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संघ प्रमुख का ‘विकास’ माडल

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत ने मुम्बई में यह बयान देकर भारत की रगों को छू लिया है कि इस देश का विकास अमेरिका या चीन की तर्ज पर नहीं हो सकता बल्कि इसका विकास भारतीय दर्शन और इसकी संस्कृति तथा सकल संसार के बारे में इसके सुस्थापित विचारों और ‘देशज’ परिस्थितियों के अनुरूप ही किया जा सकता है। संघ प्रमुख का यह विचार गांधीवाद के उन आर्थिक सिद्धान्तों से उपजा है जिनके बारे में राष्ट्रपति महात्मा गांधी जीवनभर समर्पित थे और ग्रामों के विकास को ही भारत के सर्वांगीण विकास का फार्मूला मानते थे। उनका विकास मन्त्र पाश्चात्य विकास सिद्धान्त से पूरी तरह भिन्न था और वह मानते थे कि गांवों के आत्मनिर्भर होने से भारत में आत्मनिर्भरता आयेगी। इसका मतलब यह कदापि नहीं था कि गांव व ग्रामीण जगत आधुनिक विकास प्रणाली से विमुख रहेगा बल्कि यह था कि औद्योगीकरण का पहिया गांवों से शहरों की तरफ घूमेगा तभी देश का समुचित और सम्यक विकास संभव होगा तथा गरीबी का प्रचार-प्रसार रुकेगा।

वर्तमान समय में चीन या अमेरिका का अन्धानुकरण करके हम उस रास्ते पर जा सकते हैं जिसमें विकास औऱ विनाश साथ-साथ चलते हैं। इसके साथ ही कोई भी राष्ट्र ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं बनाने या बड़े-बड़े कल कारखाने बनाने मात्र से ही विकसित नहीं होता है बल्कि अपने लोगों का विकास करके विकसित कहलाता है। लोगों का विकास स्थानीय परिस्थितियों व संस्कृति को अक्षुण रखते हुए इस प्रकार होना चाहिए कि व्यक्ति की निजी पहचान व उसका गौरव और आत्म सम्मान इस प्रकार संरक्षित रहे कि उसके आर्थिक विकास की छाया में पूरा समाज आनन्दित हो। केवल भौतिक विकास के लिए प्रकृति का अंधाधुंध दोहन समाज में एेसी विकृतियों को जन्म देने में सक्षम होता है कि प्राकृतिक विपदाओं में घिर कर विकास असन्तुलित हो जाता है औऱ आर्थिक गैर बराबरी के और गहरी होने की संभावनाएं जड़ पकड़ लेती हैं।

महात्मा गांधी की यह प्रसिद्ध उक्ति हर युग में प्रासंगिक रहेगी कि ‘प्रकृति पृथ्वी पर रहने वाले हर व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर सकती है मगर उसके लालच को पूरा करना उसके वश में नहीं होता’। यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो लार्ड क्लाइव द्वारा 1756 में बंगाल के युवा नवाब सिरोजुद्दौला को छल-बल से हरा कर पूरी बंगाल की रियासत को हड़पने के समय विश्व कारोबार में भारत का हिस्सा लगभग 24 प्रतिशत से ऊपर था मगर 1947 में यह घट कर एक प्र​तिशत से भी कम रह गया। इसका मूल कारण यह था कि 1756 तक भारत एक विकसित राष्ट्र था और अपनी आय स्रोतों के बूते पर ही यह स्थानीय परिस्थितियों व संस्कृति के अनुसार तरक्की कर रहा था। अंग्रेजों ने पूरे दो सौ साल तक इसके इन्हीं स्रोतों का दोहन करके इसे वैश्विक आधुनिकीकरण की तकनीक से बाहर कर दिया वरना इससे पहले तक भारत विश्व के विकास में अपनी ही टैक्नोलोजी व ज्ञान के बूते पर सहभागिता कर रहा था और अपनी प्राकृतिक सम्पदा की रक्षा भी कर रहा था।

प्रकृति को पूजने वाले देश में यदि प्रकृति का विनाश करके विकास खोजा जाता है तो वह भारतीय मानवता के सिद्धान्तों के विरुद्ध होगा। जबकि चीन व अमेरिका जैसे देशों में प्रकृति को बेजान मानते हुए उसकी कीमत पर किये गये विकास को उपलब्धि मान लिया गया है। चीन में तो विकास का पैमाना अमेरिका से भी और ज्यादा विद्रूप है क्योंकि इस देश की ‘कम्युनिस्ट पूंजीवादी’ सरकार ने मनुष्य को ही ‘मशीन’ में तब्दील कर डाला है जिसकी वजह से मनुष्य की संवेदनाएं भी मशीनी हो गई हैं। भारतीय संस्कृति में भौतिक सुख का अर्थ यह कदापि नहीं बताया गया कि व्यक्ति पूर्णतः स्वार्थी होकर समाज, संस्कृति और दैवीय उपकारों की उपेक्षा करने लगे बल्कि यहां ‘दरिद्र नारायण’ की सेवा को ईश्वर भक्ति का साधन माना गया। जब हम प्रकृति के संरक्षण की बात करते हैं तो इसमें सम्पत्ति के समुचित बंटवारे का भाव भी समाहित रहता है क्योंकि भारत में प्राकृतिक सम्पदा पर आश्रित रहने वाला पूरा समाज अपने आर्थिक विकास के लिए इसी पर निर्भर रहता है। बड़े कल कारखाने निश्चित रूप से विकास की आवश्यक शर्त होते हैं और भौतिक सुख-सुविधा प्राप्त करने का अधिकार भी बदलते समय के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का होता है परन्तु यह दूसरे व्यक्ति को उजाड़ कर पूरा नहीं किया जा सकता।

अतः श्री भागवत का यह कहना कि जो धर्म मनुष्य को सुविधा सम्पन्न और सुखासीन बनाता है मगर प्रकृति को नष्ट करता है, वह धर्म नहीं है। यहां धर्म का अर्थ मजहब नहीं बल्कि कर्त्तव्य या इंसानियत है। इसकी जड़ ‘पाश्चात्य की उपभोग’ संस्कृति में बसी हुई है। जबकि भारत की मान्यता ‘उपयोग’ की रही है। इस बारे में भी महात्मा गांधी ने एक अमर उक्ति कही थी। उन्होंने कहा था कि भारत में प्रत्येक रईस या सम्पन्न व्यक्ति को अपने उपभोग की अधिकतम सीमा तय करनी चाहिए और शेष सम्पत्ति को समाज के उत्थान मूलक कार्यों में लगाना चाहिए। वास्तव में यही गांधी का ‘अहिंसक समाजवाद’ था। इसकी जड़ें ‘धर्म खाते’ से जुड़ी हुई थीं। भारत में प्रत्येक व्यापारी का एक धर्म खाता भी हुआ करता था। पहले समय में कुल लाभ की रुपये में इकन्नी अर्थात एक रुपये में से छह पैसे इसी खाते में जमा होते थे जो सामाजिक कल्याण के काम में लगते थे। बाद में इसका स्वरूप  धार्मिक हो गया। मगर यह खाता समाज व प्रकृति के संरक्षण के लिए ही होता था। राजे-रजवाड़ों में संगीतकारों, साहित्यकारों व लोक कलाकारों का संरक्षण इसी रवायत के चलते विस्तारित हुआ। परन्तु वर्तमान समय में यदि हम निजी सुख और सुविधा के लिए स्थानीय परिस्थितियों और आर्थिक स्रोतों की उपेक्षा करते हैं तो सामाजिक असमानता को बढ़ाने  में सहायक होते हैं। पूंजी की ताकत पर खरीदी गई सुविधा अन्त में पूंजी की ताकत पर ही स्थानान्तरित हो जाती है और इस क्रम में समाज के 90 प्रतिशत लोगों की कोई भागीदारी नहीं होती। अतः हमारे लिए न अमेरिका और न चीन विकास के माडल हो सकते हैं। हम बागों को लगाने वाले और पशुओं को पूजने वाले लोग हैं।