केन्द्र में सत्तारूढ़ एनडीए सरकार की प्रमुख पार्टी शिवसेना जिस तरह मुखर होकर अपनी ही सरकार की नीतियों का विरोध कर रही है उससे साफ लगता है कि भाजपा नीत गठबन्धन में आगामी लोकसभा चुनावों से पहले भारी उठापटक हो सकती है। यदि यह लड़ाई सिर्फ महाराष्ट्र में अधिक लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए है तो इसे केवल नूरा कुश्ती ही कहा जाएगा मगर एक सवाल इससे बड़ा है कि क्या शिवसेना वैचारिक आधार पर किसी अन्य राजनीतिक दल के करीब जाने का जोखिम उठा सकती है और क्या कोई अन्य प्रतिष्ठित दल उसे अपने साथ रखने का साहस कर सकता है? क्योंकि शिवसेना का राजनीतिक आचार-व्यवहार कट्टर हिन्दुत्व को क्षेत्रीय सीमाओं में इस प्रकार बांधता है कि अन्य राज्यों के लोगों में बेचैनी होना स्वाभाविक प्रक्रिया हो जाती है। आज राज्यसभा में इस पार्टी के सदस्य श्री संजय राऊत ने राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद के मुद्दे पर अपनी ही सरकार को पुनः घेरने की जिस तरह कोशिश की उससे साफ लगता है कि पार्टी महाराष्ट्र में केन्द्र की सत्ता के विरुद्ध उपज रही जनभावनाओं को भुनाना चाहती है और मुख्य विपक्षी पार्टियों कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस को पीछे छोड़ देना चाहती है जबकि हकीकत यह है कि पार्टी महाराष्ट्र से लेकर केन्द्र तक की सरकारों में बराबर की हिस्सेदार है और सत्ता का सुख भोग रही है।
वास्तव में यह सत्ता के भीतर ही विपक्ष का स्थान लेने की रणनीति है और स्वयं को धवल दिखाने की कलाबाजी है। राफेल मामले पर लोकसभा में जो बहस अधूरी है उसमें भी इस पार्टी के सांसद श्री अरविन्द सावन्त ने भाग लेते हुए कहा कि राफेल खरीद मामले की संयुक्त संसदीय समिति द्वारा जांच कराने की मांग को सरकार द्वारा मान लेना चाहिए। इससे जाहिर होता है कि सरकार में शामिल होने के बावजूद यह पार्टी अपनी ही सरकार के विरोध में है। राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद प्रक्रिया व मूल्य सम्बन्धी विवाद पर लोकसभा में वित्तमन्त्री श्री अरुण जेतली ने जो कल सरकार की तरफ से बयान दिया उसे केवल एक व्यक्ति का बयान नहीं कहा जा सकता बल्कि वह उस सरकार का बयान है जिसमें कई दल शामिल हैं और इनमें शिवसेना भी है।
अतः शिवेसना प्रमुख श्री उद्धव ठाकरे का यह कर्तव्य बनता है कि वह अपने दल की स्थिति स्पष्ट करें और महाराष्ट्र की जनता को बताएं कि किस मजबूरी की वजह से उनकी पार्टी भाजपा का विरोध कर रही है। क्या उसका मत भी कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी के इस मत का समर्थन करता है कि सर्वोच्च न्यायालय में राफेल की बाबत दायर जनिहत याचिकाओं पर जो फैसला आया है वह सरकार द्वारा न्यायालय को सुलभ कराई गई गलत सूचनाओं के आधार पर टिका हुआ है। यदि ऐसा है तो शिवसेना फिर किस प्रकार एक क्षण भी एेसी सरकार में शामिल रह सकती है? अपने दोनों हाथों में लड्डू रख कर शिवसेना जिस प्रकार की राजनीति कर रही है उसका आशय यही निकलता है कि वह भाजपा को दबाव में रखकर महाराष्ट्र में उसे अपने ऊपर निर्भर बनाना चाहती है मगर दूसरा मतलब यह भी निकलता है कि यह पार्टी अन्ततः सत्ता विरोधी भावनाओं को एनडीए के दायरे में ही सीमित करके अपना नुक्सान कम करना चाहती है जिससे उसकी राजनीतिक सौदेबाजी करने की ताकत कम न हो सके।
ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब इस पार्टी को देना होगा क्योंकि लोकसभा चुनावों में मात्र 99 दिन का समय शेष रह जाने से जिस तरह के राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं उनमें विपक्ष और सत्तापक्ष की लड़ाई बहुत तेज होती जाएगी। बेशक महाराष्ट्र विधानसभा का 2015 का चुनाव भाजपा व शिवसेना ने अलग-अलग होकर लड़ा था मगर इसके बाद बनी परिस्थितियों में इन दोनों ही पार्टियों को एक साथ आना पड़ा था और मिलजुल कर सरकार बनानी पड़ी थी, लेकिन लोकसभा चुनावों में पुरानी परिस्थितियां नहीं रह सकती हैं क्योंकि शिवसेना इस राज्य की अब सत्तारूढ़ पार्टी है और उसे अपने पिछले कार्यकाल का जवाब जनता को देना होगा।
इस जिम्मेदारी से भागने की तकनीक अपनी ही सरकार का विरोध किस प्रकार हो सकता है? अतः यह बेवजह नहीं है कि शिवसेना ने अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण के लिए यह कहकर खुली चुनौती दे रखी है कि ‘पहले मन्दिर फिर सरकार’ मगर अयोध्या पहुंच कर यह नारा देते हुए श्री उद्धव ठाकरे भूल गए थे कि वह सरकार में शामिल तो हैं ही तो फिर यह नारा किस प्रकार लोगों से उनका जुड़ाव कर सकता है।
दूसरा मुख्य सवाल यह पैदा होता है कि यह पार्टी किस प्रकार राम मन्दिर मुद्दे पर सरकार से भिन्न मत रख सकती है जबकि पूरी दुनिया को मालूम है कि यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है, लेकिन इस मुद्दे पर भी शिवसेना ने भाजपा को करारा झटका देने की चाल यह कहकर चल दी थी कि दिसम्बर 1992 में उसके कार्यकर्ताओं ने बाबरी मस्जिद ढहा कर शौर्य का परिचय दे दिया था अब यहां पर राम मन्दिर बनना चाहिए, लेकिन केन्द्र की अपनी ही सरकार को मन्दिर निर्माण के लिए वह केवल 99 दिनों का समय देकर उसके हाथ से यह मुद्दा भी छीन लेना चाहती है।
दरअसल इस प्रकार की राजनीति की कोई बुनियाद नहीं होती और कोरे अवसरवाद का ही प्रदर्शन करती है। इसमें किसी प्रकार के सिद्धान्त की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि विरोध की राजनीति तभी की जा सकती है जब वास्तव में विरोधी के पाले से गेंद फैंकने की हिम्मत की जाए, लेकिन अकेली शिवसेना की ही बात क्यों की जाए एनडीए में शामिल अन्य छोटे-छोटे दल भी आंखें तरेर कर बात करने लगे हैं मगर ये सभी भूल रहे हैं कि सत्ता के सवालों से इन्हें भी जूझना पड़ेगा।