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चुनाव आयोग अपनी शक्ति पहचाने !

बाबा साहेब अम्बेडकर ने स्वतन्त्र भारत को नया संविधान देते हुए जो लोकतान्त्रिक व्यवस्था दी थी उसे चार खम्भों पर खड़ा बताया था।

बाबा साहेब अम्बेडकर ने स्वतन्त्र भारत को नया संविधान देते हुए जो लोकतान्त्रिक व्यवस्था दी थी उसे चार खम्भों पर खड़ा बताया था। ये थे न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका और चुनाव आयोग। इसे ही चौखम्बा राज कहा गया जिसमें चुनाव आयोग की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी क्योंकि उसकी बनाई गई जमीन पर ही तीन अन्य खम्भों को खड़ा करके लोकतन्त्र की मजबूत इमारत तामीर की जानी थी। समाजवादी नेता स्व. डा. राम मनोहर लोहिया ने बाद में मीडिया या स्वतन्त्र प्रेस को चौथा खम्भा जरूर कहा मगर तब तक चुनाव आयोग की भूमिका किसी भी विवाद से परे थी और इसकी भूमिका पर कभी विपक्षी दलों ने भी अंगुली उठाने की हिम्मत नहीं दिखाई। अतः यह बेवजह नहीं था कि 1952 के प्रथम आम चुनाव पूरे छह महीने अक्तूबर 1951 से मार्च 1952 तक चले थे और प्रथम  प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने स्वयं एक सौ जनसभाएं करके आम जनता से अधिक से अधिक संख्या में मतदान करने की अपील की थी। 
स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव आजाद भारत में जनता की सरकार की बुनियाद डालने वाले थे जिसके आधार पर न्यायपालिका से लेकर विधायिका व कार्यपालिका को अपने संविधानगत अधिकारों व दायित्वों का निर्वहन करना था। दरअसल बाबा साहेब ने चुनाव आयोग को गौमुख की संज्ञा दी जिससे गंगा निकलकर समूचे भारत को सिंचित करती और लोकतन्त्र की फसल लहलहाती। यदि गाैमुख में ही अशुद्धि समा जाये तो लोकतन्त्र को प्रदूषित होने से किसी भी तरह से नहीं रोका जा सकता। अतः जब भी भारत में भ्रष्टाचार समाप्त करने और शासन को पूरी तरह लोकोन्मुख बनाने की बहस छिड़ती है तो सबसे पहले चुनाव सुधारों की बात कही जाती है।
चुनाव आयोग को स्वतन्त्र और स्वायत्तशासी दर्जा देकर हमारे संविधान निर्माता पुरखों ने यह गारंटी दी थी कि बहुराजनीतिक प्रणाली के लोकतन्त्र में सत्ता पर बैठा हुआ कोई भी राजनीतिक दल शासन करने वाली मशीनरी का बेजा इस्तेमाल न कर सके और प्रशासकीय अमले को अपने रुआब–दाब में किसी भी तौर पर न ला सके। इसके लिए  मुख्य चुनाव आयुक्त को वे अख्तियार दिये गये कि वह देश के बड़े से बड़े हुक्मरान के नियन्त्रण में किसी भी स्तर पर न रहे और स्वाधीनता के साथ स्वतन्त्र रूप में चुनाव आयोग की सत्ता को पूरी तरह अराजनैतिक बनाकर राजनैतिक दलों की जवाबदेही संविधान के प्रति उसके जरिये तय करता रहा। यह खूबसूरत व्यवस्था हमारी चुनाव प्रणाली को पूरी दुनिया में अनूठा और लाजवाब पुट देती थी, जिसका अध्ययन करने विश्व के अन्य देशों की सरकारों के नुमाइन्दे भारत आया करते थे। खास तौर से नव स्वतन्त्र लोकतान्त्रिक देश भारत की चुनाव प्रणाली को आदर्श मानकर अपने यहां चुनाव प्रणाली स्थापित किया करते थे। 
मगर जिस दिन से मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर माननीय सुनील अरोड़ा बैठे हैं तभी से इस खुद मुख्तार संवैधानिक संस्था की प्रतिष्ठा को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं। इसकी वजह उनके राजनीतिक पक्षपात से भरे निर्णयों को माना जाता है। चुनावी आदर्श आचार संहिता के लागू होने के बाद चुनावी विवादों से जुड़े मामलों में सर्वोच्च न्यायालय तक दखल देने से इसलिए कतराता है कि आयोग को अर्ध न्यायिक अधिकार भी संविधान देता है और उसके फैसले को चुनाव जारी रहने तक चुनौती नहीं दी जा सकती। उस पर चुनाव में खड़े हुए प्रत्येक दल के या निर्दलीय प्रत्याशी के साथ एक समान व्यवहार करने और सभी के लिए एक समान वातावरण देने की संवैधानिक जिम्मेदारी रहती है और प्रत्येक मतदाता को अपनी राय बिना किसी दबाव या लालच अथवा डर के व्यक्त करने की आजादी देने का दायित्व रहता है, इसी वजह से चुनावी राज्य या देश की सारी कानून-व्यवस्था की देखभाल की जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर आ जाती है और वह बिना किसी भेदभाव या पक्षपात के सत्ता पर काबिज किसी भी पार्टी की सरकार के निर्देशों का मोहताज नहीं रहता बल्कि सीधे पुलिस से लेकर अन्य शासकीय अमलों को निर्देश देने की भूमिका में आ जाता है। 
यह भारत के लोकतन्त्र की ऐसी अजीम शान है जिसके आगे हर हुक्मरान सर झुका कर उसके हुक्म की तामील करने को मजबूर रहता है क्योंकि भारत का संविधान यही कहता है और चुनाव आयोग सारी ताकत इसी संविधान से लेता हुआ गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के चुनाव से लेकर विधानसभा, लोकसभा व राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति तक का चुनाव कराता है। अतः ऐसी संस्था की प्रतिष्ठा पर यदि सन्देह के बादल मंडराते हैं तो भारत के लोकतन्त्र की गरिमा व शुद्धता और पवित्रता को बचाये रखने की जिम्मेदारी किसी भी अन्य संस्था के मत्थे नहीं मढ़ी जा सकती। चुनाव आयोग भारतीय संविधान में ऐसा बलशाली अधिकार  सम्पन्न है जिसकी बुलन्दी पर पैर रखने की हिम्मत किसी भी हुक्मरान के पास नहीं है  उसकी जवाब-तलबी केवल स्वतन्त्र न्यायपालिका के दरबार में ही हो सकती है और यह दरबार भी ऐसा होता है जिसमें एक ‘मन्त्री’ और ‘सन्तरी’ में कोई फर्क नहीं होता। 
अतः दिल्ली विधानसभा चुनावों को लेकर जो सवाल खड़ेे किये जा रहे हैं उनका सन्तोषजनक उत्तर चुनाव आयोग को देना ही होगा। सबसे पहला सवाल यह है कि जिस टैक्नोलोजी उन्नति का रोना दिन–रात रोया जाता है उसके लागू होने के बावजूद चुनाव आयोग को राजधानी में कुल पड़े मतों का प्रतिशत जानने के लिए पूरा 23 घंटे का समय क्यों लगा ? जब भारत में चुनाव बेलेट पेपर की मार्फत हुआ करते थे तब भी चुनाव आयोग मतदान पूरा होने के चार घंटे बाद ही अन्तिम आंकड़ा दे देता था। मगर कम्प्यूटर के इस दौर में अब नये  ‘एप्लीकेशन’ का बहाना बनाया जा रहा है। पिछले सत्तर सालों में पहली बार हुआ है कि चुनाव आयोग ने मतदान के आंकड़ेे बताने में इतना लम्बा समय लिया हो। मगर एक सवाल इससे भी गंभीर है कि चुनाव आयोग किस तरह किसी भी पार्टी के प्रचारकों को सीधे साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने की इजाजत दे सकता है और आईएएस ऐसा करने वालों के खिलाफ कोई फौजदारी कार्रवाई भी करता। 
एक बात अच्छी तरह समझी जानी चाहिए कि चुनाव में जब भी कोई व्यक्ति किसी भी औहदे पर रहते हुए चुनाव प्रचार करने जाता है तो वह सिर्फ अपनी पार्टी का सदस्य होता है। चुनाव आयोग के सामने उसकी हैसियत एक राजनैतिक प्रचारक की होती है चाहे वह कोई सरकार का मन्त्री हो या अपने संगठन का मन्त्री। हमने देखा किस तरह इन चुनावों में सीधे हिंसा भड़काने के भाषण दिये गये और चुनाव आयोग कानों में रुई ढोंस कर सब कुछ सुनता रहा। संविधान के जिस अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग को अधिकार मिलते हैं उसी के घेरे में बने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम -1951 के तहत आयोग को यह अधिकार भी है कि वह समुदायगत वैमनस्य बढ़ाने वाले को भारतीय दंड संहिता की धारा 153 के तहत एफआईआर दर्ज करके जेल के भीतर तक डाले और इसी कानून के तहत यह विचार भी करे कि क्या ऎसे व्यक्ति को कोई भी चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है क्योंकि ऐसा व्यक्ति अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए बने अनुच्छेद 19 की उस धारा का उल्लंंघन करता है जिसमें हिंसक विचारों के प्रतिपादन को दंडनीय माना गया है। 
हालांकि पुलिस भी सीधे यह कार्रवाई कर सकती है मगर चुनावी समय में आयोग की हरकत वाजिब मानी जाती है। बेशक ईवीएम को लेकर भी कुछ पार्टियों ने सवाल खड़े किये हैं मगर इन पर ज्यादा तल्ख टिप्पणी करने से इसलिए बचा जाना चाहिए कि इक्का-दुक्का मामलों की रोशनी में पूरे तालाब को ही गन्दा नहीं बताया जा सकता। आखिरकार ये चुनाव उस महानगर में हुए हैं जहां भारत के संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति ने खुद भी वोट डाला है और देश की सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश ने भी।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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