भारतीय संविधान के अन्तर्गत गठित चुनाव प्रणाली देश में स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनावों के निष्पादन की गारंटी इस प्रकार देती है कि चुनाव घोषित होने के बाद सत्ता पर काबिज सरकार के मंत्रीगण जब अपनी पार्टी का चुनाव प्रचार करने निकलते हैं तो वह अपने दल के प्रतिनिधि होते हैं क्योंकि आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद चुनाव आयोग प्रशासन की कमान अपने हाथ में ले लेता है। यह व्यवस्था देश से लेकर प्रदेशों तक में होने वाले चुनावों के समय लागू हो जाती है। चुनावों के दौरान सामान्य परिस्थितियों में बेशक सरकार हुकूमत में रहती है परन्तु उसके पास नीतिगत निर्णय करने के अधिकार नहीं रहते और वह केवल दैनन्दिन का कामकाज चलाने से सम्बन्धित फैसले कर सकती है। चुनाव आयोग को हमारे संविधान निर्माताओं ने सरकार का अंग न बनाकर इसे स्वतन्त्र व स्वायत्त रखा और इस बात की गारंटी दी कि चुनावों के समय सत्ता पर काबिज किसी भी दल की हैसियत चुनावों में भाग लेने वाले अन्य राजनैतिक दलों के बराबर ही रहे। इसी वजह से चुनावों में प्रधानमन्त्री से लेकर मन्त्री तक जब अपनी पार्टी के प्रत्याशियों का चुनाव प्रचार करने जाते हैं तो उनकी हैसियत अपनी राजनैतिक पार्टी के नेता की होती है। एेसे मन्त्रियों (प्रधानमन्त्री समेत) की चुनावी सभाओं का खर्चा सरकार नहीं बल्कि उनकी पार्टी उठाती है मगर एक मन्त्री के रूप जो भी उनकी सुरक्षा आदि का प्रबन्ध करना होता है वह सरकार करती है क्योंकि एेसा नेता सरकार की सत्ता का प्रतिनिधित्व भी करता है। मगर चुनाव आयोग की नजरों में उसकी हैसियत एक राजनीतिक दल के प्रतिनिधि की ही होती है क्योंकि प्रशासन का प्रबन्धन भी उसके हाथ में आ जाता है।
हमारे संविधान निर्माता यह व्यवस्था बहुत सोच विचार करने के बाद करके गये हैं, जिस पर संविधान सभा में लम्बी बहस भी चली थी। संविधान सभा में इस मुद्दे पर भी चर्चा हुई थी कि चुनावों के समय क्यों न सरकार नाम की चीज को अस्तित्वहीन कर दिया जाये जिससे सभी दलों को चुनावों में बराबर का महत्व मिले। इस विचार को लोकतन्त्र के हक में नहीं माना गया और चुनाव आयोग को इतने अधिकारों से लैस किया गया कि वह किसी भी स्तर पर सरकार के कब्जे में न रह सके और चुनावों के समय उसके समक्ष सत्तारूढ़ दल से लेकर विपक्ष के दल एक ही तराजू में तुलें। यह कार्य आसान नहीं था क्योंकि सत्तारूढ़ दल सरकार में रहते हुए चुनाव आयोग पर अनावश्यक दबाव बना सकता था इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने चुनाव आयोग को अधिकार दिये कि वह सीधे संविधान से शक्ति लेकर अपने कार्य का निष्पादन करेगा और पूरी निष्पक्षता के साथ चुनावों का आयोजन करेगा। हमारी चुनाव प्रणाली में काले धन का उपयोग कोई नई बात नहीं है। स्वतन्त्र भारत में नेहरू युग समाप्त होने के बाद चुनाव लगातार मंहगे होते गये और भ्रष्टाचार की जननी बनते चले गये। इन्दिरा गांधी के कार्यकाल में इसमें बेतहाशा वृद्धि हुई और चुनावी चन्दे का विवाद बहुत तेज भी हुआ। मगर 1974 में इन्दिरा गांधी के कार्यकाल में ही चुनावी कानून जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 में एेेसा संशोधन किया गया जिसके बाद चुनावों में खर्च की जाने वाली धनराशि की सीमा को असीमित बना दिया गया। यह संशोधन एेसा था जिससे किसी भी दल के प्रत्याशी के चुनाव पर उसकी पार्टी या शुभचिन्तक कितना ही धन खर्च कर सकती थी। यह धनराशि प्रत्याशी द्वारा अपने चुनाव पर खर्च की जाने वाली धनराशि सीमा से अलग कर दी गई। इस धनराशि सीमा का निर्धारण चुनाव आयोग करता था। अतः चुनावों में काले धन के उपयोग को एक प्रकार से खुला कर दिया गया जिसके बाद से राजनीति धीरे-धीरे व्यापार बनती चली गई।
1991 में आर्थिक उदारीकरण और बाजार मूलक अर्थव्यवस्था ने इसमें और इजाफा किया जिससे चुनाव में धन-बल का वजूद बढ़ता चला गया। वर्तमान परिस्थितियों में चुनाव लड़ना किसी साधारण व्यक्ति के बूते की बात नहीं रही है क्योंकि धन-बल ने सभी बलों को पीछे छोड़ दिया है। इसके बावजूद चुनाव आयोग के पास यह अधिकार सुरक्षित है कि वह चुनावों में काले धन के इस्तेमाल को रोके और अवैध तरीके से मतदाताओं को आर्थिक रूप से ललचाने वाली कार्रवाइयों पर लगाम लगाये। यह जग जाहिर बात है कि चुनावों में मतदाताओं को रिझाने के लिए पार्टियां नकद रोकड़ा से लेकर विभिन्न उपहार बांटती हैं। इन पर रोकथाम लगाने के अधिकार चुनाव आयोग के पास सुरक्षित होते हैं। इस मामले में उसकी नजरों में सभी दलों के नेता एक समान होते हैं। वह नेता मन्त्री भी हो सकता है और किसी विपक्षी दल का राजनीतिज्ञ भी। अतः चुनाव आचार संहिता लगने के बाद सभी नेताओं के वाहनों व निजी सामान की तलाशी लेने का अधिकार चुनाव आयोग के पास रहता है। इस क्रम में महाराष्ट्र में हो रहे चुनावों चलते जिस प्रकार राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी शिवसेना के नेता पूर्व मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे के हैलीकाप्टर की तलाशी ली गई उसकी आलोचना विपक्ष द्वारा यह कहकर की कि चुनाव आयोग सत्तारूढ़ दल के किसी नेता की तलाशी नहीं लेता। मगर इसके बाद खबर आयी कि आयोग के अधिकारियों ने वर्तमान मुख्यमन्त्री एकनाथ शिन्दे के हैलीकाप्टर को भी खंगाला और केन्द्रीय गृहमन्त्री अमित शाह की भी तलाशी ली गई। बेशक चुनाव आयोग ने अपना कार्य पूरी स्वतन्त्रता से करने का प्रयास किया है जिसके लिए उसकी प्रशंसा होनी चाहिए क्योंकि उसने सीधे संविधान से ताकत लेकर निडरता दिखाई है। मगर चुनाव आयोग को केवल इसी मोर्चे पर नहीं बल्कि चुनावों से सम्बन्धित हर मोर्चे पर यह निडरता दिखानी चाहिए और सत्तारूढ़ व विपक्ष के नेताओं के बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं दिखाना चाहिए।