राजधानी दिल्ली में महापंचायत करके किसानों ने पुनः आन्दोलन की चेतावनी दे दी है। इसका प्रमुख कारण यह बताया जा रहा है कि उनके साथ सरकार ने जो वादे किये थे, वे पूरे नहीं किये गये हैं और सैकड़ों किसानों पर विभिन्न राज्यों में मुकदमें चल रहे हैं। ये मुकदमें गत आन्दोलन में शामिल किसानों के हैं। इसके साथ ही उनकी ऊपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने का ऐसा फार्मूला भी अभी तक नहीं निकला है जिससे उन्हें लागत की डेढ़ गुनी कीमत मिल सके। किसान चाहते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दायरे में लाया जाये। यहां सबसे बड़ा मूलभूत प्रश्न यह है कि किसान अपनी फसल बेचने के बाद स्वयं उपभोक्ता बन जाता है। खास कर छोटे किसानों को तो अपने परिवारों का पेट पालने के लिए उन्हीं कृषि ऊपजों तक को बाजार से खरीदना पड़ता है जिनका वह उत्पादन करते हैं। केन्द्र सरकार जब पिछले वर्षों में तीन नये कृषि कानून लाई थी तो वे कृषि उत्पाद विपणन प्रणाली से सम्बन्धित थे। इनका किसानों ने पुरजोर विरोध किया जिसकी वजह से ये कानून वापस लेने पड़े परन्तु हम देख रहे हैं कि केवल भूमि पर उत्पादन करने वाले किसानों की ऊपज के खुदरा दामों में ही वृद्धि नहीं हो रही है बल्कि दुग्ध उत्पादक किसानों के दूध के दामों में भी बेतहाशा वृद्धि दर्ज हो रही है। इसके बावजूद किसान उचित लाभकारी मूल्यों की मांग कर रहे हैं।
इसकी वजह यह है कि कृषि उपयोग में आने वाले जरूरी सामान के मूल्यों में लगातार वृद्धि हो रही है जिसकी वजह से किसान का लागत मूल्य भी लगातार बढ़ता जा रहा है। यहां तक कि दुधारू पशुओं के चारे के दामों में कई गुना वृद्धि हो चुकी है जिसकी वजह से दूध के बढे़ हुए दामों के बावजूद पशु पालक किसानों के मुनाफे की दर कम हो रही है। इसके साथ ही देश की कुल 130 करोड़ जनसंख्या में 81 करोड़ के लगभग ऐसे लोग हैं जिनकी आमदनी पांच हजार रुपए महीने से कम है। इन्हें सरकार हर महीने पांच किलो मुफ्त अनाज उपलब्ध करा रही है। इसका मतलब यह निकलता है कि यदि भारत में प्रत्येक परिवार के सदस्यों की औसत संख्या पांच मानी जाये तो देश के कुल 26 करोड़ परिवारों में से 16 करोड़ परिवार ऐसे हैं जिन्हें सरकार द्वारा प्राप्त पांच किलो अनाज पर जीवन गुजर-बसर करना पड़ रहा है। इनमें निश्चित रूप से भूमिहीन किसान-मजदूरों के परिवारों की संख्या सर्वाधिक होगी उसके बाद छोटा-मोटा काम-धंधा या प्राइवेट नौकरी करने वाले परिवार होंगे।
अतः सरकार का कर्त्तव्य हो जाता है कि जीवनोपयोगी अनाज व अन्य जरूरी खाद्य सामग्री के दाम बाजार में इस तरह नियन्त्रित रखे जायें जिससे गरीब कहे जाने वाले परिवार अपने भरण- पोषण की सामग्री अपनी जेब के मुताबिक खऱीद सकें। इसके लिए जरूरी होगा कि कृषि उत्पादन की लागत कम से कम रखी जाये जिससे जरूरी चीजों के दाम आसमान न छू सकें। क्योंकि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के जो कायदे-कानून होते हैं उनके अनुसार किसान कभी भी अपनी उपज का वह मूल्य प्राप्त नहीं कर सकते जिससे उनकी आमदनी डेढ़ गुनी हो जाये। इसकी वजह यह है कि किसानों की उपज मौसम के लिहाज से बाजार में इकट्ठा आती है और मंडियां उपज से लबालब भर जाती हैं जबकि बाजार मांग व आपूर्ति (डिमांड एंड सप्लाई) के सिद्धान्त पर वस्तुओं की कीमत तय करता है। जब बाजर में सप्लाई बढ़ती है तो उपज के दाम घट जाते हैं और किसान को अपना माल उन्हीं दामों पर बेचना पड़ता है क्योंकि उसे रोकड़ा की जरूरत होती है। उसकी सारी उम्मीदें ऊपज या फसल बेच कर प्राप्त होने वाले धन पर ही लगी रहती हैं। सवाल यह पैदा होता है कि इन परिस्थियों में सरकार की क्या भूमिका हो सकती है?
एक तरफ वैश्विक अर्थव्यवस्था से भारत के जुड़ जाने से इस पर विश्व व्यापार संगठन का सदस्य होने के नाते कृषि सब्सिडी कम से कम करने का दबाव रहता है और दूसरी तरफ देश की गरीब आबादी को उसकी जेब के मुताबिक खाद्यान्न सुलभ कराने की जिम्मेदारी रहती है। इसके लिए जरूरी है कि कृषि उपयोगी कच्चे सामान की कीमतें कम से कम रखी जायें और किसानों को खाद से लेकर बिजली आदि सस्ते से सस्ते दामों पर उपलब्ध कराई जाये। हाल ही में महाराष्ट्र के प्याज उत्पादक किसानों ने नासिक से मुम्बई तक पैदल मार्च करके राज्य सरकार के सामने अपनी जायज मांगें रखी थीं। इन पैदल मार्च करने वाले किसानों में अधिसंख्य आदिवासी किसान थे जिनकी जंगलों की जमीन के पट्टे तक उनके नाम नहीं हैं और उनके पास खेती करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है।
इस राज्य की बड़ी-बड़ी प्याज मंडियों में प्याज दो रुपए किलो तक के हिसाब से खरीदी जा रही थी। ऐसे विरोधाभास पूरे भारत के विभिन्न राज्यों के किसानों में हमें देखने को मिलेंगे। इनका कोई न कोई हल तो हमें निकालना ही होगा। और यह हल हमें देश के अभी तक के सबसे बड़े किसान नेता स्व. चौधरी चरण सिंह के फार्मूले से ही निकालना होगा। उस फार्मूले का पुनः अध्ययन करने व उस पर मनन करने का समय आ चुका है। चौधरी साहब कहा करते थे कि यदि किसान की आमदनी बढे़गी तो देश की आमदनी ही नहीं बल्कि इसका चहुंमुखी विकास भी होगा। यह काम गांवों व कस्बों में कृषि मूलक कुटीर उद्योग लगाने से ही होगा। किसानों की महापंचायत कह रही है कि राज्यवार आन्दोलन चलाया जायेगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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