लोकतांत्रिक भारत में अपनी बात रखने का अधिकार है। लोकतंत्र की अन्य विशेषताओं में एक विरोध करने का अधिकार हमारे प्रजातंत्र की मजबूती और परिपक्वता की निशानी है। इस सरकार की किसी बात से सहमत या असहमत हो सकते हैं। लोकतंत्र में जनता अपने हक और न्याय के लिए आवाज उठा सकती है। धरना-प्रदर्शन के द्वारा जनता अपनी असहमति भी सरकार तक पहुंचा सकती है। आंदोलन एक तरह का अहिंसक विरोध है जिसमें धरना देने वाले किसी के दरवाजे पर शांतिपूर्वक बैठक कर अपनी असहमति प्रकट करते हैं। धरना-प्रदर्शन का इस्तेमाल तो आजादी आंदोलनों में भी होता था। महात्मा गांधी सत्याग्रह तथा अपने कई आंदोलनों में इसका प्रयोग करते थे। धरना शब्द संस्कृत के धरणम से उत्पन्न हुआ है। धरना वास्तव में किसी वस्तु या किसी बात पर अपना ध्यान स्थापित करने की क्रिया है। धरना अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए पूर्ण लगन और चेतना में किया गया एक प्रयास है। धरने में धीरज की प्रतीक्षा निहित है। प्रदर्शन लोगों के समूहों का सरकार या जिम्मेदार संस्थाओं की नीतियों पर कार्यों के समर्थन या विरोध करने की एक क्रिया है। कानून के दायरे में शांतिपूर्ण आंदोलन लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकार है लेकिन इससे दूसरे का अधिकार प्रभावित नहीं होना चाहिए। धरना-प्रदर्शन की आड़ में हिंसा की इजाजत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर अहम फैसले दिए हैं। धरना-प्रदर्शन का अधिकार मौलिक अधिकार के तहत निहित है लेकिन यह अधिकार पूर्ण नहीं है। यानी जैसे ही दूसरे के अधिकार प्रभावित होने लगे, आपका अधिकार सीमित हो जाता है। इस दौरान कोई कानून अपने हाथ में नहीं ले सकता। मसलन, अगर कोई रास्ता रोकता है तो दूसरे का अधिकार प्रभावित होता है।
अब सुप्रीम कोर्ट ने शाहीन बाग मामले में पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी है। देश की सर्वोच्च अदालत का कहना है कि धरना-प्रदर्शन लोग अपनी मर्जी से किसी भी जगह नहीं कर सकते। धरना-प्रदर्शन लोकतंत्र का हिस्सा है लेकिन उसकी एक सीमा है। पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि धरना-प्रदर्शन के लिए जगह चिन्हित होनी चाहिए, अगर कोई व्यक्ति या समूह इससे बाहर धरना-प्रदर्शन करता है तो नियम के मुताबिक उन्हें हटाने का अधिकार पुलिस के पास है। शाहीन बाग धरने के चलते दिल्ली का यातायात काफी प्रभावित हुआ था। पिछले वर्ष अक्तूबर में एक जनहित याचिका दायर की गई थी। इस पर अदालत ने फैसला दिया था कि हमें साफ करना होगा िक आम रास्ते और सार्वजनिक जगहों पर इस तरह से और वह भी अनिश्चितकाल के लिए कब्जा नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र में असंतोष रहते हैं, लेकिन असंतोष का प्रदर्शन तय जगह पर होना चाहिए। शाहीन बाग के धरने से आम लोगों को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा। दिल्ली आने वाले रूटों में परिवर्तन करना पड़ा। रोजी-रोटी कमाने के लिए दिल्ली आने वालों को कई किलोमीटर घूम कर आना पड़ता था। कई बार घंटों यातायात अवरुद्ध रहता था। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ धरने के चलते दिल्ली में दंगे भी हुए थे जिससे लोगों और सरकार की सम्पत्ति का काफी नुक्सान हुआ था।
धरना-प्रदर्शन का मामला 2011 में भी उछला था। दिल्ली के रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को लेकर योग गुरु स्वामी रामदेव के नेतृत्व में धरना-प्रदर्शन चल रहा था। प्रदर्शन में उनके समर्थकों की भारी भीड़ थी लेकिन रात के अंधेरे में दिल्ली पुलिस ने उन पर बुरी तरह से लाठीचार्ज किया था। मामला अदालत में पहुंचा इस पर सुप्रीम कोर्ट ने उस समय कहा था कि शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन करना किसी भी नागरिक का मौलिक अधिकार है। ये किसी भी तरह से छीना नहीं जा सकता, कार्यपालिका या न्यायपालिका किसी भी कार्रवाई के जरिये इस अधिकार को वापिस नहीं ले सकती। अगर लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए जनता द्वारा शासन है तो ये निश्चित है कि देश का हर नागरिक अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करे। आंदोलनों से शांति को खतरा नहीं होना चाहिए। इससे तनाव पर हिंसा के हालात पैदा हो सकते हैं तो पुलिस को कार्रवाई करनी ही पड़ती है।
अगर किसान आंदोलन की बात करें तो दिल्ली के बार्डर इससे काफी प्रभावित हैं। दिल्ली आने वाले मार्गों पर यातायात जाम लगा ही रहता है। दिल्ली की सीमाओं से सटे गांवों के लोगाें को वैकल्पिक मार्गों से आना-जाना पड़ रहा है। लालकिले पर हुई हिंसा के चलते जो कुछ हुआ उससे हर देशवासी शर्मसार है। धार्मिक प्रतीकों का सहारा लेकर जिस तरह कुछ तत्वों ने एक दबी हुई विचारधारा को उभारने का प्रयस किया है, वह भी काफी घातक है। कानून व्यवस्था राज्य का मसला है, इसको लेकर राज्यों में अलग-अलग व्यवस्था है। आंदोलन कोई भी हो, इसके लिए कुछ नियम कामन हैं। इससे आम जनजीवन डिस्टर्व नहीं होना चाहिए, न ही पड़ोसी देशों के साथ संबंधों पर इसका कोई असर होना चाहिए और न ही इससे देश की एकता और अखंडता प्रभावित हाेनी चाहिए। अब कानून अपना काम कर रहा है। लालकिले की हिंसा में लिप्त लोगाें को पकड़ा जा रहा है लेकिन यह भी सुनिश्चित बनाया जाना चाहिए कि किसी निर्दोष को फंसाया नहीं जाए। किसान आंदोलन अब लम्बा ही खिचता जा रहा है। इसके साथ ही आम लोगों की परेशानियां भी बढ़ती जा रही हैं। आंदोलन अधिकार तो है लेकिन यह अधिकार भी निरंकुश नहीं है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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