निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है या नहीं, इस पर सुप्रीम कोर्ट की 9 सदस्यीय पीठ सुनवाई कर रही है। निजता के अधिकार का मुद्दा काफी गम्भीर है। आजादी से पहले भी निजता के अधिकारों की वकालत जोरदार ढंग से होती रही है और सरकार बिना किसी ठोस कारण और कानूनी अनुमति के उसे भेद नहीं सकती। फिर 1925 में महात्मा गांधी की सदस्यता वाली समिति ने कामनवेल्थ ऑफ इण्डिया बिल को बनाते समय इसी बात का उल्लेख किया था। मार्च 1947 में भी बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने निजता के अधिकार का विस्तार से उल्लेख करते हुए कहा कि लोगों को अपनी निजता का अधिकार है। बाबा साहेब ने इस अधिकार के उल्लंघन को रोकने के लिए कई मापदण्ड तय करने की वकालत की थी, मगर उनका यह भी कहना था कि अगर किसी कारणवश उसे भेदना सरकार के लिए जरूरी हो तो सब कुछ न्यायालय की कड़ी देखरेख में होना चाहिए। 1895 में लाए गए भारतीय संविधान बिल में भी निजता के अधिकार की वकालत सशक्त तरीके से की गई थी। निजता के अधिकार का पूरा मामला आधार कार्ड के खिलाफ दायर याचिका की वजह से सामने आया क्योंकि लोगों को लगता है कि यह पूरी प्रक्रिया निजता के अधिकारों का अतिक्रमण है।
जाहिर है कि लोगों की इस तरह की बिल्कुल ही निजी जानकारी इकठ्ठा करने के लिए किसी भी तरह से कानूनी अनुमोदन नहीं कराया गया है। निजता का अधिकार पहले से ही है मगर सुप्रीम कोर्ट इसे परिभाषित कर देता है तो फिर आधार कार्ड जैसी प्रक्रिया खटाई में पड़ सकती है। केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की पीठ के आगे स्पष्ट किया कि निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना जा सकता है लेकिन निजता के हर पहलू को मूलभूत अधिकार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। निजता का अधिकार स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा है लेकिन इसके पहलू अलग-अलग हैं। सरकार का यह तर्क उसके पहले के रुख के विपरीत है। 2015 में केन्द्र ने कहा कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं क्योंकि संविधान के तीसरे खण्ड में इसकी अलग व्याख्या नहीं की गई है। न्यायालय के ही अलग-अलग फैसलों से स्थिति काफी दुविधापूर्ण और ऊहापोह वाली बन गई है। कभी संवैधानिक पीठों ने कहा कि यह मौलिक अधिकार नहीं है तो कभी इसे मौलिक अधिकार माना गया। 1954 और 1963 में सुप्रीम कोर्ट की अलग-अलग खण्डपीठों ने अपने फैसलों में कहा था कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं। बुद्धिजीवियों का एक वर्ग मानता है कि आज पूरा लोकतंत्र दाव पर है। आपातकाल में नागरिकों के निजता के अधिकारों का हनन हुआ था। 1975-76 में आपातकाल लगाते वक्त सत्ता ने कहा था कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों का कोई मतलब नहीं है।
केवल यही दौर था जब नागरिकों की निजता पर सवाल उठा था। नागरिकों की निजता को सर्वोच्च मानते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसकी रक्षा की और आज 2017 में केन्द्र सरकार लोगों की निजता के अधिकार पर सवाल उठा रही है। आधार कार्ड को चुनौती देने वाले मानते हैं कि लोगों के बैंक खातों का ब्यौरा, स्वास्थ्य का ब्यौरा, जिन्दगी का हर ब्यौरा राज्य के पास क्यों होना चाहिए। क्या हमें राज्य की सुविधा हासिल करने के लिए आधार कार्ड और यूआईडीए के एक नम्बर का मोहताज होना चाहिए? आखिर इतने बड़े पैमाने पर नागरिकों की निजता पर हमला क्यों बोला जा रहा है। देश की सर्वोच्च अदालत ने साफ शब्दों में कहा था कि आधार न होने की वजह से किसी को भी किसी भी प्रकार की सुविधाओं से वंचित नहीं किया जा सकता। फिर भी सरकार ने नागरिकों में डर का वातावरण पैदा कर दिया कि बिना आधार के रसोई गैस सब्सिडी से वंचित हो जाएंगे। मतदाता पहचान पत्र को आधार कार्ड से जोडऩा जरूरी है, बैंक खाते के लिए भी आधार जरूरी है। जितने काम और योजनाएं हैं, सबके लिए आधार अनिवार्य बना दिया गया है। सरकार आधार को भ्रष्टाचार से मुक्ति का आधार मानती है। उसका कहना है कि सब्सिडी में भारी हेराफेरी होती रही है। योजनाओं में नागरिकों के बारे में पुख्ता जानकारी बहुत जरूरी है।
दूसरी तरफ तर्क यह भी दिए जा रहे हैं कि कोई व्यक्ति घर में क्या करता है, यह निजता का अधिकार है लेकिन बच्चों को स्कूल भेजना या नहीं भेजना स्वतंत्रता के अधिकार के तहत निजता नहीं है। जब आप बैंक लोन लेने जाते हैं तो आपको अपनी वित्तीय स्थिति की तमाम जानकारियां देनी पड़ती हैं। आप यह नहीं कह सकते कि मेरा निजता का अधिकार है और मैं यह सूचनाएं नहीं दूंगा। अगर निजता को मौलिक अधिकार माना गया तो व्यवस्था चलाना मुश्किल होगा। भविष्य में कोई भी निजता का हवाला देकर किसी जरूरी सरकारी काम के लिए फिंगर प्रिन्ट, फोटो या कोई जानकारी देने से मना कर सकता है। सुनवाई के दौरान पीठ के सदस्य जस्टिस डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने अहम टिप्पणी की कि निजता के अधिकार को हर मामले में अलग-अलग देखना होगा। हर सरकारी कार्रवाई को निजता के नाम पर रोका नहीं जा सकता। इस अधिकार के दायरे तय किए जाने चाहिएं। देखना है 9 सदस्यीय पीठ क्या फैसला करती है।