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सत्य की खोज और चन्द्रचूड

न्यायमूर्ति वाई.वी.चन्द्रचूड ने यह कह कर कि सत्य को सत्ता के समक्ष उजागर करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य होता है, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की उसी उक्ति को प्रति स्थापित किया है कि ‘जहां सत्य है वहीं ईश्वर है’।

न्यायमूर्ति वाई.वी.चन्द्रचूड ने यह कह कर कि सत्य को सत्ता के समक्ष उजागर करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य होता है, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की उसी उक्ति को प्रति स्थापित किया है कि ‘जहां सत्य है वहीं ईश्वर है’। युगपुरुष बापू ने इसके साथ एक और उक्ति को भी जोड़ा था कि ‘जहां अहिंसा है वहीं ईश्वर है’। अतः यह अकारण नहीं है कि भारतीय संविधान की बुनियाद अहिंसक रास्तों के उपयोग से ही नागरिक अधिकारों को प्राप्त करने की रखी गई और इस देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था की बनावट में शुरू (चुनावों) से लेकर अंत (सरकार बनाने तक) ​तक हिंसा के किसी भी रास्ते को अपनाने को अवैध घोषित किया गया। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री चन्द्रचूड ने जिस सत्य को उजागर करने की बात कही है वह भी भारतीय संसदीय प्रणाली में अन्तर्निहित है जिसके तहत चुने हुए सदनों के सदस्यों को विशेषाधिकार दिये गये हैं। खास कर विपक्ष में बैठे सांसदों और विधायकों का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वे इन विशेषाधिकारों का प्रयोग करते हुए निडर व निर्भय होकर जमीनी सच को सत्ता के सामने इस प्रकार प्रकट करें कि उसमें आम जनता के हृदय  में बसा हुआ सच प्रकट हो परन्तु न्यायामूर्ति चन्द्रचूड ने इस तरफ भी आगागह करते हुए कहा कि सत्य कभी-कभी विचारधाराओं के कलेवर में भी छुप जाता है और वह भी अंतिम सत्य नहीं होता जिसे सत्ता अपने तरीके से पेश करती है। इसलिए जरूरी है कि समाज के बुद्धिजीवी वर्ग को बेबाकी के साथ सत्य का उद्घाटन करना चाहिए परन्तु ये बुद्धिजीवी भी कभी-कभी वैचारिक खेमों में बंटे होते हैं, अतः सामान्य नागरिकों को सच को उजागर करने में हिचकिचाना नहीं चाहिए।
 न्यायामूर्ति ने भारत की न्यायपालिका की भूमिका को इस सम्बन्ध में अत्यन्त संजीदा माना है और इसे ‘सत्य आयोग’ तक की संज्ञा दी है। लोकतन्त्र में न्यायपालिका की भूमिका मूल रूप से हमारे संविधान निर्माताओं ने इसी रूप में प्रतिष्ठापित भी की है क्योंकि उन्होंने इसे सरकार का अंग न बना कर एेसा स्वतन्त्र व निष्पक्ष और निर्भीक संस्थान बनाया कि यह शासन करने वाली किसी भी सरकार को कठघरे में खड़ा करके उससे सच उगलवा सके और केवल संविधान के अनुसार सत्य का रास्ता अपनाने के लिए मजबूर कर सके। मगर समाज के सन्दर्भ में भी यह बहुत जरूरी है कि प्रत्येक व्यक्ति सत्य का निरूपण करना केवल अपना अधिकार ही न समझे बल्कि कर्त्तव्य भी समझे  जिससे सत्ता ‘सत्यबोध’ से आवेशित होकर अपना चेहरा आइने में देख सके। भारत का लोकतन्त्र चुकि चुनाव प्रणाली की पवित्र बुनियाद से शुरू होकर सत्ता के शिखर तक जाता है अतः बहुत आवश्यक है कि सत्य की शुचिता हर चरण में अपना पक्का स्थान बनाती हुई चले जिससे सत्ता केवल सत्य की छाया में ही शासन पद्धति को आकार दे सके। इसके लिए जरूरी है कि विभिन्न लोकतान्त्रिक संस्थान निर्भय होकर अपना काम करें और पत्रकारिता की स्वतन्त्रता किसी भी तरह के प्रभाव या दबावों से मुक्त हो। 
न्यायमूर्ति चन्द्रचूड ने चेतावनी दी है कि सत्ता जिस सत्य को निरूपित करना चाहती है उसमें असत्य और गल्तियों का समावेश हो सकता है, अतः कोई भी व्यक्ति सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा दिखाये गये या बताये गये सत्य पर निर्भर नहीं रह सकता है। अतः समाज में इसकी परख को कसौटी बनाये जाने की जरूरत मौजूद रहती है। सवाल यह है कि भारत का उद्घोष स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद ‘सत्यमेव जयते’ क्यों रहा? इसका मूल कारण यह था कि आजादी से पहले भारत अंग्रेजों के साम्राज्यवादी शासन का ऐसा अंग था जिसमें सत्य का फैसला ब्रिटेन की महारानी या सम्राट करते थे। ऐसी शासन व्यवस्था में सच को जनता के ऊपर इस प्रकार थोपा जाता था कि उसकी सच की अवधारणा हाशिये पर पड़ी रहे। मगर भारत में लोकतान्त्रिक व्यवस्था अपनाये जाने के बाद जब आम नागरिक को एक वोट के माध्यम से अपनी मनपसन्द सरकार सत्ता में बैठाने का अधिकार दिया गया तो सत्ता का समीकरण उलट गया और आम नागरिक इस मुल्क की सरकार का मालिक घोषित कर दिया गया अतः सत्य की प्रतिष्ठापना को उसके अधिकारों से जोड़ दिया गया। इसी वजह से न्यायमूर्ति चन्द्रचूड ने कहा है कि सत्य को उजागर करना प्रत्येक नागरिक का अधिकार व कर्त्तव्य दोनों हैं। 
वर्तमान सन्दर्भों में हमें सत्य का आंकलन इस आधार पर करना होगा कि जो कुछ भी सत्य रूप में हमारे सामने लाया जाता है उसकी परछाई समाज में किस रूप में  दिखाई पड़ती है? सत्य कभी एकांगी रूप में अपनी छाप नहीं छोड़ता है और जो सत्य एकांगी होता है वह पूरा सच नहीं होता है क्योंकि सत्य का अर्थ ही ‘समग्रता’ में वास्तविकता का चित्रण होता है। सत्य यह है कि भारत विभिन्न जातीय समूहों आर्य, द्रविड़, मंगोल आदि का समुच्य बन कर एक राष्ट्र के रूप में समाहित रहा है। इसकी विविध संस्कृतियां एकाकार होकर भारतीय स्वरूप में सम्मिलित रही हैं अतः यहां धर्म या सम्प्रदाय के आधार पर राज्य की परिकल्पना ने कभी जन्म नहीं लिया। मौर्य काल से लेकर मुगल काल तक का इतिहास हमें इसी जातीय सम्मिश्रण से उपजे सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों के बारे में बताता है और वास्तव में यही भारत है जिसमें ‘अनेकता में एकता’ का राष्ट्रीय उवाच कौमी नारा बना और इसी से ‘जय हिन्द’ की उत्पत्ति हुई। यही वह अन्तिम सत्य है जिसकी खोज आज हर भारतवासी को करनी है और इसे उजागर करना है। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड ने सत्य की प्रतिष्ठा के बारे में जो उद्गार एम.सी. चागला स्मृति व्याख्यान माला में व्यक्त किए उनका आधार हमें लोकतांत्रिक भारत की पद्धति में ढूंढना चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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