भारत के लोकतन्त्र में सबसे बड़ी और सबसे पहली हिस्सेदारी उस आदमी की है जो अनपढ़ रहा है और मुफलिसी के दौर में जी रहा है, उसके इस हक को अगर किसी भी राज्य में खत्म किया जाता है तो इसे ऐसी नाइंसाफी कहा जायेगा जिसके तार नादिरशाही निजाम से बन्धे हुए हैं। भारत ने आजादी इन्ही लोगों को अधिकार सम्पन्न बनाने और इनका आत्मसम्मान स्थापित करने के लिए 1947 में प्राप्त की थी। महात्मा गांधी ने जिन गांवों के भारत की बात की थी उसका मूल उद्देश्य यही था कि इस देश के पिछड़े से पिछड़े इलाके में रहने वाले हर पिछड़े आदमी को भी आम लोगों का प्रतिनिधित्व करने का अवसर प्राप्त हो जिससे वह उनके दुख-सुख के मामलों का जमीनी हल निकाल सके परन्तु राजस्थान में पिछली वसुन्धरा राजे सरकार ने ग्राम पंचायतों के पंच, सरपंच से लेकर नगर पालिकाओं तक में खड़े होने वाले प्रत्याशियों के लिए न्यूनतम शिक्षा प्राप्त होना जरूर बना दिया।
यह पूरी तरह अलोकतान्त्रिक कदम था जिसका विरोध उस समय राज्य की सभी लोकतान्त्रिक पार्टियों खास कर कांग्रेस ने किया था। जब देश के प्रधानमन्त्री तक के लिए किसी न्यूनतम शैक्षिक योग्यता की जरूरत नहीं है तो एक गांव पंचायत के सरपंच के लिए किस प्रकार शैक्षिक पैमाना तय किया जा सकता है? नगर पालिका के चुनाव में खड़ा होने के लिए कम से कम दसवीं पास होने को लाजिमी बना कर ऐसी स्थिति पैदा कर दी गई थी कि जिसमें परिस्थितियों वश अनपढ़ रहे व्यक्ति के लिए हिकारत भरी हुई थी। लोकतन्त्र कभी भी हिकारत से नहीं चलता है बल्कि वह वंचित लोगों की हिमायत से चलता है क्योंकि केवल इसी व्यवस्था के भीतर उनके अधिकार सुरक्षित रहते हैं और उनका मान-सम्मान संरक्षित रहता है। यह खाम ख्याली है कि राजनीति बड़ी-बड़ी डिग्रीधारियों का क्षेत्र हो सकता है।
शौक्षिक योग्यता का राजनीति से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। इसका लेना-देना अगर होता है तो केवल सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों के आंकलन व विश्लेषण से और इसके लिए किसी डिग्री की जरूरत नहीं पड़ती। गांव पंचायत का पंच हो या सरपंच हो अथवा किसी नगर पालिका या परिषद का सदस्य, उनका काम अपने-अपने इलाके के लोगों की रोजमर्रा की स्थानीय समस्याओं का निराकरण करना होता है। मगर एक योग्यता इन सभी पदों के लिए बहुत जरूरी होती है और वह ईमानदारी होती है। पूर्ववर्ती सरकार ने पाठ्यक्रमों में बदलाव किया था कि हल्दी घाटी के युद्ध में अकबर और महाराणा प्रताप के युद्ध में जीत राणा प्रताप की हुई थी वह पूरे मेवाड़ की जनता का घोर अपमान करती है क्योंकि मेवाड़ की जनता की रगों में यह हकीकत खून बनकर दौड़ती है कि इस युद्ध के बाद भी महाराणा प्रताप का यह प्रण जारी रहा था कि जब तक अपने चित्तौड़ को वापस नहीं ले लूंगा तब तक चैन से नहीं बैठूंगा।
वैसे भी यह युद्ध दो राजाओं का था क्योंकि महाराणा प्रताप का मुख्य सेनापति हल्दी घाटी युद्ध में एक मुस्लिम फौजी हाकिम खां सूर था और अकबर की तरफ से राजा मान सिंह कमान संभाले हुए था। इसके अलावा वसुन्धरा सरकार ने जिस तरह पाठ्यपुस्तकों से भारत की आजादी के लड़ाई के इतिहास को बदलने का प्रयास किया और राष्ट्रीय महापुरुषों की कुर्बानियों को नई पीढ़ी के पास जाने से रोका उसका समर्थन कोई भी सुविज्ञ नागरिक नहीं कर सकता। भला झांसी की रानी पर कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की उस कविता से इतिहास के सच की उन पंक्तियों को किस प्रकार निकाला जा सकता है जिनमें लिखा हुआ है कि ‘अंग्रेजों के मित्र सिन्धिया ने छोड़ी राजधानी थी-खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ यह देश किसी राजे-रजवाड़े से नहीं बना है बल्कि यहां के लोगों से बना है।
ग्वालियर के सिन्धिया राजघराने का इतिहास 1857 मंे अंग्रेजों का साथ देना का रहा है, इसे दुनिया की कोई ताकत नहीं बदल सकती। मगर लोकतन्त्र का यह दुर्भाग्य भी कहा जायेगा कि अभी तक पूर्व रियासतों की आम जनता में पुराने रजवाड़ों के प्रति दासता भाव भरा हुआ है जिसकी वजह से ये विधानसभा या संसद तक में पहुंच जाते हैं और राजनैतिक दल भी इनके कन्धे पर बैठ कर अपनी सीटें बढ़ा लेते हैं। यही वजह है कि राजस्थान के नये मुख्यमन्त्री श्री अशोक गहलोत ने पाठ्यपुस्तकों के अध्ययन हेतु एक शैक्षिक समिति का गठन करने की घोषणा की है। यह बात बार-बार कहने की नहीं होती कि पार्टी से बड़ा देश होता है और इसके गौरव से किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता मगर पूर्व राजे-रजवाड़ों के लिए अगर देश सबसे ऊपर होता तो स्वतन्त्र भारत के पहले गृहमन्त्री सरदार पटेल को भारी मशक्कत क्यों करनी पड़ती और 1949 तक जाकर सभी रजवाड़ों को भारतीय संघ में शामिल होने के लिए राजी करना पड़ता।
ध्यान रखा जाना चाहिए कि भोपाल की रियासत का विलय जून 1949 में ही हो पाया था और इसके अलावा दक्षिण की त्रावनकोर रियासत के अलावा कुछ अन्य रियासतें भी थीं जो इसी वर्ष भारतीय संघ में विलीन हुई थीं। अतः 21 वीं सदी के बदलते भारत में राजनैतिक दलों को ही अपनी चाल-ढाल बदलनी होगी और अनपढ़ व मुफलिस आदमी को उसका हक देना होगा। जनतन्त्र का असली नायक यही व्यक्ति होता है।