दिल्ली के चुनावों में आम आदमी पार्टी की लगातार दूसरी बार ऐतिहासिक धमाकेदार विजय ने साबित कर दिया है कि इस अर्ध राज्य की जनता ने राजनीति के क्रियात्मक अंग को स्वीकार करते हुए श्री अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में पूरा विश्वास जताया है। वस्तुतः यह देश की राजधानी कहे जाने वाले महानगर दिल्ली के लोगों की उस उत्कष्ठा का प्रतीक भी है जो ‘भारत के विचार’ को ‘भारतीयता’ के सांचे में ढाल कर देखना चाहते हैं। दिल्ली में पिछले दिनों चले चुनावी प्रचार को ऐसे ‘दुरास्वप्न’ की तरह देखा जायेगा जिसमें राजनीतिक दलों के स्थान पर आम मतदाता को ही तोलने की हिमाकत की गई थी और उसके धर्म को केन्द्र में रख कर उसकी राष्ट्रीयता परिभाषित करने की जुर्रत की गई थी किन्तु दिल्ली वह शहर है जिसके आगोश में मजहबी पहचान के निशान तक भारतीयता में ढल गये और हर हिन्दोस्तानी ने इन पर फख्र करके हिन्दोस्तान के तिरंगे परचम को ही अपना ईमान समझा।
अतः दिल्ली वालों की जब भी परीक्षा हुई वे उसमें सफल होकर इस तरह निकले कि दिल्ली हिन्दोस्तान का दिल ही लगे। मिनी इंडिया कहे जाने वाले इस महानगर के लोगों ने चुनाव में जो जनादेश दिया है उसकी गूंज राष्ट्रीय स्तर पर होनी इसलिए लाजिमी है क्योंकि इन चुनावों को किसी राज्य के चुनाव न होकर राष्ट्रीय चुनाव बनाने की कोशिश की गई और इस महानगर की राजनीतिक लड़ाई जीतने के लिए समस्त ताकत झोंक दी गई। इतना भर होने से इस राज्य के लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता अगर इसके चुनावी एजेंडे को भारत-पाकिस्तान के मध्य होने वाले युद्ध के समकक्ष न कहा जाता। अतः चुनाव परिणामों से सिद्ध हो गया कि दिल्ली के लोग उस हिन्दोस्तान में यकीन रखते हैं जिसे गांधी बाबा ने 1947 में अंग्रेजों से आजाद कराया था और ताकीद की थी कि यह स्वतन्त्रता अंग्रेज सौगात में देकर नहीं गये हैं बल्कि यह वह अनमोल रत्न है जिसकी चमक से हर मुफलिस हिन्दोस्तानी का घर चमकेगा और यह रत्न एक वोट का अधिकार था जिसके बूते पर भारत के हर अमीर-गरीब नागरिक को अपनी मनपसन्द सरकार बनाने का हक अता किया गया था।
यह कार्य महात्मा गांधी ने भारतीय समाज के सबसे निचले और दबे-कुचले वर्ग के व्यक्ति बाबा साहेब अम्बेडकर के सुपुर्द किया था जिन्होंने संविधान लिख कर पूरे भारत में ऐलान किया कि राजनीति का अर्थ समूहगत संरचना के बूते पर सत्ता हथियाना नहीं बल्कि व्यक्तिगत आधार पर नागरिकों के बहुमत को सैद्धांतिक आधार पर बहुमत में तब्दील करके शासन पर अपना दावा ठोंकना होगा। दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल ने केवल यही काम किया है और जाति-बिरादरी, मजहब व सम्प्रदाय को दरकिनार करके प्रत्येक मतदाता से अपने पिछले पांच वर्षों के दौरान किये गये काम की मजदूरी मांगी है जिसे लोगों ने खुले दिल से देते हुए विधानसभा की कुल सत्तर सीटों में तीन-चौथाई से भी अधिक सीटें मेहनताने के तौर पर दी हैं। यह भी कोई सौगात नहीं है बल्कि मेहनत का भुगतान है और दिल्ली में इसी राजनीति की शुरूआत दिल्ली वालों ने करके साफ कर दिया है कि सियासत का मतलब न तो ‘वादों की बहार’ होता है और न ही दिलफरेब लफ्फाजी का जाल होता है बल्कि जमीन पर उतारे गये कामों का ‘नक्श’ होता है।
सवाल यह नहीं है कि दिल्ली में कितने लोग गरीब से अमीर हुए बल्कि असली सवाल यह है कि जो गरीब थे उनकी जिन्दगी में कितनी खुशहाली आयी? सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजने वाले मां-बाप में उनके भविष्य के लिए कितनी निश्चिन्तता तब आयी जबकि उनके लाडले किसी महंगे और खर्चीले स्कूल में प्रवेश पाने में असमर्थ थे। उनकी तंगहाली एक चपरासी के बेटे को चपरासी बनाने पर मजबूर करती थी और उसकी प्रतिभा चन्द रुपयों की वजह से उसी में घुट कर दम तोड़ देती थी। समाजवादी नेता ने भारत की आजादी के बाद ही विमर्श खड़ा किया था कि ‘राष्ट्रपति का बेटा हो या चपरासी की हो सन्तान, टाटा या बिड़ला का छोना सबकी शिक्षा एक समान’ उनका जोर एक समान शिक्षा पर था जिससे भारत की भावी पीढि़यां अपनी प्रतिभा को अपनी योग्यतानुसार उभार कर देश सेवा कर सकें।
अतः इस हकीकत को कम करके किसी भी रूप में नहीं देखा जाना चाहिए कि केजरीवाल ने अपनी सरकार का एक-चौथाई बजट दिल्ली में शिक्षा पर ही खर्च करने का साहसिक फैसला किया। यह प्रसन्नता की बात है दिल्ली के चुनावों में आम आदमी पार्टी ने शिक्षा व स्वास्थ्य को मुद्दा बना कर पेश किया। मोहल्ला क्लीनिक खोल कर भी केजरीवाल ने दिल्लीवासियों के स्वास्थ्य की गारंटी लेने का काम किया और इन दोनों ही मदों में बजट की प्रचुर धनराशियां व्यय कीं। जाहिर है राज्य सरकार के हाथ में सीमित अधिकार ही होते हैं और इसके चलते उन्होंने समाज के गरीब व कम सम्पन्न वर्ग के लोगों के लिए सस्ती बिजली व पानी की व्यवस्था की और महिलाओं के लिए बस का सफर भी मुफ्त किया।
इसे लेकर तरह-तरह की आलोचनाएं भी होती हैं। मगर सोचने वाली बात यह है कि सरकार लोगों से ही शुल्क व कर आदि वसूल कर अपना राजस्व भंडार भरती है जिस पर उन लोगों का पहला हक होता है जिनकी आमदनी कम या क्रय क्षमता सीमित होती है। अतः उनके लिए कोई भी सुविधा सस्ती दरों पर सुलभ कराना या मुफ्त देना ‘कल्याणकारी राज’ की परिकल्पना का हिस्सा ही होते हैं। अतः राजधानी के कुछ विशेष वर्गों को आर्थिक आधार पर सुविधा देना किसी भी तरह मुफ्तखोरी या ‘फ्रीबीज’ की श्रेणी में डाला जाना उस जनता का अपमान होता है जिसे यह सुविधा दी जा रही है। भारत के नागरिक होने के नाते उनका भी इस देश के स्रोतों पर बराबर का अधिकार है और विकास में भागीदारी करने का उन्हें भी अधिकार है।
बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में यह प्रणाली मुनाफाखोर संस्कृति को मानव मूलक बनाती है और सरकार की सीधे जवाबदेहयी तय करती है जिसकी वजह से बाजार की ताकतों की आंख में यह व्यवस्था चुभती है परन्तु इससे रोजगार गांरटी के साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र प्रतियोगी भूमिका में भी आता है। कमोबेश केजरीवाल की पार्टी ने चुनाव आर्थिक मुद्दों पर लड़ने की कोशिश की है जिनका मुकाबला भाजपा पूरी ताकत झोंक कर भी नहीं कर पाई और वह मतदाताओं को धार्मिक आधार पर दो खेमों में बांटने की जुगत भर लगाती रही। बेशक शाहीन बाग में चल रहे नागरिकता कानून विरोधी आन्दोलन के दौरान कुछ बदजुबानी भी हुई मगर उसका उत्तर नागरिकों की धार्मिक खेमेबन्दी नहीं हो सकती थी।
बल्कि बदजुबानी करने वालों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई हो सकती थी लेकिन इसके उलट चुनावी सभाओं में ही बदजुबानी ने दिल्ली वालों का मन खट्टा कर दिया और उन्हें लगा कि केजरीवाल के जवाब में कोई ठोस विमर्श चुनावी मैदान में है ही नहीं। ठीक ऐसा 1972 के दिल्ली के चुनावों में भी हुआ था। तब गौहत्या निषेध को चुनावी मुद्दा बनाने का जुनून सवार रहता था। तब ही यह जुमला निकला था कि ‘गऊ हमारी माता है, हमको कुछ नहीं आता है” मगर आज हम धर्म मूलक राष्ट्रवाद के फेर में पड़ कर समय की गति को पीछे नहीं घुमा सकते।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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