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कांग्रेस में ‘फूट’ और ‘गुटबाजी’

आश्चर्यजनक यह है कि एक तरफ श्री तंवर कह रहे हैं कि यह समय पार्टी के अस्तित्व को बचाये रखने के लिए भारी संघर्ष का है और दूसरी तरफ स्वयं आगामी चुनावों में पार्टी की पराजय का इन्तजाम बांध रहे हैं।

विधानसभा चुनावों में दो सप्ताह से भी कम का समय रह जाने के बावजूद हरियाणा कांग्रेस में जो कलह मची है उससे पार्टी के चुनावी भविष्य पर अटकलें लगाया जाना गलत नहीं होगा मगर दीगर सवाल यह है कि पार्टी के भीतर ऐसी नौबत क्यों आयी जिसकी वजह से कल तक प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे श्री अशोक तंवर ने इस्तीफा देकर अपनी पार्टी के केन्द्रीय नेताओं के खिलाफ आरोपों की बौछार लगा दी? निश्चित रूप से इसमें उनका राजनैतिक अधकचरापन झलकता है और बताता है कि उन्होंने निजी हितों को पार्टी के हितों से ऊपर रखने को वरीयता दी। 
आश्चर्यजनक यह है कि एक तरफ श्री तंवर कह रहे हैं कि यह समय पार्टी के अस्तित्व को बचाये रखने के लिए भारी संघर्ष का है और दूसरी तरफ स्वयं आगामी चुनावों में पार्टी की पराजय का इन्तजाम बांध रहे हैं। नवजात कांग्रेसियों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे अनुभवी व तपे हुए नेताओं की सीख को ‘कोरा उपदेश’ समझते हैं। राजनीति में सफलता का पहला गुर यही होता है कि ‘जोश में कभी भी होश’ नहीं  खोने चाहिएं परन्तु प्रायः पीढ़ीगत परिवर्तन के नाम पर कांग्रेस में पहली पंक्ति में आये कथित युवा नेता ऐसे काम कर जाते हैं जिनमें दूरदृष्टि का अभाव होता है और उनका फेंका हुआ पांसा वापस उन्हीं पर आकर पड़ जाता है। 
इसका प्रमाण हमें पाकिस्तान के साथ भारत के सम्बन्धों व जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को समाप्त किये जाने के फैसलों के सन्दर्भ में मिला। विगत फरवरी महीने में पाकिस्तान की सीमा के भीतर घुस कर बालाकोट में भारतीय वायुसेना ने जो कार्रवाई की थी उस पर शुरू-शुरू में समर्थन का रुख अपनाने के बाद कांग्रेस के युवा नेतृत्व ने उल्टे सैनिक कार्रवाई को सन्देह के घेरे में खड़ा करना शुरू कर दिया। खासकर नवजात कांग्रेसी नेताओं ने कार्रवाई के प्रमाण मांगने शुरू कर दिये। ऐसे नेताओं में महाराष्ट्र के कांग्रेसी नेता संजय निरुपम का नाम प्रमुख है। 
निरुपम कुछ वर्ष पहले ही शिवसेना से कांग्रेस में दाखिल हुए थे। अतः उनकी कांग्रेस के सिद्धान्तों के लिए प्रतिबद्धता का अनुमान लगाया जा सकता है मगर सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात यह है कि दोनों ही मामलों में कांग्रेस पार्टी के अनुभवी व तपे हुए नेताओं ने किसी भी प्रकार की तल्खी नहीं दिखाई और जवाब में इन्दिरा गांधी शासनकाल के दौरान पाकिस्तान की बनाई गई दुर्गति का हवाला दिया। यह कार्य मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री श्री कमलनाथ ने लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रचार करते हुए इस प्रकार किया था कि वह भाजपा सरकार के नेतृत्व में की गई बालाकोट कार्रवाई की आलोचना किये बिना ही कांग्रेस पार्टी का पलड़ा ऊंचा दिखा सकें। 
लोकतान्त्रिक संसदीय राजनीति में विरोधी द्वारा खींची गई किसी लकीर को मिटाया नहीं जाता है बल्कि उससे बड़ी लकीर खींच कर जनता को भरमाया जाता है फिर चाहे परिणाम कुछ भी निकले। कमलनाथ कहते घूम रहे थे कि कांग्रेस ने पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांट डाला था। इसी प्रकार हरियाणा के पूर्व मुख्यमन्त्री श्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने जम्मू-कश्मीर में 370 को समाप्त किये जाने का खुलकर समर्थन इस हकीकत के बावजूद किया कि उनकी पार्टी के नेतृत्व का संसद के भीतर इस मुद्दे पर रुख पूरी तरह उलट था। 
इसकी वजह श्री हुड्डा जैसे घुटे हुए राजनीतिज्ञ के सामने शीशे की तरह साफ थी क्योंकि उनके राज्य की जनता राष्ट्रवाद की उस धारा से हमेशा स्वयं को जुड़ा हुआ मानती रही है जिसमें भारत की एकता के साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं हो सकता। बेशक इस राज्य में जातिवाद का जोर शुरू से ही रहा है परन्तु राष्ट्रीय एकता की अलम्बरदार भी वे जातियां ही रही हैं जिनका झुकाव लोकसभा चुनावों में भाजपा की तरफ स्वाभाविक रूप से हो गया था। इस पेचीदा जमीनी सच्चाई को हुड्डा जैसा घुटा हुआ राजनीतिज्ञ ही समझ सकता था परन्तु राज्य कांग्रेस इकाई में गुटवाद कोई नई चीज नहीं है। 
स्व. पं. भगवत दयाल शर्मा के काल से जब हरियाणा राज्य का गठन हुआ, तभी से पार्टी गुटों में बंटी रही है, हालांकि ये गुट जाति मूलक थे और चुनाव के टिकट बंटवारे के समय इन सभी गुटों में जमकर रस्साकशी भी हुआ करती थी परन्तु वर्तमान दौर में गुटबाजी का स्वरूप बदला है और इसने ‘युवा व प्रौढ़’ गुटबन्दी का रूप ले लिया है। श्री तंवर को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाकर जो प्रयोग किया गया था वह समय की कसौटी पर इसलिए खरा नहीं उतर पाया क्योंकि स्वयं श्री तंवर राज्य कांग्रेस के सभी गुटों को साथ लेकर नहीं चल सके। 
प्रत्येक कांग्रेसी जानता है कि सत्तारूढ़ भाजपा के संरचनात्मक ढांचे और कांग्रेस के संरचनात्मक ढांचे में जमीन-आसमान का अन्तर है। कांग्रेस में अनुशासन का अर्थ ‘सावधान’ होना नहीं होता बल्कि ‘आराम से खड़े होने’ से होता है। हां, श्री तंवर का यह कहना पूरी तरह सच है कि कांग्रेस पार्टी, ‘षड्यन्त्रों की रचनागत संस्था है।’ इसका रहस्योद्घाटन स्वयं एक बार इस पार्टी के सर्वोच्च कहे जाने वाले नेताओं में से एक ने अत्यन्त  आत्मीय क्षणों में मुझसे किया था मगर इसी माहौल मंे स्वयं को सुरक्षित रखने की कला भी इस पार्टी के नेतागण बखूबी जानते हैं। 
दिक्कत यह हो रही है कि कांग्रेस पार्टी आमजन से दूर होती जा रही है और जनता की नब्ज पकड़ कर इलाज करने वाले नेताओं की पीढ़ी हतप्रभ है कि भाजपा की जमीनी पकड़ से उपजी ‘गरीब-गांव’ की सफल रणनीति का मुकाबला वह किस प्रकार करे। सरकार की विभिन्न योजनाओं से जनता के जुड़ने का एक नया कीर्तिमान जिस तरह लगातार बन रहा है उससे कांग्रेस शासन की उपलब्धियां ओझल होती जा रही हैं। अतः ऐसे समय में कांग्रेस के नेताओं की आपसी फूट इसके अस्तित्व के लिए चुनौती बन सकती है। 
इसका दोष किस प्रकार इसकी विरोधी भारतीय जनता पार्टी पर मढ़ा जा सकता है जब ‘घर के भेदी ही लंका ढहा’ रहे हैं। यही हाल मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिन्धिया का है जो हर हफ्ते एक नया शगूफा छोड़ देते हैं और समझते हैं कि हुकूमत करना उन्हें विरासत में मिला है। कौन समझाये कि जमाना बदल चुका है। एक चाय वाला आज इस देश का प्रधानमन्त्री है जिसने दुनिया भर में अपना डंका बजा रखा है। खुदा खैर करे कांग्रेस के ‘फरमाबरदारों’ की !

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