जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान जिस तरह बौरा रहा है उससे यही लगता है कि मजहब के नाम पर तामीर किये गये इस मुल्क का वजूद ही खतरे में आ गया है। भारतीय संघ के अभिन्न हिस्से इस राज्य में जिस तरह मानवाधिकारों के नाम पर संयुक्त राष्ट्रसंघ मानवाधिकार परिषद में पाकिस्तान के विदेश मन्त्री शाह महमूद कुरैशी ने इस राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था में किये गये बदलाव के नाम पर घडि़याली आंसू बहाने का काम किया उससे यह तो सिद्ध हो गया कि पाकिस्तान का जम्मू-कश्मीर पर किसी भी नुक्ते से कोई हक नहीं बनता है और वह स्वीकार करता है कि जम्मू-कश्मीर के लोग भारतीय संविधान के साये में जीते हैं।
कुरैशी के मुंह से परिषद की बैठक में यह निकलना कि भारत के राज्य जम्मू-कश्मीर में वर्तमान परिस्थितियों को लेकर वह चिन्तित हैं, बताता है कि पाकिस्तान 1947 से लेकर कश्मीर के मुद्दे को अपने वजूद को बनाये रखने की गरज से ही उठाता रहा है क्योंकि इस मुल्क की नापाक फौज ने दहशतगर्दी की तंजीमें खड़ी करके कश्मीर को लगातार मजहबी तास्सुब से ‘पूर’ करने की कोशिशें की हैं।
अपनी इन कोशिशों में पाकिस्तान कभी सफल नहीं हो सका और अपने कब्जे में दबाये कश्मीर के हिस्से के लोगों पर जुल्म-ओ-गारत ढहाता रहा और इस इलाके में आतंकवादी शिविरों की फैक्टरी लगाकर उसने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप का अमन-चैन बर्बाद करने की ढान ली। अतः यह बेवजह नहीं है कि प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व मंे उनकी सरकार के गृह मन्त्री श्री अमित शाह ने उस धारा 370 का पत्ता ही साफ कर दिया जिसका सहारा लेकर पाकिस्तानी दहशतगर्द तंजीमें कश्मीरियों में अलगाववाद की भावना भरने के लिए वे तदबीरें भिड़ाती थीं जिनसे भारत की प्रभुसत्ता को निशाना बनाया जा सके।
सवाल यह नहीं है कि भाजपा की 1951 से अपने जन्मकाल से ही धारा 370 समाप्त करने की घोषित नीति रही है बल्कि असली सवाल यह है कि समस्त भारतवासियों की स्वतन्त्रता के बाद से ही जम्मू-कश्मीर को भारत माता का ताज मानने की नीयत रही है। उत्तर से लेकर दक्षिण भारत के सामान्य नागरिक ने हमेशा कश्मीर के लिए कुर्बानी देने से कभी गुरेज नहीं किया और हर मौके पर पाकिस्तान को साफ किया कि वे कश्मीरियों के हैं और कश्मीरी उनके हैं। अतः मानवाधिकार परिषद में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहीं विदेश सचिव (पूर्व) श्रीमती विजय सिंह ठाकुर का यह जवाब कि पाकिस्तान का काम कश्मीर के बारे में सिर्फ झूठ का प्रचार करना है और भारत के अंदरूनी मामलों में दखल देने का है।
दुनिया की कोई भी ताकत इस राज्य से धारा 370 समाप्त किये जाने के फैसले को चुनौती नहीं दे सकती क्योंकि यह फैसला भारत की स्वयंभू संसद ने किया है। आश्चर्यजनक यह है कि कुछ विपक्षी दलों के नेता इस मामले में पाकिस्तान का काम आसान कर रहे हैं और बिना सोचे-समझे बयानबाजी करके भारत के पक्ष को ही नुकसान पहुंचा रहे हैं। इसके साथ ही भारत मंे मानवाधिकारों की पैरोकार बनी गैर सरकारी संगठनों की ऐसी ब्रिगेड है जो जम्मू-कश्मीर के सम्पूर्ण विलय को मानवता विरोधी तक बताने से नहीं हिचकती और इस राज्य में सामान्य हालात बनते नहीं देख सकती।
दरअसल पाकिस्तान के लिए ही कश्मीर एक उद्योग नहीं है बल्कि ऐसी ब्रिगेड के लिए भी यह उद्योग बना हुआ है। खुद को मानवाधिकारों की अलम्बरदार बताने वाली संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने जिस तरह करोड़ों रुपया बहाकर कश्मीर की हालत को खराब दिखाने की कोशिश की है उसी की वजह से पाकिस्तान ने भारत में सक्रिय इस ब्रिगेड के लोगों के कथनों का हवाला दिया है। सबसे दुखद यह है कि पाकिस्तान ने परिषद में रखे गये अपने दस्तावेजों में उमर अब्दुल्ला से लेकर शैला रशीद और कविता कृष्णन के वक्तव्यों को शामिल किया गया है।
लोकतन्त्र हमें भारतीय संविधान के भीतर मानवीय अधिकारों की गारंटी देता है और राष्ट्र के प्रति अपने कर्त्तव्यों का भी बोध कराता है। धारा 370 समाप्त होने से जम्मू-कश्मीर की जनता के हकों में इजाफा हुआ है अथवा उनमें कमी आयी है? इस ब्रिगेड को क्या अंतर्राष्ट्रीय जगत में यह सन्देश नहीं देना चाहिए था कि धारा 370 की वजह से कश्मीर की सबसे दबी व पिछड़ी जनता के हकों के साथ समझौता किया गया था और उन्हें सदियों पुरानी सामाजिक व्यवस्था के दायरे में मजबूर किया गया था।
जरूरत इस बात की थी कि प्रत्येक दल और विचारधारा के भारतीय एक स्वर से कहते कि पाकिस्तान द्वारा जबरन कब्जाये कश्मीर को वापस लिया जाये और उसमें रहने वाले लोगों को भी अधिकार सम्पन्न किया जाये, परन्तु ये लोग उलटा राग ही अलाप रहे हैं और भारत के विरोधी पाकिस्तान के हाथ में औजार पकड़ा रहे हैं। क्या भारत से ये समवेत स्वर नहीं उठने चाहिएं कि पाकिस्तान की पीठ थपथपाते हुए पड़ौसी देश चीन जिस तरह कब्जाये गये कश्मीर में विभिन्न परियोजनाएं चला रहा है वह नाजायज है क्योंकि 26 अक्टूबर 1947 को जिस जम्मू-कश्मीर का विलय भारतीय संघ में किया गया था वह उसी का हिस्सा था। इससे पहले जम्मू-कशमीर व पाकिस्तान के बीच क्या हुआ उसका अस्तित्व 26 अक्टूबर को ही समाप्त हो गया था और पाकिस्तान की हैसियत एक हमलावर मुल्क की हो गई थी।
अतः भारत के विदेश मन्त्रालय ने इस बारे में स्पष्ट करते हुए भारत का रुख खोल दिया है। कयामत तो ये है कि मानवाधिकारों के नाम पर इंसानियत का झंडा उठाये ये लोग इस कदर बदगुमानी में रहते हैं कि वे यह तक भूल जाते हैं कि वजूद में आने के बाद पाकिस्तान की फौज दुनिया की अकेली जालिमाना फौज है जिसने पूर्वी पाकिस्तान में 1971 में अपने ही देश के मुस्लिम नागरिकों का कत्लेआम किया था और लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा था। इनमें 95 प्रतिशत से ज्यादा मुसलमान नागरिक ही थे।
हमें आज केवल यह देखना है कि समूचा जम्मू-कश्मीर भारत का अंग बने, पाकिस्तान की जालिमाना हरकतें उसके अपने देश के बलूचियों व सिन्धियों पर भी बन्द हों। कयामत है कि हिन्दोस्तान में बांस पर खड़े होकर चिल्लाने वाले मानवाधिकारों के खिदमतगारों का इन मामलों में गला ही बन्द क्यों हो जाता है?