भारत धर्मप्राण देश होते हुए भी कभी भी सामाजिक तौर पर ‘मजहबी कट्टरपन’ का शिकार नहीं रहा है। इसकी असली वजह वह अर्थव्यवस्था रही है जो मजहब से ऊपर उठकर न केवल अपना ही धर्म प्रतिष्ठापित करती रही है बल्कि इसके जरिये हिन्दू व मुसलमानों को इंसानियत का पाठ भी पढ़ाती रही है। मुझे अच्छी तरह याद है कि वाजपेयी सरकार के जमाने में गृहमन्त्री पद पर आसीन लालकृष्ण अाडवाणी ने ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का शगूफा छोड़ा था मगर वह यह भूल गये थे कि पं. जवाहर लाल नेहरू ने बहुत पहले ही भारत के आजाद होते ही साफ कर दिया था कि भारत की सबसे बड़ी ताकत यही सामाजिक अर्थव्यवस्था है जो भारत के विभिन्न धर्मावलम्बियों को एक-दूसरे से कसकर जाेड़े रहती है। इसमें धर्म कहीं कोई मायने नहीं रखता बल्कि ‘इंसानियत’ का वह तार महत्व रखता है जो व्यक्ति को जीवन जीने का आधार प्रदान करता है। निश्चित रूप से पं. नेहरू ने इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नाम नहीं दिया था क्योंकि यह इंसानियत के दायरे को सीमित करके एक विशेष धर्म के आवरण में बांधने की कुचेष्टा थी। वस्तुतः भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद वह है जो हमें हिन्दू धर्म के तीर्थ स्थलों से लेकर मुसलमानों के भारत स्थित पवित्र धार्मिक स्थलों या पर्वों पर दिखाई देता है।
दिवाली के आने का बेसब्री से इन्तजार अगर कोई करता है तो वह छोटे कस्बों व गांवों के मुसलमान दस्तकार व कारीगर होते हैं क्योंकि उन्हें इस दौरान अपने साल भर का मेहनताना आराम से मिल जाता है। इसी प्रकार मीठी ईद के आने का इंतजार गरीब हिन्दू छोटे दुकानदार से लेकर फेरी वाले व फड़ लगाकर सामान बेचने वाले करते हैं क्योकि एेसे अवसरों पर उनकी बिक्री सीमाएं तोड़कर होती है। इसी प्रकार हिन्दुओं के तीज-त्यौहारों में काम आने वाले अधिकतम सामान का उत्पादन मुसलमान कारीगर ही करते हैं। यहां तक कि देव पूजा के लिए घरों में स्थापित किये जाने वाले छोटे–छोटे मन्दिरों तक का निर्माण मुसलमान बढ़ई या कारीगर करते हैं। हिन्दू स्त्रियों के सुहाग पुड़े से लेकर हाथों की चूिड़यां व मांग का सिन्दूर तक तैयार करने में मुसलमान कारीगरों की भूमिका ही प्रमुख रहती है मगर सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि हिन्दू मन्दिरों में चढ़ने वाले बताशे के प्रसाद का उत्पादन 90 प्रतिशत तक मुसलमान हलवाई कारीगर ही करते हैं। दूल्हे की शेरवानी या खूबसूरत पोशाक बनाने से लेकर दुल्हन के घाघरे से लेकर अन्य वस्त्रों की सिलाई का काम भी मुसलमान कारीगर ही बहुधा करते हैं। यहां तक कि जब हिन्दू दूल्हा अपनी दुल्हन को लेकर घोड़ी पर चढ़कर जाता है तो उस घोड़े या घोड़ी की रास पकड़ने वाला भी मुसलमान ‘सईस’ ही होता है। दूल्हे के आगे बैंड बजाते खुशी में झूमते जो धुन बजाते चलते हैं वे भी मुसलमान हुनरमन्द ही होते हैं। जरी-गोटे के काम से किसी भी शादी में चार चांद लगाने वाले कारीगर भी मुसलमान ही होते हैं। अयोध्या से लेकर वृन्दावन के मन्दिरों में देव पूजा के लिए ताजे पुष्पों की व्यवस्था करने के काम में भी आधे मुसलमान लगे रहते हैं। मन्दिरों में स्थापित देव प्रतिमाओं की शानदार पोशाकें सिलने का काम भी अधिकतर मुसलमान कारीगर ही करते हैं मगर इस सबके बावजूद उनका धर्म अलग है। वे इस्लाम के धर्मानुयायी होते हैं और मूर्तिपूजा में यकीन नहीं रखते किन्तु अर्थोपार्जन के लिए वे उस समाज की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं जिसका वे अंग हैं।
इसी प्रकार हिन्दू समाज के लोग मुस्लिम समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं और अपने धर्म को इसमें आड़े नहीं आने देते। यही भारत की मूल ताकत है जो इसे भारत बनाती है और एेलान करती है कि जिस पैसे के बूते पर समाज में अमीरी-गरीबी व इंसान-इंसान में भेद किया जाता है उसका तो कोई धर्म होता नहीं है। वह हिन्दू के हाथों से निकल कर जब मुसलमान के पास पहुंचता है तो न अजान देता है और न कलमा पढ़ता है। डा. राम मनोहर लोहिया ने भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की इसी बुनावट को ही ‘भारत’ का नाम दिया था। इसका प्रमाण नेहरू ने भारत की आजादी से पहले ही लन्दन के एक अखबार में यह लेख लिखकर दिया था कि भारत कभी भी गरीब मुल्क नहीं रहा। इसका सबूत यह था कि मुगल काल में भारत का सारा बड़ा व्यापार हिन्दुओं के हाथों में ही था और विश्व व्यापार में उसका हिस्सा 17वीं सदी तक 50 प्रतिशत के करीब था जो 1756 के आते–आते घटकर 25 प्रतिशत तब रह गया था जब लार्ड क्लाइव ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को पलाशी के मैदान में हराया था। फिरोजशाह तुगलक के जमाने में हालत यह थी कि जब उसने उस समय सोने–चांदी की प्रचलित मुद्रा को ताम्बे में परिवर्तित किया तो भारत के व्यापार जगत ने उन्हें स्वीकार नहीं किया था परिणामस्वरूप सभी ताम्बे के सिक्के उसे अपने शाही खजाने में वापस जमा करने पड़े थे। जाहिर तौर पर उसके राज में मुसलमान रियाया ने भी ताम्बे के सिक्कों को ठोकर मारी होगी। अतः सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कोई एेसा शब्द नहीं हो सकता जिसका जन्म भारत की आजादी के बाद ही हुआ हो। हिन्दू और मुसलमानों के आर्थिक हितों का समन्वीकरण कोई नई बात नहीं हो सकती। अतः जब लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति में धर्म के व्यक्तिगत मुद्दे को उठाने की चेष्टा की जाती है तो धर्म स्वयं पूछने लगता है कि बताओ मेरा असली स्वरूप क्या है ? दरअसल यह सुविधाभोगी राजनीति का वह दायरा है जिसमें सारे कर्मों को धर्म के चोले में छिपाया जा सकता है।