सुप्रीम कोर्ट ने केरल के सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर अपने फैसले पर पुनर्विचार याचिका की सुनवाई करने के बाद निर्णय सुरक्षित रख लिया है। सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगी पाबंदी हटा दी थी। इस फैसले को लेकर सवाल भी उठे, सुप्रीम कोर्ट की आलोचना भी हुई। फैसले के खिलाफ केरल में व्यापक प्रदर्शन भी हुए। परम्परा और आधुनिकता की जंग बना सबरीमला विवाद थमने का नाम ही नहीं ले रहा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जिन दो महिलाओं ने सबरीमला मंदिर जाने की हिम्मत जुटाई थी, उन पर हमले भी हुए। इन दो महिलाओं की मंदिर में एंट्री के बाद मंदिर को कुछ समय के लिए बन्द कर उसका शुद्धिकरण भी किया गया था। सबरीमला में प्रवेश करने वाली महिला कनक दुर्गा को उसके पति ने घर से बाहर निकाल दिया। इससे पहले उसकी अपनी सास के साथ इस मुद्दे पर झड़प भी हो गई थी कि उन्होंने स्वामी अयप्पा के दर्शन कर प्राचीन परम्परा को तोड़ा है। इसी झड़प में कनक दुर्गा को सिर पर चोट भी आई थी।
मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी उन्हें रोकना नहीं बल्कि बहिष्कार के समान है। इनके प्रवेश पर मंदिर के शुद्धिकरण की अवधारणा धुआछूत पर आधारित है। मंदिर तो सार्वजनिक होते हैं। सबरीमला मंदिर में महिलाओं की एंट्री काे लेकर टकराव, बन्द और हिंस भी हुई थी। इस सबके बीच नाटकीय ढंग से मंदिर का प्रबन्धन करने वाले त्रावणकोर देवासम बोर्ड ने यू टर्न लेते हुए कहा कि वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सम्मान करते हुए हर उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की अनुमति देगा। बोर्ड का कहना है कि शारीरिक अवस्था की वजह से किसी भी महिला को अलग नहीं किया जा सकता। समानता हमारे संविधान का प्रमुख आधार है। जनता को सम्मान के साथ शीर्ष अदालत का निर्णय स्वीकार करना चाहिए। बोर्ड ने अब अपने स्टैंड में परिवर्तन क्यों किया? क्या उसने यह फैसला राज्य सरकार के दबाव में आकर लिया या स्वयं के विवेक से, इसका पता तो बोर्ड के सदस्यों को ही होगा क्योंकि बोर्ड में राज्य सरकार के प्रतिनिधि भी हाेते हैं लेकिन बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध छोड़ विवेकपूर्ण कदम उठाया है।
एक लोकतांत्रिक समाज में इस तरह के भेदभाव को किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता। इससे पहले शनि शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित था परन्तु कुछ महिला संगठनों ने इसे कानूनी चुुनौती दी, तो वहां भी महिलाओं का प्रवेश सुनिश्चित हो सका। हिन्दू धर्म में अनेक परम्पराएं आैर रूढ़ियां ध्वस्त हुई हैं। समय के साथ हिन्दू धर्म में कुछ कुरीतियों को दूर किया गया जैसे सती प्रथा और कुछ अन्य। बाल विवाह की परम्परा भी अब काफी हद तक खत्म हो चुकी है लेकिन अपवाद स्वरूप कई क्षेत्रों में लोग आज भी बाल विवाह करवाते रहते हैं। महिलाओं की पवित्रता-अपवित्रता से जुड़ी अनेक प्राचीन मान्यताएं अब नर्क की कसौटी पर अर्थहीन हो चुकी हैं। वैज्ञानिक तथ्यों ने बहुत सी मान्यताओं को खत्म किया है।
हिन्दू धर्म से अनेक दृष्टिकोण संकीर्ण साबित हुए हैं। एक निजी इन्सान को विश्वास और उसकी अपनी आस्था, अपने घर की चारदीवारी में पालन करना और दूसरी तरफ सार्वजनिक स्थानों पर ‘विश्वास’ की ठेकेदारी करने में बहुत फर्क है। यद्यपि पुनर्विचार याचिकाएं डालने वाले अब भी सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का विरोध कर रहे हैं और उन्होंने अदालत में कहा है कि मंदिर में भगवान अयप्पा का अपना विशेष स्वरूप है, इसलिए महिलाओं की एंट्री मंदिर की गरिमा को चोट पहुंचाएगी। समाज को यह भी सोचना होगा कि संविधान पुरुषों और महिलाओं के बीच भेदभाव नहीं करता। धर्म में जरूरी अनुष्ठानों के प्रचलन और एक मंदिर में जरूरी अनुष्ठानों के प्रचलन का घालमेल नहीं किया जाना चाहिए। किसी एक मंदिर की परम्परा हिन्दू धर्म की अनिवार्य परम्परा नहीं हो सकती। सबरीमला मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जमकर सियासत भी हुई। सभी दलों ने इस फैसले पर ध्रुवीकरण की कोशिश की।
केरल की वामपंथी सरकार और विपक्ष भाजपा ने पूरी तरह खेमेबंदी कर डाली थी। फैसले के समर्थक और विरोध के बीच समाज को बांटने की कोशिशें की गईं। मंदिर बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान कर इस मुद्दे पर हो रही सियासत को विराम लगाने का काम किया है। धर्म और आस्था के मामले में बहुत सारे तर्कों का कोई औचित्य और अर्थ नहीं होता। जैसे-जैसे समाज का विकास होता है, सामाजिक और आर्थिक स्थितियां बदलती हैं, वैसे-वैसे आस्था से जुड़ी परम्पराओं को भी बदलने की जरूरत पड़ती है। पूजा-अर्चना में तो किसी के साथ कोई भेदभाव किया ही नहीं जाना चाहिए। वैसे भी बोर्ड ने स्वयं सुप्रीम कोर्ट में कोई पुनर्विचार याचिका नहीं डाली। उसने सुप्रीम कोर्ट के 28 सितम्बर के फैसले को लागू करने के लिए समय मांगा था। बोर्ड द्वारा सहमति दिए जाने से निश्चित ही विवाद का अन्त होगा।