प्रजातंत्र अपने उफान पर है। दिन भर टीवी चैनलों पर नेताओं के तीखे भाषण सुनने को मिल रहे हैं। राष्ट्रीय एकता, अखंडता, रक्षा, सुरक्षा जैसे शब्द हर दस मिनट बाद सुनाई देते हैं तो दूसरी तरफ चंद उम्मीदवारों को छोड़कर हर उम्मीदवार अपने लिये वोट खरीदने की जुगत भिड़ा रहा है। उन्हें ऐसे महारथियों की तलाश है जो उनके लिये वोट का जुगाड़ कर सके। इन्हें कई नामों से पुकारा जाता है। कहीं इन्हें बाहुबली कहा जाता है, कहीं रंगदार, कहीं भाई तो कहीं चुनाव के साजिंदे। राजनीति का यह दौर वैचारिक और सैद्धांतिक रूप से संक्रमण का है। वैचारिकता की जमीन सैद्धांतिक रूप से बंजर हो चली है। विचारों का न कोई चरित्र है न चेहरा। सियासत में चारों ओर दिखाई दे रहा है तो वह है केवल सत्ता के लिये संघर्ष। सत्ता संघर्ष की नीति यह साबित कर रही है कि सिंहासन हासिल करने के लिये काम, दाम, दंड, भय और भेद ही सबकुछ है।
सवाल उठता है कि चुनावी मौसम में दलबदल का बाजार क्यों सज जाता है। टिकट कटने पर ही विचारधारा ‘अछूत’ क्यों बन जाती है। राजनीति अगर जनसेवा है तो सौदेबाजी क्यों की जाती है। पार्टी सेवा में जिंदगी लगा देने वाले संघर्षशील कार्यकर्ताओं को टिकट क्यों नहीं मिलता। अभिनेता, अभिनेत्री, खिलाड़ी, साहित्याकार, प्रशासनिक अफसर पार्टियों की टिकट क्यों ले जाते हैं जबकि समाज सेवा के लिये उनके सामने अनेक मार्ग होते हैं। आज के दौर में जब चुनाव में धन बल का इस्तेमाल बहुत बढ़ चुका है तो क्या एक गरीब आदमी चुनाव लड़ सकता है? देशभर में जगह-जगह चुनावों में इस्तेमाल किये जाने वाला धन पकड़ा जा रहा है। पकड़ा जा रहा धन निश्चित रूप से कालाधन है। तमिलनाडु की वेल्लोर लोकसभा क्षेत्र से भारी नकदी बरामद होने के बाद यहां मतदान रद्द कर दिया गया। मतदाताओं को लुभाने के लिये सीधी रिश्वत दी जा रही है।
पंजाब और हरियाणा में तो वोट के लिये शराब बांटी जाती है लेकिन अब वहां भी ट्रेंड बदल रहा है। सब कुछ बड़ी चतुराई से किया जा रहा है। दक्षिण भारत में तो वोटरों को लुभाने के लिये सारा काम बहुत ही पेशेवराना तरीके से किया जाता रहा है और अब यह ट्रेंड दक्षिण भारत से बाहर निकल कर उत्तर भारत तक आ पहुंचा है। अब उत्तर प्रदेश और बिहार में मतदाताओं को लुभाने के लिये लोगों को साड़ियां, बर्तन और कपड़े आदि दिये जा रहे हैं। इस काम के लिये उम्मीदवारों को प्रोफैशनल करिंदे मिल जाते हैं। समाज कल्याण की योजनाओं को रिश्वत में बदल दिया है। तमिलनाडु का चुनावी इतिहास देख लीजिये एक पार्टी ने जीत के बाद टीवी मुफ्त देने का वादा किया तो दूसरी पार्टी ने मिक्सर ग्राइंडर देने का वादा किया। गाय और बकरियां देने के वादे किये गये। कौन नहीं जानता कि तमिलनाडु में कई प्रतिष्ठित सीटों पर लोगों को सुबह-सवेरे अखबार में नोट लपेटकर पहुंचाये गये।
पहले पैसा बांटने का काम एक या दो लोग करते थे। अब यह काम व्यापक स्तर पर टीमें करती हैं। चुनाव आयोग की सख्ती के चलते पैसा गाड़ियों में ले जाना खतरे से खाली नहीं इसलिये तरीके बदले गये। पैसा बांटने का खेल आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु में खुलकर चल रहा है। लौह अयस्क खदानों के लिये मशहूर बेल्लारी में तो नोटों का खुला खेल चलता रहा है। उम्मीदवार मतदाताओं को लुभाने के लिये टोकन बांटते हैं और मतदाता टोकन देकर शराब या कोई वस्तु अपने घर ले जाता है। उम्मीदवारों ने तरीके बदले तो मतदाता की कम होशियार नहीं। उसे अब पैसे की मांग करनी शुरू कर दी है। चुनाव आयोग भी कितने चुनाव रद्द कर सकता है।
एक यह दौर था जब लोग पैदल, साईकिल और जीप से चुनाव प्रचार कर जनता का दिल जीत लेते थे। आज टिकट खरीदने से लेकर मतदाताओं को रिझाने के लिये लाखों करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाये जा रहे हैं। नोटबंदी के बाद यह सोचा गया था कि चुनाव के दौरान कालेधन का इस्तेमाल कम होगा लेकिन जिस तरीके से धन जब्त किया जा रहा है उससे तो साफ है कि राजनीतिक दलों और उनके फाइनेंसरों के पास कालेधन की कोई कमी नहीं। आखिर इनके पास नई करंसी भारी मात्रा में कैसे आई। बहुत से लोगों को याद होगा कि 1957 में बलरामपुर से चुनाव लड़ रहे अटल विहारी वाजपेयी के पास एक पुरानी गाड़ी थी। कई बार उसे धक्का देकर स्टार्ट करना पड़ता था। पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह अपने क्षेत्र बागपत में केवल एक सभा किया करते थे। जहां तक नैतिकता का सवाल है इस बारे में आज इतना ही कहा जा सकता है ‘‘ वह दिन हवा हुये जब पसीना गुलाल था, अब इत्र भी सूंघो तो खुशबू नहीं आती। सचमुच प्रजातंत्र उफान पर है, राजनीति का चरित्र गिर रहा है