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रेत से सस्ती पत्रकारों की जान

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– क्या इस देश में पत्रकारों के लिए काम करना जोखिम भरा हो चुका है?
– क्या रेत से ​सस्ती हो गई है पत्रकारों की जान?
– क्या खनन माफिया इतना ताकतवर हो चुका है कि उनके अवैध धंधे में जो भी अड़ंगा लगाए या उनका पर्दाफाश करे, उसकी जान ले ली जाती है, चाहे वह पुलिस अधिकारी हो या पत्रकार!
– क्या सत्य के मार्ग पर चलना अपनी मौत को निमंत्रण देना है?
आज एक साथ कई सवाल मेरे जेहन में बैठे हुए हैं। एक पत्रकार की हत्या के बाद की परिस्थितियों से मैं पूरी तरह से अवगत हूं। मैंने अपने परम पूज्य दादा लाला जगत नारायण जी और परम पूजनीय पिता रमेश चन्द्र जी की शहादत के बाद जो भी झेला है, उसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है। मैं जानता हूं विधवा मां की पीड़ा क्या होती है, कुछ दिनों के अंतराल के बाद अपने भी साथ छोड़ देते हैं और परिवार को अकेले ही सभी हालातों से जूझना पड़ता है।

एक पत्रकार जीते जी संघर्ष करता है और उसके जाने के बाद परिवार को संघर्ष करना पड़ता है। बिहार के भोजपुर जिले के गडरनी ब्लाक में पत्रकार नवीन निश्चल आैर उनके साथी विजय की मौत पर तो सवाल उठ रहे थे अब मध्य प्रदेश के भिंड जिले में स्टिंग आॅपरेशन के जरिये रेत माफिया और पुलिस के गठजोड़ का खुलासा करने वाले एक निजी समाचार चैनल के पत्रकार संदीप शर्मा की ट्रक से कुचलकर हुई मौत कई सवाल खड़े कर रही है। पत्रकार संगठन से लेकर तमाम बुद्धिजीवी सभी दोषियों को दंडित करने की मांग कर रहे हैं।

मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार ने पत्रकार की मौत की जांच कराने की घोषणा कर आक्रोश को शांत करने की कोशिश जरूर की है लेकिन सवाल तो यह उठ रहा है कि आखिर पत्रकारों की हत्या का सिलसिला कब रुकेगा? कभी रुकेगा भी या नहीं। देश में अनेक माफिया कई वर्षों से सक्रिय हैं। शराब माफिया, बिल्डर माफिया, भू-माफिया आैर अवैध खनन माफिया। राज्यों में कोई भी जगह हो, माफिया सत्ता पर हावी हो ही जाता है।

यमुना हो या गंगा, नर्मदा हो या केन या फिर चम्बल नदी, भले ही खनन पर रोक है लेकिन क्या मजाल है कि रेत के अवैध खनन को कोई रोक दे। लोग तो मिट्टी के अवैध खनन से ही अरबों रुपये कमा रहे हैं। देश की मिट्टी से लेकर लोह अयस्क तक में अरबों रुपये के घोटाले हो चुके हैं। कौन नहीं जानता कि इस धंधे में राजनीतिज्ञों से लेकर पुलिस अफसरों ने कितने वारे-न्यारे किये हैं। अवैध खनन राजनीतिक और पुलिस संरक्षण के बिना हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि माफिया के वाहन चालक किसी को भी कुचलने, उस पर गोली चलाने से नहीं चूकते।

वर्ष 2016 में सिवान के पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या के बाद भी पत्रकारों की सुरक्षा का मसला जोर-शोर से उठा था। वरिष्ठ पत्रकार गाैरी लंकेश की बेंगलुरु में हत्या के बाद भी मीडिया जगत ने गहरी चिन्ता व्यक्त की थी। पिछले वर्ष त्रिपुरा की राजधानी अगरतला में स्थानीय टीवी न्यूज के पत्रकार शांतनु भौमिक की अपहरण के बाद हत्या कर दी गई थी जब वह पश्चिमी त्रिपुरा में इंडिजीनस फ्रंट ऑफ त्रिपुरा आैर सीपीएम के ट्राइबल विंग टीआरयूजीपी के बीच संघर्ष को कवर कर रहे थे। 2013 में मुरैना जिला में पदस्थ आईपीएस नरेन्द्र कुमार को होली से एक दिन पहले रेत माफिया के वाहन से कुचलकर मार डाला गया था।

2015 में भी नूराबाद क्षेत्र के आरक्षक धर्मेन्द्र सिंह चौहान ने रेत के डम्पर को रोकने की कोशिश की तो चालक ने उन्हें रौंद दिया था जिससे उनकी मौत हो गई थी। जहां तक मध्य प्रदेश का मामला है, सबसे ज्यादा अवैध खनन मुरैना, दतिया, ग्वालियर, शिवपुरी, सतना, कटनी, छत्तरपुर, दमोह, रायसेन, नरसिंहपुर आदि क्षेत्रों में होता है। ये वही इलाके हैं जहां से रसूखदार नेता निर्वाचित होते आए हैं।

मध्य प्रदेश हो या उत्तर प्रदेश या फिर कोई और राज्य, रेत आैर अन्य माफिया समानांतर सरकारें चला रहे हैं। अवैध खनन करने वालों के सांझीदार रहते हैं सत्ता में बैठे लोग। जब ऐसा है तो फिर पुलिस की क्या मजाल कि कोई कार्रवाई कर सके। ईमानदार पत्रकारिता हमेशा ही जोखिम भरी रही है। पत्रकारिता का एक घातक पक्ष भी सामने आ रहा है कि पत्रकार मात्र सनसनीखेज काम करना चाहते हैं।

कभी सम्पादक के नाम लिखे पाठकों के पत्र पर कार्रवाई हो जाती थी। पूरे का पूरा विभाग एक पत्र से हिल जाता था। आज पूरे पृष्ठ भी भर दो तब भी कार्रवाई नहीं होती। आज नेता और पत्रकार दोनों ही प्रभावहीन हो रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि पत्रकारिता के मापदंडों का ईमानदारी से पालन किया जाए और पत्रकारिता की गरिमा को बहाल किया जाए। ऐसा इसलिए जरूरी है कि पत्रकारों की जान रेत से सस्ती नहीं बन पाए। मध्य प्रदेश आैर बिहार सरकार को चाहिए कि पत्रकारों की मौत की निष्पक्ष जांच कराए और दोषियों को दंडित किया जाए।

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