सरकार बन गई थी। जबकि इससे पहले सिद्धारमैया सरकार काबिज थी।  पाठकों को याद होगा कि 2018 में चुनावों के बाद सरकार बनाने के मुद्दे पर राज्य में भारी राजनैतिक नाटक चला था। तत्कालीन राज्यपाल ने पहले भाजपा नेता बी.एस. येदियुरप्पा को सदन में सबसे बड़ी पार्टी के नेता होने की वजह से सरकार बनाने का निमन्त्रण दे दिया था जबकि इसके समानान्तर कांग्रेस नेता श्री सिद्धारमैया ने उन्हें अपनी पार्टी कांग्रेस द्वारा जनता दल (स) के नेता श्री कुमार स्वामी को समर्थन दिये जाने का पत्र पहले ही पकड़ा दिया था, जिसकी वजह से राज्य में जबर्दस्त कानूनी व विधायी लड़ाई भी चली थी और अंत में मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा था जिसकी वजह से अंत में कुमार स्वामी सरकार को ही शपथ दिलाई गई थी परन्तु जुलाई 2019 के आते-आते कांग्रेस व जनता दल के 17 सदस्यों ने अपनी सदन की सदस्यता से इस्तीफा देकर विधानसभा की शक्ति को इस मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया था कि भाजपा को घटी सदन शक्ति के भीतर स्पष्ट बहुमत मिल जाये। इसके बाद श्री येदियुरप्पा के नेतृत्व में कुमार स्वामी के बहुमत खो जाने के बाद सरकार बनाने का न्यौता दिया गया था। 
इसके बाद सदस्यता से इस्तीफा देने वाले विधायकों ने भाजपा के टिकट पर उपचुनाव लड़ा और उनमें से अधिसंख्य जीत गये और भाजपा पूर्ण शक्ति वाली विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने में कामयाब हो गई परन्तु लोकतन्त्र में इस कार्यवाही को तब ‘इस्तीफा संस्कृति’ कहा गया और भारी आलोचना भी हुई। इसी फार्मूले का अनुसरण बाद में मध्य प्रदेश की कांग्रेस की कमलनाथ सरकार को गिराने के लिए भी किया गया और वहां भी भाजपा सरकार सत्ता में आयी। मगर यह कोई नई बात नहीं थी। इस इस्तीफा फार्मूले का सबसे पहले प्रयोग कांग्रेस ने ही गोवा में 2001 के करीब किया था परन्तु मूल सवाल यह है कि लोकतन्त्र में जनता के जनादेश का शुद्ध अन्तःकरण से पालन होना चाहिए और सभी राजनैतिक दलों को इसका पालन करना चाहिए। ऐसा होने की संभावना तब बहुत ज्यादा होती है जब जनता अपना स्पष्ट बहुमत किसी एक दल को देने में कोताही बरतती है परन्तु बदलते राजनीतिक माहौल की वजह से एेसा जरूरी भी नहीं होता। अतः एेसे में स्वयं जनता को ही आगे आकर राजनैतिक दलों को पाठ पढ़ाना पड़ता है। 
कर्नाटक विधानसभा चुनाव तो 10 मई को होंगे मगर इस राज्य के राजनैतिक मुद्दे अभी से तैरने शुरू हो गये हैं जिनमें सबसे बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार का माना जा रहा है। श्री येदियुरप्पा को बीच में ही हटा कर भाजपा ने श्री बोम्मई को अपना मुख्यमन्त्री बनाया था और उनके शासन को बहुत ढीलमढाला माना जा रहा है जिसकी वजह से सत्ता विरोधी भावनाएं भी सतह पर आ रही हैं। हालांकि राज्य के स्थानीय निकाय के छिटपुट हुए चुनावों के परिणामों से ऐसा नहीं लगता। इसलिए यह माना जा रहा है कि राज्य में चुनावी लड़ाई भयंकर होगी जिसमें जातिवाद से लेकर विभिन्न वर्गों को मिलने वाले आरक्षण के मुद्दे भी उठेंगे। कांग्रेस जहां बोम्मई सरकार को 40 प्रतिशत कमीशन की सरकार बता रही है वहीं भाजपा कांग्रेस पर अपने राज के दौरान मुस्लिम तुष्टीकरण करने के आरोप लगा रही है। राज्य में मुस्लिम कन्याओं द्वारा हिजाब पहनने का मुद्दा भी बहुत तूल पकड़ता रहा है। जबकि भाजपा टीपू सुल्तान व सावरकर के मुद्दे पर भी आक्रामक रही है। मगर ये सब मुद्दे राजनैतिक दलों के हैं अतः देखने वाली बात यह होगी कि राज्य की जनता प्रादेशिक स्तर पर किन विषयों को अपना मुद्दा बनाती है और उनके आधार पर मतदान करती है। कर्नाटक भारत के प्रमुख पांच अग्रणी आर्थिक राज्यों में आता है और इसके लोग भी बहुत मेहनती और जीवट वाले माने जाते हैं। इसके साथ ही इस राज्य में विपक्षी एकता की पैमाइश भी होगी। विभिन्न विपक्षी राजनैतिक दलों का दिल्ली में जो एका बन रहा है क्या उसका अक्स कर्नाटक में भी देखने को मिलेगा?  अतः विपक्षी एकता का भी यह राज्य परीक्षण स्थल बनने जा रहा है। 

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