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न्यायपालिका का बुलन्द ‘इकबाल’

स्वतन्त्र भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था के चार स्तम्भों में न्यायपालिका की प्रतिष्ठा आमजन की निगाह में सभी प्रकार के सन्देहों से परे निर्भीक व निष्पक्ष रही है।

स्वतन्त्र भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था के चार स्तम्भों में न्यायपालिका की प्रतिष्ठा आमजन की निगाह में सभी प्रकार के सन्देहों से परे निर्भीक व निष्पक्ष रही है। इसकी विश्वसनीयता के आगे इस व्यवस्था के भीतर लोगों द्वारा चुनी गई सरकारें भी न्याय पाने की कतार में खड़ी होती रहती हैं क्योंकि भारत का सर्वोच्च न्यायालय संविधान में सुनिश्चित किये गये लोगों के अधिकारों से लेकर सरकारों की संविधान के प्रति जवाबदेही नियत कराने का सबसे बड़ा प्रतिष्ठान है। यह संविधान की व्याख्या करने का सबसे ऊंचा संस्थान है और देश में संविधान के शासन का संरक्षक भी है। इसके समक्ष सत्ता की हैसियत भी एक वादी या प्रतिवादी की होती है और आम नागरिक की भी। इस संस्थान में बैठे हुए न्यायमूर्ति भारतीय संस्कृति की मान्यताओं के अनुसार ‘विक्रमादित्य’ के सिंहासन पर विराजमान रहते हैं जिनका धर्म केवल न्याय करना होता है। आजाद हिन्दोस्तान के इतिहास में एेसे कई मौके आये हैं जब न्यायालय ने सीधे सत्ता के सर्वोच्च प्रतिष्ठान को संविधान के प्रति जवाबदेह बनाते हुए ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ किया है।
हमारी न्यायप्रणाली प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों से लेकर संवैधानिक प्रावधानों की न्याय की तराजू पर हमेशा खरी उतरी है और इसने सिद्ध किया है कि भारत का लोकतन्त्र का सबसे बड़ा ‘सुरक्षा कवच’ संविधान ही है। यह सुरक्षा कवच भारत की राजनैतिक प्रशासनिक प्रणाली की पक्ष-विपक्ष के दलगत आग्रहों को हाशिये पर डालते हुए केवल संविधान के दायरे में ही इस प्रणाली में पैदा होने वाली विसंगतियों की न केवल समीक्षा करता है बल्कि उन पर निर्णायक व अन्तिम आख्यान भी देता है और आने वाले समय में एेसी विसंगतियों के पैदा होने पर अवरोध लगाता है। निश्चित रूप से केवल 18 महीने का इमरजेंसी का वह काल जरूर रहा है जिस दौरान न्यायपालिका को पंगु कर दिया गया था मगर इसके बाद और इससे पहले का इसका इतिहास स्वर्णिम रहा है। 
हम यह भी जानते हैं कि यदि 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी का उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट से लड़ा गया लोकसभा चुनाव अवैध करार देकर भारत में न्याय की सर्वोच्च नजीर पेश की थी और पूरी दुनिया में डंका बजा दिया था कि भारत केवल किताबों में ही दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र नहीं है बल्कि वास्तविक लोक व्यवहार में भी इसकी एेसी ही प्रतिष्ठा है। यह बात अलग है कि 12 जून के बाद 25 जून को तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने इस फैसले का असर खत्म करने के लिए उस संवैधानिक प्रावधान का इस्तेमाल केवल निजी हित में किया जो सकल राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित रखने के सन्दर्भ में था परन्तु 1977 में सत्ता में बदलाव आने पर एेसे संवैधानिक प्रावधान को ही संसद के माध्यम से समाप्त कर दिया गया जिससे भविष्य में कोई भी सत्ता पर आसीन राजनीतिज्ञ निजी हित को राष्ट्रीय हित से ऊपर समझने की गलती न कर सके। अतः भारत में संविधान का शासन स्थापित करने में विधायिका की भूमिका भी अहम रही है क्योंकि संविधान में संशोधन करने का इसे संविधान ने ही अधिकार दिया है। मगर इसके मूल व आधारभूत ढांचे के विपरीत यह भी कोई संशोधन नहीं कर सकती है। यह प्रावधान ही भारत की न्यायपालिका को ‘विक्रमादित्य’ का दर्जा देने के लिए काफी है क्योंकि भारत के संविधान की सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि इसमें ऊंचे से ऊंचे पद पर बैठा हुआ भी कोई व्यक्ति ‘निरापद’ नहीं  है यहां तक कि स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों से लेकर संविधान के संरक्षक कहे जाने वाले देश के राष्ट्रपति तक। मगर विधायिका अर्थात संसद की न्यायापालिका पर सर्वोच्चता बड़ी ही सुन्दर नक्काशी के साथ संविधान में नियत की गई है जिससे हर दौर में जनता की इच्छा संसद के माध्यम से सर्वोपरि रहे मगर संविधान के मूलभूत व आधारभूत ढांचे के बाहर। इसलिए हम देखते हैं कि आजादी के बाद से अब तक संविधान में एक सौ से ज्यादा संशोधन हो चुके हैं। मगर एेसे भी मौके आये जब सरकार द्वारा किये गये संशोधनों को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध करार दिया। अतः आसानी से समझा जा सकता है कि भारत में विधायिका और न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्रों की लक्ष्मण रेखा कहीं खिंचती है। यह लक्ष्मण रेखा किसी भी प्रकार की अराजक स्थितियों को पैदा होने से रोकने का ‘ब्रह्मास्त्र’ कहा जा सकता है।
पिछले दिनों राजधानी दिल्ली के मेयर या महापौर पद के चुनाव को लेकर जिस तरह सत्ताधारी आम आदमी पार्टी व भाजपा के बीच कशमकश चली उसे देखते हुए यह महत्वपूर्ण प्रश्न पैदा हुआ कि क्या उपराज्यपाल द्वारा मनोनीत किये गये पार्षद और सीधे जनता द्वारा चुने गये पार्षदों के अधिकार बराबर हैं? यदि एेसा होता तो फिर नगर निगम के चुनाव कराने की जरूरत ही क्यों हो। अतः सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने दो टूक फैसला दिया कि मनोनीत पार्षद मेयर या डिप्टी मेयर के चुनाव में हिस्सा नहीं ले सकते और न ही उन्हें स्थायी समिति के सदस्यों को चुनने का अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय ने 24 घंटे के भीतर महापौर चुनाव की अधिघोषणा करने का आदेश भी दिया। इसी प्रकार अडानी व हिंडनबर्ग मामले की जांच के लिए सरकार के इस प्रस्ताव को रद्द कर दिया कि जांच समिति के सदस्यों का नाम वह एक बन्द लिफाफे में देगी। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने यह फैसला इसीलिए लिया लगता है जिससे न्याय केवल हो ही नहीं बल्कि होता हुए भी दिखे। जिसके लिए पारदर्शिता जरूरी होती है। यही वजह है कि भारत में न्यायपालिका का इकबाल बुलन्दियां छूता रहता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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