कश्मीर के हालात को हमेशा बेरोजगारी से जोड़ा जाता रहा है। जब 1990 के दशक में कश्मीरियों ने बंदूक उठाई तो राजनीतिज्ञ कहते थे कि बेरोजगारी से त्रस्त कश्मीरी युवा बंदूक उठाने को मजबूर हुआ है। जब कश्मीर के युवाओं और स्कूली बच्चों ने पत्थर उठाए तो कहा जाने लगा कि यह भटके हुए बच्चे हैं। कश्मीरी कौम झगड़ालू नहीं रही। लोग कहते हैं कि दो कश्मीरियों की लड़ाई एक-दूसरे पर कांगडिय़ों के फैंकने से अधिक कभी नहीं बढ़ पाई थी मगर पत्थरबाजों ने कश्मीर को अपना बंधक बना लिया। सुरक्षा बलों को इन्हें काबू करने के लिए पैलेट गन का इस्तेमाल करना पड़ा। किसी ने आंख गंवाई तो कोई घायल हुआ। कश्मीर में जब भी हालात बिगड़े, इसके लिए पाकिस्तान, पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजैंसी आईएसआई को जिम्मेदार ठहराया गया परन्तु षड्यंत्र में भीतरी ताकतें शामिल होती गईं।
कौन नहीं जानता कि कश्मीरी बच्चों के हाथों में पत्थर किसने पकड़वाए। हुर्रियत से जुड़े लोगों ने पाकिस्तानी पैसों के बल पर बच्चों को पत्थर फैंकने वाले दिहाड़ीदार मजदूर बना दिया। एनआईए की जांच में सब कुछ सामने आ गया। पत्थरबाजों को कौन पाल रहा है? उन्हें शह और पैसा कौन देता रहा, इस सबकी पोल खुल चुकी है। अलगाववादियों का तो एक सूत्रीय एजेंडा मानवाधिकारों के हनन का है। जब भी कुछ हो, दोष सुरक्षा बलों पर लगाया जाता रहा है। सुरक्षा बलों द्वारा धीरे-धीरे स्थिति को काबू में लाया जा रहा है लेकिन आतंकवादियों से मुठभेड़ों के दौरान लोगों द्वारा पत्थरबाजी की घटनाएं अब भी हो रही हैं। मुठभेड़ों के दौरान पत्थरबाजी के चलते आतंकवादी भी भागने में सफल हो जाते हैं और सुरक्षा बलों की कार्रवाई में आम लोग भी मारे जाते हैं। रक्षा विशेषज्ञ तो इस बात के पक्षधर हैं कि पत्थरबाजों के साथ ठीक उसी तरह निपटा जाना चाहिए जिस प्रकार आतंकियों से निपटा जाता है। जुम्मे के दिन कश्मीर का बच्चा-बच्चा जानता है कि हर हाल में पत्थरबाजी होगी, पत्थरबाजी कितने बजे होगी, यह भी सबको मालूम रहता है। श्रीनगर में जुम्मे की नमाज करीब 2 बजकर 10 मिनट पर खत्म होती है, इसके तुरन्त बाद पत्थरबाजी शुरू हो जाती रही है। फिलहाल यह सिलसिला भी कुछ थम गया है। नकाबपोश पत्थरबाजों ने खुद को और सुरक्षाबलों को बहुत नुक्सान पहुंचाया।
आतंकियों के समर्थन में गुमराह नौजवानों की ओर से की जा रही पत्थरबाजी को रोकने के लिए वार्ता के माध्यम से शांति स्थापित करने के लिए की गई पहल पर केन्द्र ने सकारात्मक रुख अपनाया है। केन्द्र सरकार ने उन युवाओं के ऊपर लगे मुकद्दमों को वापस लेने का फैसला किया जो बहकावे में आकर पहली बार पत्थरबाजी के लिए आए थे। इससे पूर्व जम्मू-कश्मीर में शांति बहाली के तौर-तरीकों पर आम लोगों की भावनाओं को जानने के लिए केन्द्र सरकार ने आईबी के पूर्व प्रमुख दिनेश्वर शर्मा को विशेष वार्ताकार नियुक्त कर कश्मीर भेजा है, जो समाज के विभिन्न वर्गों से बातचीत कर रहे हैं। कश्मीर के कई संगठनों ने भी पत्थरबाजों के खिलाफ दर्ज मुकद्दमों को वापस लेने की मांग की थी। कोई भी सरकार नहीं चाहेगी कि स्कूली बच्चों से लेकर युवाओं को जेलों में या सुधार गृहों में रखा जाए। युवा पीढ़ी को राष्ट्र की मुख्यधारा में लौटने का अवसर देना ही चाहिए। अंतत: जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने 4327 पत्थरबाजों के खिलाफ केस वापसी का आदेश दे दिया है। जम्मू-कश्मीर के डीजीपी एस.पी. वैद की अध्यक्षता वाली उच्चाधिकार कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में केस वापसी की सिफारिश की थी। यह फैसला महबूबा सरकार के सत्ता में आते ही शुरू की गई केस वापसी प्रक्रिया की बहाली है। इससे पहले 2008 से 2014 में युवाओं के खिलाफ दर्ज मुकद्दमे वापस लेने का आदेश दिया था।
सेना भी आतंक की डगर छोड़कर घर लौटने वाले युवाओं के प्रति नरम रुख अपना रही है। उनके पुनर्वास की व्यवस्था में भी मदद कर रही है। दूसरी ओर सुरक्षा बल ऑपरेशन ऑल आउट के तहत खूंखार आतंकियों को मौत के घाट उतार रहे हैं। राज्य सरकार ने मुख्यधारा में लौटने के इच्छुक आतंकियों के लिए हैल्पलाइन जारी की है जहां वे सम्पर्क कर सकते हैं। मां की पुकार सुनकर दो युवा तो बंदूक छोड़कर घर लौट आए, कुछ अन्य भी लौटने वाले हैं। सरकार की पहल से युवाओं की जान बचेगी और वह अपने परिवार, समाज और देश की सेवा कर सकेंगे। पत्थरबाजों पर केस वापसी एक सकारात्मक कदम तो है लेकिन बहके युवा फिर से किन्हीं अवांछित गतिविधियों में शामिल न हों, इस पर भी सरकार को निगरानी रखनी होगी। जिम्मेदारी अभिभावकों की भी है, उन्हें अपने बच्चों की काउंसङ्क्षलग तो करनी ही होगी और उन्हें रचनात्मक करने की प्रेरणा देनी होगी।