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बदलते परिवेश मे बुजुर्गों की अवस्था

मुझे बुजुर्गों यानी वरिष्ठ नागरिकों के लिए काम करते हुए लगभग 19 वर्ष हो गए हैं और मैंने इनके जीवन से, उनके अनुभवों से यही समझी कि कई वर्ष पहले बुजुर्ग घर के ‘मजबूत पिलर होते थे और पूजे जाते थे।

मुझे बुजुर्गों यानी वरिष्ठ नागरिकों के लिए काम करते हुए लगभग 19 वर्ष हो गए हैं और मैंने इनके जीवन से, उनके अनुभवों से यही समझी कि कई वर्ष पहले बुजुर्ग घर के ‘मजबूत पिलर होते थे और पूजे  जाते थे। उन्हें पूरा आदर सम्मान मिलता था। मेरा निजी अनुभव भी यही है कि जिस घर में मैं ब्याह कर आई वहां तीनों पीढिय़ां इकी  रहती थीं। वन किचन फैमिली थी। घर के बड़े यानी दादा, अमर शहीद लाला जगत नारायण जी का इतना रौब था कि उनके बेटे और बहुएं उनके सामने कांपते थे। जो उन्होंने कह दिया सो कह दिया। घर में किसी भी कार्य के लिए पहले उनकी इजाजत ली जाती थी। घर का खाना उनकी पसंद का तैयार होता था। मैं उनकी पौत्र वधू थी। मुझसे उनका पूरा लाड था, परन्तु सुबह 4 बजे की चाय और शाम को 5 बजे के पकौड़े उनको मेरे हाथ से चाहिए थे। कहने का भाव यह है कि यह सारे काम उनके सम्मान को रखते हुए बड़े गर्व  और इज्जत के साथ होते थे। क्योंकि वो घर के बड़े थे। ऐसे ही उनके जाने के बाद पिता ससुर, चाचा ससुर और सासू मां, चाची सासू मां। यह पंजाब के जालंधर शहर की बात है।जैसे ही अश्विनी जी के साथ दिल्ली आई तो यहां बहुत ही बदलता हुआ वातावरण देखा। दिल्ली मिलाजुला शहर है। यहां तरह-तरह के लोग रहते हैं। अधिकतर न्यू क्लीयर परिवार हैं। ऐसे परिवारों में या तो बुजुर्गों के लिए स्थान नहीं,  अगर है या तो वह घर के रामू, बहादुर की तरह हैं। या घर का एक कोना उनके लिए है। कुछ बिजनेस क्लास परिवार हैं। जहां बुजुर्ग हैं। बच्चे उन्हें पूछते हैं, पर उनके पास समय नहीं और वह अकेलापन व डिप्रेशन के शिकार हैं। कुछ बुजुर्गों के बच्चे  विदेशों में सैटल हैं। कुछ के दूसरे शहरों में काम कर रहे हैं। वह बहुत ही अकेलापन महसूस करते हैं। कुछ के बेटियां हैं, जो ब्याह कर चली गई हैं तो वह अकेले रह गए। कुछ सर्विस से रिटायर हैं वो डिप्रेशन में हैं, क्योंकि कुर्सी चली गई तो समाज की आंखें बदल जाती हैं।ऐसे में बुजुर्गों के लिए काम करने की सोचा।  कई लोगों ने कहा कि यह कार्य कठिन है, इसे करते-करते तुम खुद बूढ़ी हो जाओगी। घर में एक बुजुर्ग सम्भालना मुश्किल है। तुम इतने सारे बुजुर्गों को कैसे खुश रख पाओगी? वाकई यह कार्य स्वयं में एक चुनौती है। इसे करने के लिए बहुत धैर्य और सहनशीलता चाहिए।मैंने इतने सालों में उनके अनुभवों के साथ कई पुस्तकें लिख दीं-आशीर्वाद, जीवन संध्या, जिन्दगी का सफर, आज और कल और अनुभव।  मैंने बहुत प्रयास किया है बुजुर्गों की जिन्दगी में आत्मसम्मान, आत्मविश्वास भरने का, बहुत हद तक सफल हुई।
असल में आज रिश्तों और भावनाओं की कद्र बहुत कम हो गई है। आधुनिक और बदलाव का दौर है। दोनों मियां-बीवी को अच्छा रहन-सहन रखने के लिए काम करना पड़ता है। इसलिए वह अपने बुजुर्गों को समय नहीं दे पाते, इसलिए कई बुजुर्ग बच्चों के साथ रहते हुए भी अकेलापन महसूस करते हैं। कई बच्चे जायदाद के पीछे मां-बाप से रूठ जाते हैं या लड़ पड़ते हैं। अभी भी बहुत से कानून बन गए हैं, जो बच्चे मां-बाप को नहीं पूछेंगे उन्हें जुर्माना हो सकता है। उनको दी गई जायदाद मां-बाप वापिस ले सकते हैं। मेरे विचार में इन कानूनों का तब तक फायदा नहीं होगा जब तक हमारे और आने वाली पीढिय़ों के अन्दर अच्छे संस्कार, श्रेष्ठï भावनाएं और दिल से इन रिश्तों का आदर-सम्मान नहीं होगा। हमारी भारतीय संस्कृति, परम्पराएं दुनिया भर में मशहूर है। आज जरूरत है इनको जीवित रखने की, इन संस्कारों को सुरक्षित रखने की, आने वाली पीढिय़ों तक ले जाने की। यही नहीं बुजुर्गों को भी सकारात्मक सोच के अनुसार अपने आप को समय के साथ बदलना पड़ेगा, ताकि युवा उन्हें अपने जीवन का महत्वपूर्ण अंग मानें।
बच्चों को भी यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ‘हिस्ट्री आलवेज रिपीट इतिहास अपने आप को दोहराता है। आज जो बोओगे वो कल काटोगे। आज जहां तुम हो वहां एक दिन तुम्हारे मां-बाप थे और जहां आज तुम्हारे मां-बाप हैं, कल तुम वहां होंगे। कैसे मां-बाप ने तुम्हें पाला-पोसा,  अगर वो उदास हैं तो उनकी उदासी का कारण जाना, जब तुम बचपन में बिस्तर गीला करते थे तो मां खुशी-खुशी गीले में सोकर तुम्हें सूखे में सुलाती थी। बचपन में मां-बाप उंगली पकड़ कर चलना सिखाते थे। आज कमजोर मां-बाप को तुम्हारी जरूरत है। बचपन में कितने भी भाई-बहन थे मां-बाप ने नहीं बांटा।  आज तुम अपने मां-बाप को क्यों बांटते हो। 6 महीने एक भाई के पास 6 महीने दूसरे भाई के घर। हम वृद्धाश्रम नहीं, घरों में रहने में विश्वास रखते हैं, इसलिए आज जरूरत है दोनों पीढिय़ों को थोड़ा-थोड़ा बदलने की। क्योंकि जब बच्चा 5-6 वर्ष का होता है उनके लिए माता-पिता से बढ़कर कोई नहीं होता। 10-11 साल में उसे अपने माता-पिता बहुत समझदार ज्ञान वाले लगते हैं। 15-20 साल तक उन्हें लगता है कि उनके माता-पिता दूसरों से पीछे हैं। 20-25 साल जब माता-पिता उनको मेहनत के लिए देते हैं, घर पर से न जाओ, ज्यादा न घूमो तो उन्हें अपने माता-पिता पिछड़े लगते हैं। 25-30 साल में जब शादी होती है तो उन्हें लगता है उनके माता-पिता सिर्फ नुक्स निकालना जानते हैं। नई नवेली लड़की के लिए वह माता-पिता का अपमान या घर छोडऩे को तैयार हो जाते हैं। परन्तु जीवन में एक समय ऐसा भी आता है जब वह 50-60 की उम्र के करीब पहुंचते-पहुंचते बच्चों को लगता है कि माता-पिता की सलाह तथा आशीर्वाद के बिना कुछ नहीं करना चाहिए। क्योंकि उनके बच्चे भी बड़े हो जाते हैं। उनकी धारणाएं भी बदलनी शुरू हो जाती हैं। जैसे ही बच्चे यह महसूस करते हैं उनकी सोच या धारणा गलत थी तब तक दोनों माता-पिता या उनमें से एक संसार को अलविदा कह चुके होते हैं या करने वाले होते हैं। यह बात बिल्कुल सत्य है, क्योंकि बेटा तब जीवन की असलियत समझता है जब खुद बाप बनता है। बेटी तब समझती है जब खुद मां बनती या बेटी-बहू है, फिर सास।
आज के बदलते  परिवेश में दोनों पीढिय़ों को आपस में तालमेल बिठाकर एक-दूसरे के प्यार, सम्मान और जरूरतों को समझने की आवश्यकता ह

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