आज होलिका दहन का त्यौहार है जिसे सभी भारतवासी किसी न किसी रूप में मनाते हैं। उत्तर भारत के राज्यों में यह त्यौहार विशेष हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इससे अगले दिन रंगों के त्यौहार का भारतीय संस्कृति में विशिष्ट महत्व इसलिए है कि इसमें समाज के सभी वर्गों के लोग रंग-बिरंगे होकर आपसी भाईचारे को इन्द्रधनुषी आकार देते हैं। भारत के कृषि प्रधान समाज में त्यौहारों का भी सीधा सम्बन्ध खेती से जुड़ा हुआ है। अतः किसान इस मौसम में अपनी पकी फसल की खुशी में मौज-मस्ती के रंग में सराबोर रहता है। इसमें प्रकृति उसका साथ देती है और सर्दी से गर्मी के मौसम की तरफ चहल कदमी शुरू कर देती है। मगर आज का भारत 21वीं सदी के गणतन्त्र का भारत है जिसमें प्रत्येक नागरिक स्वयं में सत्ता की इकाई के रूप में एक वोट के संवैधानिक अधिकार के माध्यम से प्रतिष्ठापित किया गया है। भारत का संविधान सामाजिक, आर्थिक, न्याय की गारंटी देने की बात अपनी प्रस्तावना में ही करता है। होली का पर्व भारत में असमानता को समाप्त करके समानता स्थापित करने का प्रतीक भी है।
होली का त्यौहार मनाने की जो ऐतिहासिक परंपरा रही है उसमें राजा और रंक को एक ही धरातल पर रख कर देखा गया है। इस सम्बन्ध में भारतीय साहित्य में भी सैंकड़ों रचनाएं हैं मगर महत्वपूर्ण यह है कि इस साहित्यिक धारा में सभी धर्मों को मानने वाले लोगों ने अपना-अपना योगदान किया। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि होली के त्यौहार पर अब से दो सौ साल पहले उर्दू के कवि ‘नजीर अकबराबादी’ ने जो रचनाएं लिखी वे अद्भुत हैं और होली का वर्णन अभूतपूर्व है। हिन्दू देवी-देवताओं को केन्द्र में रख कर भी उन्होंने होलिका रंग उत्सव का मर्मस्पर्शी चित्र खींचा। मुस्लिम गायक-गायिकाओं ने भी होली का त्यौहार मनाने को लेकर सैकड़ों रचनाएं लिखी और गायीं। जिनमें यह सबसे प्रसिद्ध है कि ‘मेरे मौला ने मदीने में मचाई होली’। अतः होली को केवल हिन्दू समाज तक सीमित कर देना उचित नहीं है। कितने ही मुस्लिम संगीतज्ञों ने राधा-कृष्ण के होली खेलने सम्बन्धी ‘बड़े ख्यालों’ की रचना की और लयबद्ध तक किया। फिल्म ‘मुगले आजम’ में शहंशाह अकबर के दरबार में गाया गया गीत ‘मोहे पनघट पे नन्द लाल छेड़ गयो रे...’ मुस्लिम गीतकार शकील बदायूनी ने ही लिखा।
अतः होली मजहब की दीवारों से ऊपर उठ कर इंसान से इंसान के बीच मेल-मिलाप का त्यौहार भी कहा जा सकता है। मगर दुख तब होता है जब किसी भी पक्ष के कट्टरपंथी लोग भारतीय त्यौहारों को मजहबी चोलों में परोसने की हिमाकत करने लगते हैं। उर्दू के कालजयी शायर गालिब ने बनारस की शान में जो मसनबी शैली में रचना की है उसका तोड़ अभी तक हिन्दी साहित्य में भी पेश नहीं हो पाया है। यह और कुछ नहीं सिर्फ हिन्दोस्तान की खूबसूरत दिलकश संस्कृति की कशिश है जो इस धरती पर रहने वाले इंसान को अपनी तरफ खींचती रही है। हिन्दोस्तान की बुनियाद तो उस प्रेम व मोहब्बत के ‘गारे’ से बनी है जिसे गुरु नानक देव जी महाराज ने कुछ इस तरह बयान किया था :
कोई बोले राम-राम...कोई खुदाए, कोई सेवैं गुसैयां, कोई अल्लाए
कोई पढे़ वेद, कोई कछेद, कोई ओढै़ नील, कोई सफेद
कोई कहे तुरक, कोई कहे हिन्दू, कोई गावै भीस्त, कोई सुरबिन्दू
दूसरे अर्थों में भारत के जितने भी त्यौहार हैं वे सभी उन मानवीय मूल्यों पर आधारित हैं जिसमें आदमी के इंसान बनने की भावना अन्तर्निहित है। राजनैतिक रूप से हमने स्वतन्त्र भारत में जिस लोकतन्त्र को अपनाया उसका आधार भी मानवीय मूल्य ही है क्योंकि लोकतन्त्र के भीतर ही मानव मूल्यों की रक्षा की जा सकती है। अतः हिन्दू धर्म के भीतर भी किसी व्यक्ति पर यह दबाव कभी नहीं रहा है कि वह किसी एक राह को ही पकड़े। ऋगवेद तो कहता है कि पृथ्वी के उदय के बाद ही सत्य, असत्य का विचार पनपा। ईश्वर की परिकल्पना का विचार भी इसके उद्गम के साथ ही आया। अतः हिन्दू रीति-रिवाजों में अहम् ब्रह्मास्मि से नास्तिक होने तक की छूट है। यह कोई छोटी बात नहीं है, दुनिया के किसी अन्य धर्म या मजहब में इतना लोकतन्त्र नहीं है। इसी के अनुरूप कालान्तर में भारत में तीज-त्यौहारों का प्रचलन भी होता रहा है जिनमें मजहब से ऊपर इंसानियत को तवज्जो दी गई है और यही भारत की सबसे बड़ी विशेषता है मगर इसके साथ-साथ ही नई सदी के 1947 के भारत में आर्थिक न्याय की गारंटी देने की व्यवस्था भी हमारे पुरखों ने की जिसकी सुरक्षा 21वीं सदी में होनी जरूरी है। यदि होली से एक दिन पहले महाराष्ट्र के नासिक में एक किसान अपने डेढ़ एकड़ में खड़ी प्याज की फसल को आग लगा देता है तो हमें विचार करना होगा कि होलिका का तत्व दर्शन कहीं वर्जनाओं का शिकार हो रहा है। होली का त्यौहार रंगों की एकरूपता में सामाजिक बराबरी के साथ आर्थिक बराबरी का भी छिपा हुआ सन्देश देता है।