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विपक्षी एकता की ‘पावर’ ?

लोकतन्त्र में राजनीतिक परिस्थितियां प्रायः बदलती रहती हैं। इसी क्रम में इस प्रणाली में सत्ता और विपक्ष के दल भी अदलते-बदलते रहते हैं।

लोकतन्त्र में राजनीतिक परिस्थितियां प्रायः बदलती रहती हैं। इसी क्रम में इस प्रणाली में सत्ता और विपक्ष के दल भी अदलते-बदलते रहते हैं। भारत चुकी दुनिया का सबसे बड़ा संसदीय लोकतन्त्र कहलाता है, अतः इसमें जो भी बदलाव आता है वह जनता जनार्दन की इच्छा के वशीभूत ही होता है। जनता ही है जो राजनीतिक दलों की भूमिका बदलती रहती है। इसलिए देश के सर्वाधिक वरिष्ठ राजनेता श्री शरद पवार जो कवायद कर रहे हैं वह लोकतन्त्र में और अधिक जिम्मेदारी पैदा करने व जवाबदेह बनाने के लिए कर रहे हैं। इस प्रणाली में सत्ता पक्ष-विपक्ष के माध्यम से आम जनता के प्रति जवाबदेह होता है। यदि विपक्ष बिखरा हुआ रहता है तो सत्ता पक्ष की जवाबदेही भी बिखर जाती है। जाहिर इससे पहले से ही सबल सत्ता पक्ष को और ताकत मिलती है। इससे लोकतन्त्र के बेलगाम होने का रास्ता भी परोक्ष रूप से खुलता है। 
 ऐसा अनुभव 1967 में समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया का हुआ था और उन्होंने गैर कांग्रेसवाद का नारा बुलन्द किया था। इस नारे के चलते कांग्रेस विरोधी सभी दल तब एक झंडे के नीचे जमा हो गये थे। संयोग से इस वर्ष हुए चुनावों में नौ राज्यों में कांग्रेस बहुमत से बाहर हो गई और लोकसभा में उसे केवल 18 अधिक सांसदों का बहुमत मिला था। गैर कांग्रेसवाद के नारे का असर यह हुआ कि नौ राज्यों में से पांच राज्यों में आपस में कट्टर विरोधी विचारधारा रखने वाले जनसंघ व कम्युनिस्ट एक मंच पर आ गये और राज्य सरकारों में शिरकत की। मगर यह प्रयोग ज्यादा सफल नहीं हो पाया और साल-डेढ़ साल के बाद ऐसी सरकारें टूट गईं। अब वक्त इस तरह बदला है कि श्री पवार गैर भाजपावाद का झंडा बुलन्द करके सभी गैर भाजपाई दलों को एक मंच पर लाना चाहते हैं। इस प्रयास के सफल होने का मन्त्र आज की परिस्थितियों में यही हो सकता है कि एक समान विचारधारा वाले दल ही मजबूत विपक्षी मंच के रूप में उभर सकते हैं। 
विपक्ष की मजबूती के लिए केवल गैर भाजपावाद जरूरी नहीं हो सकता क्योंकि इसका हश्र भी अन्ततः गैर कांग्रेसवाद के समान ही हो सकता है। श्री पवार के उत्साह का एक कारण प. बंगाल में भाजपा की पराजय भी हो सकता है क्योंकि इस प्रदेश में भाजपा ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। मगर इससे अन्य विशेषकर उत्तर भारतीय व पश्चिमी राज्यों में भाजपा की ताकत को कम करके नहीं तोला जा सकता। हो सकता है कि श्री पवार के प्रयासों के पीछे यह भी एक कारण हो। मगर वर्तमान में विपक्ष के सामने एक दिक्कत नहीं बल्कि कई दिक्कतें हैं। मसलन ओडिशा में बीजू जनता दल विपक्षी दल होने के बावजूद सुविधा की राजनीति करने में मशगूल रहता है। यही हालत आंध्र प्रदेश की वाईआसआर कांग्रेस व तेलंगाना की तेलंगाना राष्ट्रीय समिति का है।
 उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में यहां के प्रमुख क्षत्रीय दलों बसपा व सपा की राजनीति के बारे में कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। ये दोनों दल अपनी गोटियां इस तरह बिछाते हैं कि किसी भी सूरत में कांग्रेस पार्टी अपनी खोई हुई जमीन प्राप्त न कर सके। इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं और  सत्ता और विपक्ष का भेद भी भुला सकते हैं। बेशक केन्द्र में 1996 के बाद से साझा सरकारों का दौर शुरू हुआ  मगर इसकी विशेषता यह रही कि साझा सरकारें बिना कांग्रेस या भाजपा की मदद से नहीं चल सकी। 1996 से 98 तक देश में जिस राष्ट्रीय मोर्चा सरकार का गठन हुआ वह गैर भाजपावाद के चलते ही हुआ मगर ऐसी सरकार को कांग्रेस की बैसाखी की जरूरत पड़ी। इसके बाद 1998 से भाजपा ने अपने नेतृत्व में 2004 तक सरकार चलाई जिसे वाजपेयी सरकार कहा जाता है। इसके बाद दस वर्ष तक कांग्रेस के नेतृत्व में मनमोहन सिंह सरकार गैर भाजपावाद के नारे पर ही चली। 
मगर 2014 में राजनीतिक चित्र पूरी तरह बदल गया और भाजपा अपने बूते पर सरकार बनाने में सफल रही। 2019 में भी यही स्थिति बनी।  मगर लोकतन्त्र जड़ता बर्दाश्त नहीं करता है इसलिए राज्यों के चुनावों में हमें मिश्रित परिणाम देखने को मिले और उन्हीं से प्रभावित होकर श्री शरद पवार विपक्षी एकता का प्रयास करते मालूम पड़ते हैं परन्तु बिना विचाधारा की समानता के विपक्षी एकता किसी भंगुर पदार्थ की मानिन्द ही साबित होती रही है इसलिए श्री पवार को यह विचार करना चाहिए कि वैचारिक समानता के आधार पर ही एकता का प्रयास आगे बढ़ाया जाये।  इसका सबसे सुगम मार्ग यह हो सकता है कि कांग्रेस छोड़ कर अलग हुई सभी पार्टियां पुनः एक मंच पर आकर सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने के बारे में सोचें। क्षेत्रीय दलों के गठबन्धन को आगे बढ़ा कर इसे पंचमेली राष्ट्रीय स्वरूप देने को अवसरवादी गठबन्धन से नवाजने में कोई राजनीतिक असुविधा नहीं होगी। भाजपा अब राष्ट्रीय स्तर की मजबूत पार्टी है और इसका मुकाबला भी राष्ट्रीय स्तर का विकल्प देकर ही किया जा सकता है। लोकतन्त्र की सफलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि इसमें ठाेस विकल्पों की जनता के सामने कमी नहीं रहनी चाहिए। श्री पवार को ऐसे ही ठोस विकल्प की तलाश करनी चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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