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शक्तिशाली महिला सू की का भविष्य?

म्यांमार की अपदस्थ नेता आंग सान सू की राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अहिंसावादी सिद्धांत से काफी प्रभावित रही हैं। उन्होंने म्यांमार में लोकतंत्र बहाली के लिए लम्बा संघर्ष किया। म्यांमार जिसे बर्मा भी कहा जाता था,

म्यांमार की अपदस्थ नेता आंग सान सू की राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अहिंसावादी सिद्धांत से काफी प्रभावित रही हैं। उन्होंने म्यांमार में लोकतंत्र बहाली के लिए लम्बा संघर्ष किया। म्यांमार जिसे बर्मा भी कहा जाता था, वहां पर वर्ष 2011 तक सेना का ही शासन था। आज भी वहां लोकतंत्र को सेना ने कुचल कर रखा हुआ है। लोकतंत्र और मानवाधिकारों की बहाली के लिए उनके लम्बे संघर्ष को देखते हुए सू की को वर्ष 1991 में नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया था। अफसोस यह है कि इतनी प्रतिष्ठित और जुझारू महिला जेल में है और वह म्यांमार के अपदस्थ राष्ट्रपति विन मिंट एक फरवरी को सैन्य पलट के बाद हिसासत में हैं। सैन्य तख्त पलट के बाद सू की को पहली बार व्यक्तिगत रूप से अदालत के सामने पेश किया गया।
सू की अदालत में पेश होने से पहले अपने वकीलों से भी मिलीं। अपदस्थ राष्ट्रपति विन मिंट भी वकीलों से मिले, जिनकी सरकार में सू की स्टेट काउंसलर थीं। वह भी उन्हीं आरोपों का सामना कर रहे हैं जिनका सामना सू की कर रही हैं। जिन गम्भीर आरोपों का सामना सू की कर रही हैं उनमें दो मामले कोरोना काल के दृष्टिगत 2020 के चुनाव प्रचार के दौरान आपदा प्रबंधन कानून  का उल्लंघन करने के हैं। इसके अलावा उन पर गैर कानूनी तरीके से अंगरक्षकों के लिए वाकी-टॉकी आयात करने, बिना लाइसेंस रेडियो का इस्तेमाल करने और ऐसी सूचना फैैलाने का आरोप है जिनकी वजह से लोगो में तनाव पैदा हो सकता था। सू की के खिलाफ सबसे गम्भीर आरोप औपनिवेशिक कालीन गोपनीयता कानून काे भंग कर करने का है, जिसमे 14 वर्ष कैद हो सकती है। म्यांमार के मामले में यह बात प्रमाणित हो जाती है कि संघर्ष करना और सफल आंदोलन चलाना अलग बात है लेकिन सत्ता में आकर प्रशासन चलाना उससे बिल्कुल अलग है।
जो राष्ट्र लम्बे समय तक सैन्य शासन के अधीन रहे हैं वहां लोकतंत्र की सफलता संदिग्ध ही रहती है। सेना में उच्च पदों पर बैठे लोगों को सत्ता से दूर रहना गंवारा नहीं होता। सफल क्रांतियां राजनीतिक स्थिरता की गारंटी नहीं होती। अरब स्प्रिंग के नाम से जहां-जहां लोकतंत्र बहाली के लिए क्रांतियां हुईं, वहां-वहां आज तक स्थिर सरकारें नहीं बनीं। ऐसा नहीं है कि म्यांमार में सू की की लोकप्रियता कम हुई है। उसके आह्वान पर लोग सड़कों पर आकर सैन्य शासन का विरोध कर रहे हैं। सू की ने 27 सितम्बर, 1988 को नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी की स्थापना की थी लेकिन उन्हें 1989 को घर में ही नजरबंद कर दिया गया। उन्हें पेशकश की गई थी कि अगर वह देश छोड़कर चली जाएं तो उन्हें आजाद कर दिया जाएगा लेकिन उन्होंने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया। नजरबंदी के दौरान उनकी लोकप्रियता बढ़ती चली गई। सेना ने 2000 से मई 2002 तक सू की को फिर से नजरबंद किया। वर्ष 2003 में उनकी पार्टी और सरकार के समर्थकों के बीच हुई हिंसा के चलते उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। सन् 2009 में यूनाइटेड नेशंस की संस्था ने उनकी ​हिरासत काे गैर कानून करार दिया। 2008 में नजरबंदी में थोड़ी ढील दी गई। नवम्बर 2010 में सू की को फिर से ​हिरासत में ​लिया गया लेकिन 6 दिनों बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। सन् 2011 में सू की को सरकार की तरफ से कुछ और राहत दी गई। 2012 में सू की की पार्टी को आधिकारिक तौर पर मान्यता दी गई।
नवम्बर में हुए चुनाव में सू की पार्टी को विशाल जीत मिली और वह अगली सरकार बनाने में योग्य हुईं। सू की देश के राष्ट्रपति पद के चुनाव नहीं लड़ सकती थीं। म्यांमार के संविधान में यह प्रावधान है कि अगर किसी ने विदेशी से शादी की हो तो वह देश का राष्ट्रपति नहीं बन सकता। बाद में वह स्टेट काउंसलर बन गईं। जो राष्ट्रपति से भी ज्यादा ताकतवर पद था। सू की के नए पद की वजह से सेना में असंतोष का भाव था। सब जानते हैं कि सू की ने दिल्ली स्थित जीसस एंड मैरी कान्वेंट स्कूल से पढ़ाई की और फिर श्री लेडी श्रीराम कालेज से पढ़ाई की। म्यांमार में रोहिंग्या नरसंहार पर सू की की चुप्पी से दुनिया भी हैरान रह गई। मानवाधिकारों के लिए हमेशा आवाज बुलंद करने वाली सू की की खामोशी ने उन्हें विवादास्पद बना ​दिया। अब सवाल यह है ​कि कभी ताकतवर रही महिला सू की का भविष्य क्या होगा। चुनाव में धोखाधड़ी के आरोप में म्यांमार का चुनाव आयोग उनकी पार्टी को भंग कर सकता है। ऐसे संकेत भी मिल रहे हैं। सेना ने आरोप लगाया है कि नवम्बर 2020 के चुनावों में बड़े पैमाने पर मतदान में धोखाधड़ी हुई, जिसमें एनएलडी ने संसद में बहुमत हासिल किया था। म्यांमार में सेना का शासन काफी निरंकुश है। म्यांमार में लोकतंत्र आने के बाद भी उसके सफल न होने के पीछे एक कारण वहां का संविधान है। संसद में एक चौथाई सीटें अभी भी सेना के पास हैं आैर सेना कभी नहीं चाहेगी कि कोई उनकी जड़ों को हिलाने में कामयाब हो जाए। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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