स्व. रामविलास पासवान की लोकजन शक्ति पार्टी में चाचा-भतीजे के बीच जो युद्ध चल रहा है वह राजनीति के खानदानी जायदाद बन जाने के फूहड़ प्रदर्शन के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। भारत का यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि पिछले तीस साल से देश में जिस प्रकार की राजनीति का उदय हुआ है उसे ‘नव राजवंश’ पद्धति का प्रतिष्ठान ही कहा जायेगा। इसके साथ ही जिस प्रकार इन नये राजवंशों ने जातिगत आधार पर अपना वोट बैंक बना कर राजनीतिक कद तैयार किया है उससे सियासत का लगातार कबायलीकरण भी हुआ है। अतः ऐसे राजनीतिक दलों में जब विरासत की लड़ाई चलती है तो उसका स्वरूप पूर्णतः कबीलों की लड़ाई की तर्ज पर नजर आता है। लोकतन्त्र में दरअसल इस प्रकार की राजनीति एक बीमारी है जिसका निराकरण केवल मतदाता ही कर सकते हैं, बशर्ते उनके सामने कोई ठोस विकल्प हो।
गौर से देखें तो भारत में कबायली राजनीति की शुरूआत 1989 के बाद कांग्रेस के पतन के साथ शुरू हुई जब स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने 11 महीने के प्रधानमन्त्रित्व काल में मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया। मंडल कमीशन के ‘कमंडल’ से जो ‘जन्तर’ निकला वह भारतीय समाज को जातिगत आधार पर बांटने वाला था जबकि इसे नाम ‘सामाजिक न्याय’ का दिया जा रहा था। इसके बहाने उन राजनीतिज्ञों की चांदी हो गई जो सामाजिक न्याय के नाम पर अपनी जातिगत चौधराहट जमाने का रास्ता ढूंढ रहे थे। अतः मंडल कमीशन की छत्रछाया में विभिन्न राज्यों में खास कर उत्तर भारत के राज्यों में जातिगत आधार पर दलों का गठन होता गया और इनके मुखियाओं का स्वरूप कबीलों के ‘सरदारों’ की तरह होता गया। ऐसे ही कबीले (पासवान जाति ) की पार्टी के मुखिया स्व. पासवान जनता दल से निकल कर बने। बहुत स्वाभाविक था कि उनकी विगत वर्ष अक्तूबर महीने में हुई मृत्यु के बाद उनकी विरासत उनके पुत्र चिराग पासवान के पास ही जाती। मगर यह उनके छोटे भाई पशुपति पारस को सहन नहीं हुआ और उन्होंने अपने भतीजे के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया। पासवान जी के रहते 2019 में लोकजन शक्ति पार्टी के सर्वाधिक छह सांसद जीत कर आये। उनमें से पांच ने श्री पारस का समर्थन कर दिया। चिराग स्वयं भी लोकसभा सांसद हैं और पासवान जी की मृत्यु के बाद अपनी पार्टी के संसदीय दल के नेता का ताज भी उनके सीर पर ही था। पशुपति पारस ने सबसे पहले वही ताज छीना जिससे केन्द्रीय मन्त्रिमंडल में यदि कोई विस्तार होता है या पासवान के खाली मन्त्री पद पर कोई नियुक्ति होती है तो उनका नम्बर आ सके। इसकी एक वजह दूसरी भी दिखाई पड़ती है कि पशुपति के सुपुत्र प्रिंस पासवान भी लोकसभा के सदस्य हैं। स्व. रामविलास और पारस की नई पीढ़ी के बीच वैसे घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं हैं जैसे पासवान के अपने दोनों भाइयों स्व. रामचन्द्र पासवान व पारस के साथ थे। पासवान अपने दोनों छोटे भाइयों को पुत्रों के समान मानते थे और अपनी पार्टी में अपने परिवार का वर्चस्व रखते थे।
मगर सवाल यह है कि पशुपति पारस ने जिस तरह लोकजन शक्ति पार्टी को हथियाने की गोटियां बिछायी हैं क्या उसमें वह सफल होंगे और क्या जमीनी स्तर पर उन्हें इस पार्टी के कार्यकर्ताओं का समर्थन मिलेगा? भारत के राजनीतिक इतिहास में ऐसे भी प्रकरणों की कमी नहीं है। स्वतन्त्र भारत में ऐसा पहला प्रमुख प्रकरण 1970 के करीब हुआ था जब किसान नेता स्व. चौधरी चरण सिंह ने अपनी पार्टी ‘भारतीय क्रान्ति दल’ को राष्ट्रीय स्वरूप देने की ललक में इसका अध्यक्ष राज्यसभा सांसद रहे व लोकसभा सदस्य स्व. मोहन सिंह ओबेराय को बना दिया था। स्व. ओबेराय ओबेराय होटल्स समूह के मालिक थे और पंजाब से थे। उन्होंने चौधरी साहब से मतभेद होने पर तथा कुछ अन्य राजनीतिक लाभ के लिए भारतीय क्रान्ति दल से ही चौधरी साहब को निकाल दिया था। यह अपने आप में उस समय बहुत बड़ा मजाक समझा गया था। बाद में चौधरी साहब ने बता भी दिया कि जिधर वह खड़े हो जायेंगे वही क्रान्ति दल बन जायेगा। इसी प्रकार कांग्रेस पार्टी से इंदिरा जी को दो बार ( 1969 व 1977) कांग्रेस पार्टी से निकाला गया मगर जिधर इंदिरा जी खड़ी हो गईं वहीं कांग्रेस बन गई। इसकी वजह इंदिरा जी नहीं बल्कि आम लोग थे। आम लोग स्वयं को चरण सिंह व इंदिरा गांधी से जोड़ कर देखते थे। चिराग को यही सिद्ध करना होगा कि बिहार की पासवान जनता क्या उन्हें अपना रहनुमा मानती है, क्योंकि पारस अब उनसे लोकजन शक्ति पार्टी का अध्यक्ष पद छीनने की भी व्यूह रचना कर रहे हैं। उनके साथ फिलहाल उनकी मां रीना पासवान हैं। रीना जी भी पासवान की छाया की तरह उनके हर दौरे व कार्यक्रम में रहती थीं। अतः देखना केवल यह होगा कि लोकजन शक्ति पार्टी की कमान अपने हाथों में लेने के बावजूद श्री पारस क्या लोगों में स्व. पासवान की विरासत का दावेदार होने का भाव जगा सकते हैं। चिराग युवा हैं और उनका राजनीति करने का तरीका भी अलग है। यह हकीकत और पक्की लकीर है कि 2014 के चुनावों से पहले स्व. पासवान एनडीए में शामिल होने के मुद्दे पर असमंजस में थे। तब चिराग ने ही उन्हें एनडीए के साथ जाने के लिए मनाया था। मगर वक्त किस तरह पलटी मारता है कि आज उन पर ही पारस आरोप लगा रहे हैं कि वह एनडीए से दूर जा रहे हैं औऱ बिहार चुनाव में उन्होंने गलत भूमिका अदा की। शायद यह कहना गलत नहीं होगा कि यदि चिराग बिहार चुनावों में नीतीश बाबू के खिलाफ न लड़े होते तो भाजपा काे इस राज्य में सफलता न मिली होती। खैर ये सब विषयगत मूल्यांकन की बाते हैं। आने वाला वक्त ही तय करेगा कि लोकजन शक्ति पार्टी का ‘लोक’ चिराग को माथे पर बैठायेगा अथवा पारस को।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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