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किसान आन्दोलन का हल?

भारत पूरी दुनिया में अकेला ऐसा लोकतान्त्रिक देश है जिसके विकास और प्रगति का सौपान सीधे कृषि क्षेत्र अर्थात किसानों के विकास और प्रगति से बन्धते हुए वैज्ञानिक व आर्थिक विकास की सीढि़यां इस प्रकार चढ़ा है

भारत पूरी दुनिया में अकेला ऐसा लोकतान्त्रिक देश है जिसके विकास और प्रगति का सौपान सीधे कृषि क्षेत्र अर्थात किसानों के विकास और प्रगति से बन्धते हुए वैज्ञानिक व आर्थिक विकास की सीढि़यां इस प्रकार चढ़ा है कि इसकी गिनती आज दुनिया के दस औद्योगीकृत राष्ट्रों में होती है। 1947 में जब भारत आजाद हुआ था तो इसकी कुल 33 करोड़ आबादी के 90 प्रतिशत से भी अधिक लोग खेती पर निर्भर थे और आज लगभग 133 करोड़ आबादी के केवल 60 प्रतिशत लोग ही खेती पर निर्भर करते हैं। आजादी के बाद देश चलाने वाले नेताओं की सबसे बड़ी जिम्मेदारी यह थी कि किस प्रकार अर्थव्यवस्था की रीढ़ खेती को समृद्ध व मजबूत बनाया जाये जिससे इस क्षेत्र से निकल कर लोग दूसरे काम-धन्धों में लग सकें और औद्योगीकरण की गति तेज हो सके। अतः प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने जिस कृषि नीति को बनाया उसमें किसानों को अधिकाधिक सम्पन्न बनाने के लिए सरकारी मदद का प्रावधान किया जिससे किसान समानान्तर रूप से आत्मनिर्भर होते हुए कृषि पैदावार बढ़ा कर समूचे देश को अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बना सकें और इसके साथ ही इस क्षेत्र में लगे लोग अधिकाधिक संख्या में अन्य उद्योग क्षेत्रों में प्रवेश कर सकें। 
बेशक यह संरक्षित अर्थव्यवस्था का  वह स्वरूप था जिसमें सरकार कमजोर वर्गों या क्षेत्रों को मदद प्रदान करती है। यह प्रक्रिया बहुत पेचीदा थी क्योंकि सरकार कृषि क्षेत्र से वसूले जाने वाले भू-राजस्व के अलावा अन्य क्षेत्रों को विकसित करके उनके माध्यम से अपनी आय में वृद्धि करना चाहती थी। हम इस रास्ते पर आगे बढ़ते हुए कामयाब हुए और हमने कृषि विकास के कई चरण पूरे करते हुए औद्योगिक विकास का लक्ष्य प्राप्त किया। कहने का मतलब सिर्फ इतना सा है कि जैसे-जैसे भारत कृषि क्षेत्र में मजबूत होता गया इसकी अर्थव्यवस्था उसी अनुपात में सशक्त होती गई और अन्य उद्योग-धंधे भारत में पनपने लगे। जिसका परिणाम यह है कि 1947 में जहां भारत का कुल बजट मात्र 259 करोड़ रुपए था वहीं आज यह बढ़ कर 20 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा हो चुका है। यह कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है मगर इस उपलब्धि के पीछे मुख्य भूमिका कृषि क्षेत्र की इस प्रकार रही कि यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को एक तरफ पुख्ता बनाता रहा और दूसरी तरफ अन्य क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध कराता रहा साथ ही सरकारी क्षेत्र में बड़े उद्योगों की स्थापना से देशभर में सहायक (एंसीलरी) उद्योगों की स्थापना हुई। अतः सबसे पहले यह समझा जाना बहुत जरूरी है कि कृषि क्षेत्र की मजबूती पर ही भारत की समस्त औद्योगिक व्यवस्था आज भी टिकी हुई है क्योंकि इस परिवर्तन के बावजूद आज भी साठ प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर करते हैं।
 देश में पिछले दस महीनों से चल रहे किसान आन्दोलन को देखते हुए यह बहुत जरूरी हो जाता है कि भारत इस असमंजस से बाहर निकले जो तीन कृषि कानूनों को लेकर बनी हुई है। 1991 के भारत में बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का दौर शुरू होने पर इसके दायरे में कृषि क्षेत्र को छोड़ कर शेष सभी क्षेत्र आ चुके हैं। सरकार का मुख्य उद्देश्य कृषि को बाजारमूलक तत्वों से जोड़ना माना जा रहा है जिसका विरोध किसान कर रहे हैं। किसानों का मानना है कि कृषि क्षेत्र को सरकारी संरक्षण की जरूरत इसलिए है जिससे उनकी लागत और उपज मूल्यों के बीच समुचित लाभ प्रदता बनी रहे। जबकि सरकार इन्हें बाजार की शक्तियों पर छोड़ना चाहती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप कृषि संशोधनों की जरूरत है मगर ये संशोधन इस प्रकार होने चाहिए जिससे किसानों में असुरक्षित होने का भाव पैदा न हो सके। 
 बाजार के नियमों व ताकतों पर कृषि उपज को छोड़ने से भारी असन्तुलन पैदा होने का खतरा इसलिए रहेगा क्योंकि किसान के माल की सप्लाई फसल ( सीजन) पर निर्भर करती है जबकि उसकी मांग साल भर रहती है। सीजन के समय सप्लाई थोक में होने से निजी व्यापारी की शर्त पर भाव तय होने लगते हैं जिसकी वजह से किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य की सरकारी गारंटी चाहते हैं। देखने में यह मसला बहुत सीधा-सादा लगता है परन्तु वास्तव में इसमें कई पेंच हैं। सबसे बड़ा पेंच यह है कि खाद्य सामग्री की कीमतों को सीधे बाजार की ताकतों के हवाले करने से देश की 70 प्रतिशत मध्यम व निम्न मध्यम वर्ग की जनता को महंगाई की मार झेलने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता अतः सरकार के हाथ में ऐसा  हथियार होना जरूरी है जिससे वह मुनाफाखोरों की कमर तोड़ने के लिए वक्त जरूरत के मुताबिक बाजार में हस्तक्षेप कर सके। संरक्षणवादी अर्थव्यवस्था में इन सब चिन्ताओं का ख्याल रखा गया था और किसानों की लागत के सामान को उचित कीमतों पर बनाये रखने की व्यवस्था की गई थी किन्तु बाजार मूलक अर्थव्यवस्था इन चिन्ताओं को निर्रथक मानती है। असली विवाद की जड़ यही है जिसे सुलझाये जाने की जरूरत है। मगर इसके लिए बहुत जरूरी है कि किसानों और सरकार में आमने-सामने बैठकर बातचीत हो और रंजिश का चालू माहौल समाप्त हो जिसके चलते ही उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में बर्बर व दर्दनाक घटना हुई है।
 हमें याद रखना चाहिए कि उत्तर प्रदेश के पथरीले व जंगली इलाकों को उपजाऊ बनाने में पंजाब से आये किसानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। राज्य के जो इलाके आज बहुत उपजाऊ माने जाते हैं वे आजादी मिलने के समय वीरान हुआ करते थे और उस समय इस राज्य के मुख्यमन्त्री श्री गोविन्द बल्लभ पन्त ने पाकिस्तान से आये पंजाबी शरणार्थियों को यहां बसाया था और उन्हें खेती करने के लिए प्रेरित किया था। इन लोगों ने आज ऐसे सभी पथरीले व जंगली खास कर तराई वाले इलाकों को ‘चमन’ में तब्दील कर दिया है। लखीमपुर खीरी का इलाका भी ऐसा ही माना जाता है। मगर हमें राष्ट्रीय स्तर पर सोचना होगा कि किसानों का सम्मान करके हम भारत माता के मेहनती सपूतों का ही सम्मान करेंगे अतः अब किसान आन्दोलन का दीर्घकालीन हल निकाला ही जाना चाहिए। 
 ‘‘हो गई ही पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए 
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।’’ 

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