बुलडोजर ‘अन्याय’ का गणित

बुलडोजर ‘अन्याय’ का गणित
Published on

भारतीय लोकतन्त्र की सबसे बड़ी पूंजी यह है कि यह संविधान से चलने वाला देश है। इस गणतन्त्र की दूसरी विशेषता यह है कि इसमें केन्द्र व राज्य स्तर पर अलग-अलग राजनैतिक दलों की सरकारें हो सकती हैं मगर प्रशासन संविधान का ही चलता है। हमारी पूरी व्यवस्था संविधान के प्रति उत्तरदायी इस प्रकार रहती है कि सत्ता पर काबिज राजनैतिक दलों की सरकारों को अपना हर काम संविधान की कसौटी पर खरा उतारना होता है। मगर जिस प्रकार कथित 'बुलडोजर न्याय' उत्तर प्रदेश से शुरू होकर अन्य राज्यों में फैला उससे यह आभास हुआ कि राजनैतिक दलों की सरकारें न्याय की परिभाषा को बदल कर नागरिकों के मूल संवैधानिक अधिकारों पर कुठाराघात कर सकती हैं। भारत में न्याय करने का अधिकार केवल अदालतों के पास सुरक्षित है। जब कोई व्यक्ति कानून तोड़ता है तो पुलिस उसे अदालत के सामने पेश करती है और अदालत पूरे मामले को कानून की कसौटी पर कसकर सजा या दंड का एेलान करती है। मगर उत्तर प्रदेश में एक नया प्रयोग किया गया और किसी आपराधिक मामले में संलग्न व्यक्ति को अदालत में पेश किये बिना ही उसका घर तोड़ डाला गया। तर्क यह दिया गया कि उसका मकान अवैध तरीके से बनाया गया था। यह तर्क लोकतान्त्रिक संवैधानिक व्यवस्था में सिवाय कुतर्क के कुछ और नहीं समझा जा सकता क्योंकि इसके पीछे शासन की नीयत सम्बन्धित व्यक्ति को 'तालिबानी हुक्म' सुनाने की है। इसे हम राज्य द्वारा किये जाने वाले अत्याचार की श्रेणी में ही डालेंगे।
प्रसन्नता की बात है कि देश की सबसे बड़ी अदालत के न्यायमूर्तियों ने एेसी शासकीय कार्रवाई की निन्दा की है और कहा है कि किसी मुल्जिम की बात तो दूर रही किसी मुजरिम (अपराधी) का भी घर बिना यथोचित कानूनी प्रक्रिया को पूरा किये बिना नहीं तोड़ा जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी बुलडाेजर कार्रवाई के विरोध में न्यायालय में दायर कुछ याचिकाओं की सुनवाई के दौरान आयी। मूल प्रश्न यह है कि क्या हम पिछली सदियों के किसी सुल्तानी राज में रह रहे हैं जो जनता द्वारा चुने गये मुख्यमन्त्री को बुलडोजर के खिताब से नवाजा जा रहा है। यह सरासर लोकतन्त्र की स्थापित विधि के न केवल विरुद्ध है बल्कि मानवीयता के खिलाफ है। परिवार के किसी एक व्यक्ति के मुल्जिम (आरोपी) हो जाने पर उसका पूरा परिवार किस प्रकार आरोपी हो सकता है जब तक कि कानूनी प्रक्रिया एेसा सिद्ध न कर दे।
भारतीय संविधान के अनुसार परिवार का प्रत्येक वयस्क सदस्य स्वयं में एक स्वतन्त्र इकाई है और उसके मौलिक व संवैधानिक अधिकार हैं। अतः किसी दूसरे के किये की सजा परिवार के अन्य सदस्यों को किस प्रकार दी जा सकती है। इस तालिबानी तकनीक को राजनैतिक रंग देकर भारत के विभिन्न धर्मों व जातियों में बंटे समाज में अस्थायी वाहवाही तो लूटी जा सकती है मगर इससे पूरे समाज के सामने कानून की परवाह न करने का सन्देश जाता है जो लोकतन्त्र में अराजकता का बीज ही बोने का काम करता है। राजनीति में बदले या प्रतिशोध के लिए कोई स्थान नहीं होता है। इसकी साफ वजह यह होती है कि लोकतन्त्र में किसी भी दल की सरकार केवल पांच साल के ​लिए ही गठित होती है। हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन की प्रबल संभावनाएं रहती हैं क्योंकि लोकतन्त्र की मालिक जनता हर पांच साल बाद उसके कार्यों का हिसाब-किताब मांगती है और फिर अपने तरीके से उसका लेखा-जोखा करती है। यदि प्रतिशोध के आधार पर राजनैतिक दलों की सरकारें राजनैतिक विरोधियों या अपने वोट बैंक से बाहर के समाज के प्रति बैरभाव से काम करेंगी तो हमारे लोकतन्त्र की बुनियाद ही हिलने लगेगी क्योंकि सत्ता में बैठने वाला हर व्यक्ति संविधान की यह कसम उठा कर ही आसन ग्रहण करता है कि वह बिना किसी राग- द्वेष के सब प्रकार के लोगों के साथ न्याय करेगा। इसलिए मामला पूरी तरह साफ है कि वह केवल कानून के अनुसार ही काम करेगा और संविधान की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आने देगा। मगर बुलडोजर कार्रवाई के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी संज्ञान थोड़ी देर से लिया है जबकि आरोपी लोगों के घर ध्वस्त करने का काम पिछले कई सालों से कई राज्यों में हो रहा है। किसी भी व्यक्ति का आवास या वाणिज्यिक ठिकाना ढहाने का काम स्थानीय नगर निकायों के जिम्मे तब होता है जबकि उसने नगरीय विकास या विस्तार से सम्बन्धित नियमों का उल्लंघन किया हो। ये नियम सर्वविदित होते हैं जिनका पालन हर नागरिक करने का प्रयास करता है फिर भी यदि निकाय प्रशासन को कानून के विरुद्ध जाने का अन्देशा होता है तो वह न्यायालय की शरण में जाकर अवैध निर्माण गिराने की दरख्वास्त लगाता है क्योंकि अदालत के पास ही न्याय करने का अधिकार होता है।
हम जानते हैं कि राजधानी दिल्ली में हर साल ही दसियों अवैध बस्तियां जन्म लेती हैं जिन्हें बाद में प्रशासन वैध घोषित कर देता है और सभी सामुदायिक सुविधाएं भी उपलब्ध कराता है। जहां तक सरकारी जमीन पर अतिक्रमण का सवाल है तो उसके लिए भी न्यायालय के आदेशों की जरूरत पड़ती है। इस सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने स्पष्ट किया है कि वे सरकारी जमीन पर अतिक्रमण के सख्त खिलाफ हैं चाहे उस पर किसी मन्दिर का निर्माण ही क्यों न किया गया हो। वैसे भारत में हर व्यक्ति व परिवार को अपने सिर पर छत डालने का अधिकार है। महानगरों में अनधिकृत कालोनियों के बसने की असली वजह यही है और बाद में प्रशासन द्वारा उन्हें वैध करार देने की वजह पूर्णतः मानवीय होती है। मगर किसी के बसे-बसाये घर के उजाड़ने को हम अमानवीयता की श्रेणी में ही डालेंगे बशर्ते कि उसके साथ वैयक्तिक आधार पर यह काम किया गया हो। लोकतन्त्र में जो लोग बुलडोजर चला कर शासन करना चाहते हैं वे मूलतः गलती पर होते हैं क्योंकि इस व्यवस्था में शासन सरकार के 'इकबाल' से चलता है।

Related Stories

No stories found.
logo
Punjab Kesari
www.punjabkesari.com