वर्षा के पूर्वानुमान के लिए अनेक लोकोक्तियां प्रचलित रहीं, उन्हें वायु की दिशा, बादलों के रंग आैर उनके नभ में आवागमन की दिशा और तिथि के आधार पर मुख्यतः विभाजित किया जा सकता है।
सावन की पछिवां दुश्चर,
चूल्ही के पीछे उपजे सार।
यानी सावन में पश्चिम दिशा से चलने वाली हवा से अनाज भरपूर होगा अर्थात् वर्षा अच्छी होगी। आज की पीढ़ी को लोकोक्तियों के बारे में कुछ ज्यादा जानकारी नहीं, उनके लिए आज मौसम की सटीक जानकारी देने वाला विभाग है। मौसम विभाग ने इस बार अच्छी खबर सुनाई है कि इस बार पूरे सीजन में 97 फीसदी वर्षा हो सकती है। हाल ही में स्काईमेट ने भी इस साल मानसून के सामान्य रहने का अनुमान जारी किया था। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 2014 आैर 2015 में सूखे की स्थिति बन गई थी। मानसून का सीधा सम्बन्ध भारत की अर्थव्यवस्था से है। भारत में सालाना 70 प्रतिशत ही बारिश होती है। मानसून पर ही चावल, गेहूं, गन्ने और सोयाबीन जैसी फसलों की उपज निर्धारित होती है। कृषि भारत की अर्थव्यवस्था का 15 प्रतिशत हिस्सा है आैर इसमें देश की आधी आबादी कार्यरत है। अच्छी बारिश से फसलों का उत्पादन बढ़ता है, किसानों के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है, ग्रामीण आबादी की आमदनी बढ़ती है तो उपभोक्ता वस्तुओं की मांग भी बढ़ती है। इससे विभिन्न उत्पाद बनाने वाली कम्पनियां भी खुशहाल होती हैं।
सूखे की स्थिति में हमें दूसरे देशों से अनाज का आयात करना पड़ता है। वर्ष 2009 को याद कीजिये, जब खराब मानसून के चलते भारत को चीनी आयात करनी पड़ी थी, इसके चलते चीनी की वैश्विक कीमत काफी बढ़ गई थी। कभी मौसम विभाग की भविष्यवाणी गलत ही साबित होती थी लेकिन अब मौसम विभाग सटीक भविष्यवाणी करने लगा है। 2008 से अब तक मौसम विभाग का 2017 का अनुमान सबसे सटीक निकला था। पिछले वर्ष मौसम विभाग और असल बारिश में केवल एक प्रतिशत का अन्तर था। ईश्वर करे मौसम विभाग का आकलन बिल्कुल सही बैठे। नरेन्द्र मोदी 2014 में जब प्रधानमंत्री बने थे तो अच्छे मानसून के कारण खाद्यान्न उत्पादन अधिक हुआ था आैर प्रधानमंत्री ने कहा था कि उनके अच्छे नसीब के कारण ही बरसात अच्छी हुई है। प्रधानमंत्री ने 2019 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वायदा भी किया हुआ है, लेकिन सवाल सबसे अहम है कि क्या मानसून की अच्छी वर्षा का फायदा किसानों काे मिल पाएगा?
इसमें कोई संदेह नहीं कि फसल बम्पर होगी, लेकिन हमने आज तक बम्पर उत्पादन का प्रबन्धन करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए। बम्पर उत्पादन हो तो किसान उसे फैंकने को मजबूर हो जाएगा या काफी कम दाम पर बेचेगा। सरकारों ने आज तक ऐसा ढांचा ही तैयार नहीं किया जिससे फसल की निश्चित कीमत किसान को मिल सके। खुले में पड़ी फसल खराब हो जाती है और किसान अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाता है। उत्तर प्रदेश को लीजिये, यहां गन्ने की पैदावार बहुत होती है लेकिन चीनी मिलें उनसे गन्ना खरीद ही नहीं रहीं, चीनी मिलें एजैंटों के माध्यम से कम कीमत पर गन्ना खरीद रही हैं। गन्ने की फसल खेतों में खड़ी सूख रही है। किसानों को अब तक मिलों ने पर्चियां ही नहीं दी हैं और भुगतान भी नहीं किया है। नई फसल के लिए बुवाई का समय आ गया है लेकिन गन्ना किसान बेहाल हैं। आखिर वह खेतों में खड़े गन्ने की फसल का क्या करें।
सूखे और अत्यधिक वर्षा के कारण मार हमेशा किसानों पर पड़ती है। विकट परिस्थितियों में किसान आज तक आत्महत्याएं कर रहे हैं। टमाटर, आलू और प्याज का हश्र हम कई बार देख चुके हैं। ‘भारत की कृषि मानसून पर आधारित’ यह जुमला लोगों के अंतःकरण में रच-बस गया है। कभी हमने इससे उबरने की जहमत नहीं उठाई। 125 करोड़ लोगों का पेट भरने की जिम्मेदारी हमने इन्द्रदेव पर छोड़ रखी है। जरूरत है कृषि और उत्पादन के बेहतर प्रबन्धन की और किसानों को उपज के वाजिब दाम मिलने की। अगर ऐसा नहीं किया गया तो किसानों की हालत नहीं सुधरेगी। फिर सियासत के चलते किसानों का कर्ज माफ करने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं बचता जिससे देश को भारी-भरकम राजस्व की हानि होती है।
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि सामान्य मानसून से अर्थव्यवस्था को व्यापक फायदा होता है। ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की आय बढ़ती है तो फायदा एफएमसीजी सैक्टर, ऑटो सैक्टर, बैंकिंग सैक्टर से लेकर कृषि सैक्टर को मिलता है। अर्थशास्त्रियों का कहना सही है लेकिन हमें जमीनी धरातल पर देखना होगा। प्रकृति धरती पुत्रों की मदद करने को तैयार है तो सरकार को चाहिए कि वह ऐसा तन्त्र विकसित करे कि किसानों की फसल मण्डी में आते ही बिक जाए। मुनाफाखोर व्यापारी गड़बड़ करें तो सरकारी एजैंसियां उस उपज काे खरीद लें। इससे ही किसानों की हताशा खुशी में बदल सकती है। किसानों को लाभ होगा ताे ही वह कृषि से जुड़े रहेंगे। फिलहाल तो मेघों का इंतजार है जो सबके चेहरे पर मुस्कान लाएंगे।