यह सच है कि हमारे देश में अगर खेल जगत की बात की जाए तो क्रिकेट ने सचमुच एक क्रांति पैदा कर दी है। इसके पीछे एक बड़ा कारण क्रिकेट के प्रति खिलाडि़यों के साथ-साथ देशवासियों की दीवानगी भी है। आज यह चर्चा इसलिए कर रही हूं कि देश की बेटियों ने क्रिकेट जगत में पिछले एक दशक से ऐसी ही सफलताओं की कहानी लिखी है जो 1983 में कपिल देव के नेतृत्व में भारतीय टीम ने विश्वकप विजय से जुड़ी है। विश्वकप में देश की बेटियां पूरी दुनिया में हमेशा चर्चित रहती हैं। मुझे यह बात बहुत खुशगवार लग रही है कि जो रुपया-पैसा पुरुष क्रिकेटरों को खेलने के बदले में मिलता था अब उतना ही पैसा देश की महिला टीम को भी मिलेगा अर्थात महिला क्रिकेटरों और पुरुष क्रिकेटरों की मैच फीस बराबर-बराबर कर दी गई है। इस कदम का जितना स्वागत किया जाए वह कम है।
यह कदम बहुत पहले से उठा लिया जाना चाहिए था लेकिन भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अर्थात बीसीसीआई के सचिव जब से जय शाह बने हैं वह इस वादे को लेकर आगे बढ़ रहे थे कि महिला क्रिकेटरों को भी पुरुष क्रिकेटरों के बराबर मैच फीस दी जानी चाहिए। बीसीसीआई का नया कांट्रैक्ट सिस्टम अब सबके लिए एक समान रहेगा। क्योंकि कल तक महिला क्रिकेट के नाम आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, इंग्लैंड की टीमें ही नजर आती थीं लेकिन अब जब से भारत ने यह चैलेंज स्वीकार किया तो बेटियों ने अंतर्राष्ट्रीय टीमों को कड़ी चुनौती दी और यह लैंगिक असमानता भी दूर हो रही है क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में भारत ऐसा करने वाला दूसरा देश है। इससे पहले न्यूजीलैंड ऐसा कर चुका है। मैं व्यक्तिगत रूप से जय शाह का शुक्रिया अदा करना चाहूंगी जिन्होंने महिला क्रिकेटरों को फीस के मामले में पुरुष क्रिकेटरों के बराबर ला खड़ा किया। इस लैंगिक असमानता को खत्म करने के शाह साहब सूत्रधार रहे हैं और उनको बधाई देना तो बनता है। मुझे याद है कि एक बार एक वनडे मुकाबले के दौरान उन्होंने कहा था कि महिला क्रिकेटरों को पुरुषों के बराबर फीस मिलनी चाहिए। उन्होंने अपनी इस बात को निभा दिया। ऐसे क्रिकेट प्रशासकों और उनकी वर्किंग को सलाम है। आज की तारीख में बीसीसीआई के चीफ रोजर बिन्नी बन चुके हैं जो कि मेरे लाइफ पार्टनर अश्विनी जी के बड़े अच्छे मित्र रहे हैं, मैं शाह साहब की इस पहल को अंजाम तक पहुंचाने के लिए उनके योगदान को भी श्रेय देती हूं। कुल मिलाकर महिलाएं सिर्फ क्रिकेट में ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी बहुत तरक्की कर रही हैं और इसीलिए इस पग की हर तरफ सराहना की जा रही है।
मुझे खुशी इस बात की है कि हॉकी, फुटबाल और एथलेटिक्स के साथ-साथ बैडमिंटन, टीटी, टेनिस, मुक्केबाजी में ऐसी-ऐसी लड़कियां निकलकर आ रही हैं जो बहुत ही छोटे-छोटे शहरों और गांव से जुड़ी हैं। ओलंपिक में जांबाज प्रदर्शन करने वाली भारतीय हॉकी टीम 7 से ज्यादा लड़कियां केवल हरियाणा से जुड़ी थीं और सब की सब बहुत ही मध्यम वर्गीय घरों से थीं। देश की बेटियां जब इतना अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं तो उन्हें प्रमोट करना सरकारों का फर्ज है और खुशी इस बात की है कि मोदी सरकार ने सचमुच उन्हें वह सम्मान दिया जिनकी वह हकदार थीं।
महिलाएं सड़क से लेकर संसद तक, ग्राम पंचायत से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मंच तक सरकारी दफ्तरों से लेकर यूएनओ तक हर तरफ धूम मचा रही हैं और सब बेटियां भारत की हैं जो अपने आप में एक बहुत बड़ा उदाहरण स्थापित कर चुकी हैं। महिलाएं बैट्री रिक्शा से लेकर ऑटो , टैक्सी, मेट्रो, रेल, विमान, लड़ाकू विमान और अंतरिक्ष तक टहलकदमी कर चुकी हैं। ऐसे में उनके साथ अगर लैंगिक असमानता की बात आ रही हो तो वह खत्म हुई है यह एक गौरव की बात है। महिला सशक्तिकरण के लिए बहुत कुछ किया जा रहा है। देश की बेटियां अब अबला नहीं बल्कि पुरुषों की तरह शक्तिशाली हैं। राजनीति में भी महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की बात हो रही है तो सचमुच जिस दिन यह फलीभूत हो जाएगा उस दिन देश की राजनीति की एक अलग ही दिशा नजर आएगी। सीबीएसई की 10वीं-12वीं या और आगे पीएचडी तक की बात करें या अन्य कंपीटीशन की बात करें, चाहे मेडिकल जगत की बात करें देश की बेटियों ने परचम सदा ऊंचा ही रखा है। इसी देश में बेटा पाने की चाह में कभी बेटियों को गर्भ में ही मार दिया जाता था लेकिन अब लाेग जागरूक हो गए हैं। देश की बेटी अब दुर्गा भवानी और चंडी बन चुकी है। उसे अबला नहीं कहा सा सकता। नारी की यह अवधारणा बदल दी जानी चाहिए। अबला की जगह उसे शक्ति नाम दिया जाना चाहिए। बात महिला क्रिकेटरों से शुरू हुई थी बिल्क जीवन के किसी भी क्षेत्र में थोड़ा बहुत लैंगिक असमानता बाकी है तो उसे भी खत्म किया जाना चाहिए। यही समय की मांग है और सरकार इस दिशा में तेजी से काम कर रही है इसलिए इसका स्वागत भी किया जाना चाहिए।