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विपक्षी एकता का जटिल मसला

स्वतन्त्र भारत की लोकतान्त्रिक चुनावी राजनीति में विपक्षी एकता शुरू से ही एक मसला रहा है।

स्वतन्त्र भारत की लोकतान्त्रिक चुनावी राजनीति में विपक्षी एकता शुरू से ही एक मसला रहा है। इसकी वजह मूल रूप से सभी विपक्षी दलों की अलग-अलग सैद्धान्तिक विचारधारा रही है। मगर 1967 में पहली बार समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया के आह्वान पर उस समय सत्ता के केन्द्र में रही कांग्रेस पार्टी के खिलाफ उन्होंने गैर ‘कांग्रेसवाद’ का नारा दिया जिसके छाते के नीचे परस्पर विरोधी विचारों के दलों ने एक साथ खड़ा होना समयोचित माना। यह विपक्षी एकता यहां तक चली कि उस समय देश के नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ जिन्हें संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकारें कहा गया इनमें घनघोर दक्षिण पंथी कही जाने वाली जनसंघ पार्टी और चरम वामपंथी कही जाने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां भी एक साथ शामिल हुईं। मगर यह प्रयोग सफल नहीं हो सका और इन सरकारों के अंतर्विरोध की वजह से इनका साल-डेढ साल बाद पतन भी हो गया। मगर इससे एक लाभ विपक्ष को जरूर हुआ कि लोगों के दिमाग से यह भ्रम हट गया कि विरोधी पार्टियां शासन करना नहीं जानती हैं। संभवतः डा. लोहिया चाहते भी यही थे कि भारत के जनमानस में यह विचार बैठ जाये कि लोकतन्त्र में एक ही पार्टी का शासन में रहने का जन्म सिद्ध अधिकार नहीं होता है इसमें जनता के सामने विकल्प हमेशा खुला रहता है। 
दरअसल 1967 तक विपक्षी एकता में सबसे बड़ी बाधा भी भारतीय जनसंघ ही माना जाता था क्योंकि इसकी विचारधारा उग्र राष्ट्रवाद के साथ हिन्दुत्ववादी और भारतीय संसदीय प्रणाली के तहत शासन के विकेन्द्रीकरण के पक्ष में नहीं थी। यहां तक कि यह राज्यों में प्रादेशिक सरकारों के गठन का भी समर्थन नहीं करता था। अतः सभी विपक्षी दल इसको साथ लेने से घबराते थे परन्तु डा. लोहिया ने यह डर दूर किया और जनसंघ के तत्कालीन नेता पं. दीनदयाल उपाध्याय से मिल कर जनसंघ को विपक्षी एकता के सांचे में केवल कांग्रेस को सत्ता से दूर करने के लिए डाला। दुर्भाग्य से दिसम्बर 1967 में ही डा. लोहिया की असमय मृत्यु हो गई और गैर कांग्रेसवाद का उनका सिद्धान्त भी इसके साथ ही नैपथ्य में चला गया। जिसका पहला नजारा हमें 1969 के राष्ट्रपति चुनाव में देखने को मिला जिसमें बेशक राष्ट्रपति पद के चुनाव में दो कांग्रेसी प्रत्याशियों सर्वश्री वी.वी. गिरी व नीलम संजीव रेड्डी के बीच लड़ाई हो रही थी। इस चुनाव में यदि उस समय की कथित प्रतिक्रियावादी कही जाने वाली पार्टियां जनसंघ व स्वतन्त्र पार्टी अपना वजन कथित सिंडीकेटी कांग्रेस के प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी के साथ डाल देतीं तो वह वी.वी. गिरी को परास्त कर सकते थे। मगर इन पार्टियों ने उस चुनाव में अपना ही अलग प्रत्याशी अर्थशास्त्री व पूर्व कांग्रेसी स्व. सी.डी. देशमुख को बना दिया और वी.वी. गिरी मात्र 20 हजार वोटों से चुनाव जीत गये। हालांकि बाद में कांग्रेस का विभाजन होने पर सिंडिकेट कांग्रेस के नेताओं ने जनसंघ से ही सहयोग करने में गुरेज नहीं किया परन्तु इसके बाद नब्बे के दशक में उसी जनसंघ (भाजपा) के नेतृत्व में परस्पर विरोधी विचारों के विपक्षी दलों ने एक साझा गठबन्धन लोकतान्त्रिक राष्ट्रीय मोर्चा (एनडीए) बनाया और छह वर्ष तक स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सत्ता सुख भोगा। इस दौरान सिद्धांतों को दरकिनार करके केवल शासन देने के सिद्धान्त पर साझा गठबन्धन बनने का दौर शुरू हुआ। मगर इसी दौरान भाजपा अपने बूते पर कांग्रेस का विकल्प बनने और जनता को दिखाने की हैसियत में आयी और 2014 में इसने श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चमत्कार जैसा करते हुए लोकसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया।  इस राजनैतिक घालमेल व विचार विहीन राजनीति के दौर में सबसे बड़ी भूमिका 1991 में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण के तहत देश की मूल आर्थिक नीतियों में बदलाव की रही। इसने सैद्धान्तिक राजनीति को हाशिये पर धकेलने में निर्णायक काम किया। अतः आज की राजनीति में वैचारिक आधार पर गठबन्धन बनने की जमीन बहुत कमजोर हो चुकी है और शासन की गरज से गठबन्धनों का दौर शुरू हो चुका है। 
दूसरा महत्वपूर्ण बदलाव यह हुआ है कि 80 के दशक तक राजनैतिक अलगाव में रहने वाली भाजपा अब सत्ता का प्रमुख केन्द्र बन चुकी है। अतः विपक्षी दल ‘गैर भाजपावाद’ की राजनीति की तरफ बढ़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं। जाहिर है कि इस गैर भाजपावाद का ध्रुव केवल कांग्रेस ही बन सकती है क्योंकि भाजपा के बाद यही एकमात्र पार्टी है जिसकी अखिल भारतीय स्तर पर हर राज्य में पहचान है। अतः बिहार के मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार का यह मत पूरी तरह समयोचित है कि विपक्षी एकता के लिए अब कांग्रेस को अपनी तरफ से पहल करनी चाहिए। इस प्रक्रिया में नीतीश बाबू स्वयं डा. लोहिया की भूमिका में भी यदि आना चाहते हैं तो इससे उनकी राजनैतिक परिपक्वता ही झलकती है क्योंकि समूचे विपक्ष को एक मंच पर लाने के लिए किसी न किसी ऐसे नेता की जरूरत पड़ेगी जो पद लिप्सा की दौड़ से बाहर हो। नीतीश बाबू इसकी घोषणा स्वयं ही एकाधिक बार कर चुके हैं। कल वह बेशक भाजपा के साथ थे मगर अब वह भाजपा विरोध के झंडा बरदार होना चाहते हैं। राजनीति में यह कोई निषेध नहीं है। भाजपा में भी एेसे बहुत से नेता हैं जो कल तक कांग्रेस पार्टी के मुकुट का रत्न समझे जाते थे। वैसे भी लोकतन्त्र के लिए मजबूत विपक्ष का होना 
इसकी सफलता की गारंटी माना जाता है। यह बात स्वयं सत्ताधारी पार्टी भाजपा के नेता भी कहते रहते हैं।  अतः विपक्षी 
एकता होना देश की राजनीति के लिए कोई खराब संकेत नहीं बल्कि इसे गंभीर बनाने का प्रयास ही कहा जायेगा। मगर 
यह तभी संभव हो पायेगा जब विभिन्न दलों के नेता अपने व्यक्तिगत हितों को तिलांजिली दे दें। 

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