सर्वोच्च ‘जनता की अदालत’

भारत के लोकतन्त्र में न्यायपालिका की भूमिका को हमारे संविधान निर्माताओं ने इस प्रकार निरुपित किया
सर्वोच्च ‘जनता की अदालत’
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भारत के लोकतन्त्र में न्यायपालिका की भूमिका को हमारे संविधान निर्माताओं ने इस प्रकार निरुपित किया कि यह सरकार का अंग न होकर स्वतन्त्र रूप से देश में संविधान के शासन की गारंटी करती रहे। आजादी के बाद से हमारी न्यायपालिका यही भूमिका बहुत सफलता के साथ निभा रही है। इसमें सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही है क्योंकि यह समय-समय पर सरकारी फैसलों की समीक्षा संविधान की भावना के अनुरूप जनहित की रोशनी में करता रहा है परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय संसद की भूमिका में आ जाये और उसमें भी विपक्ष की भूमिका निभाने लगे। न्यायालयों को किसी भी मुद्दे पर जन अवधारणाओं से निरपेक्ष रहते हुए संविधान की रुह के मुताबिक ही फैसला करना होता है। अतः भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़ का यह कहना पूरी तरह सामयिक है कि सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका जनता की अदालत के रूप में निर्दिष्ट रहनी चाहिए और इसका यह स्वरूप भविष्य के लिए भी संरक्षित रहना चाहिए। सामान्य नागरिक के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे खुले रहते हैं और उसे न्याय मिलता है, यह अवधारणा भी स्थायी रहनी चाहिए जिसे विकसित करने में पिछले 75 साल लगे हैं। इस दिशा को हमें कभी भी भूलना नहीं चाहिए।

श्री चन्द्रचूड़ के मतानुसार समाज बदलता रहता है और इसका उत्तरोत्तर विकास होता रहता है। इसमें समृद्धि आती रहती है अतः सर्वोच्च न्यायालय को केवल बड़े दर्जे के मुकदमों पर ही निगाह नहीं रखनी चाहिए बल्कि सामान्य समझे जाने वाले मामलों पर भी निगाह रखनी चाहिए। क्योंकि हमारे न्यायालय जनता के न्यायालय हैं। अतः इसका यह स्वरूप बरकरार रहना चाहिए। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने ये उद्गार प्रकट करके साफ कर दिया है कि लोकतन्त्र में कोई भी संवैधानिक संस्थान अभिजात्य नहीं होता विशेषकर न्यायपालिका, क्योंकि इसे अन्ततः जनता के हितों की रक्षा ही करनी होती है परन्तु न्यायपालिका संसद में विपक्ष की तरह की भूमिका में कभी नहीं आ सकती। अतः जब फैसला किसी के पक्ष में आता है तो कुछ लोग न्यायपालिका की तारीफ करने लगते हैं और जब उनकी अपेक्षाओं के विरुद्ध आता है तो वे ही लोग उसकी कटु आलोचना करने लगते हैं। समाज में इस तरह के विभाजन को उचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि न्यायालय को अपना फैसला विधि के अनुसार ही करना पड़ता है। सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका को केवल इसके फैसलों के आधार पर नहीं परखा जा सकता बल्कि उसके काम के आधार पर ही परखा जा सकता है। क्योंकि अदालत में न्यायाधीश प्रत्येक मुकदमे का फैसला गुण-दोष के आधार पर करते हैं और जिस तरफ भी पलड़ा झुकता है वही फैसले में तब्दील होता है। इसके बावजूद न्यायालयों के फैसले की आलोचना की जा सकती है मगर दिक्कत तब आती है जब कुछ लोग फैसला उनके पक्ष में आने पर सर्वोच्च न्यायालय की तारीफ करने लगते हैं और कहने लगते हैं कि न्यायालय एक विशेष दिशा की तरफ जा रहा है मगर जब फैसला उनके विरुद्ध आता है तो वे लोग ही न्यायालय की बखियां उधेड़ना शुरू कर देते हैं। किसी भी मुकदमे का फैसला न्यायाधीश पूरी तरह स्वतन्त्र रहते हुए देते हैं जिसका हमेशा सम्मान किया जाना चाहिए। उनका फैसला किसी के पक्ष में या विरुद्ध आ सकता है। सारे फैसले कानूनी स्थिति को देख कर ही होते हैं। अतः जब इस शर्त को लागू करते हुए हम फैसलों की समीक्षा करेंगे तो न्यायपालिका की भूमिका का सही आंकलन करेंगे और इसके भविष्य को सुरक्षित रखेंगे।

न्यायालय अपने समक्ष पेश किये गये तथ्यों के अनुसार ही कानून दायरे में फैसला सुनाते हैं फिर यह फैसला किसी भी पक्ष की तरफ हो सकता है। मुख्य न्यायाधीश ने सर्वोच्च अदालत की कार्यवाही सीधे टीवी चैनल पर दिखाये जाने पक्ष में अपना मत प्रकट किया है। उनका कहना है कि अदालत की कार्यवाही का सीधा प्रसारण होने से आम लोगों को पता चलेगा कि यह किस तरह काम करती है। इससे आम जनता कानूनी दांव-पेंचों और इन्हें खेलने वाले वकीलों व न्यायाधीशों के बारे में ज्यादा से ज्यादा शिक्षित होगी क्योंकि अब यह मसला अदालत के कमरे में कुछ वकीलों व जज के बीच का नहीं रहा है बल्कि पूरे नजारे से टीवी चैनल के दो करोड़ उपभोक्ता भी वाकिफ होंगे। इससे समाज में अदालतों व कानून के बारे में नई चेतना जागृत होगी। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को समाज में हो रहे परिवर्तनों के प्रति भी संवेदनशील रहना होगा क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय केवल विवाद निपटाने की सबसे ऊंची संस्था ही नहीं है बल्कि इसे समाज में हो रहे बदलावों के प्रति संवेदनशील रहते हुए फैसले करने होंगे जिससे समूचे राष्ट्र को दिशा मिल सके। भारत में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया आदि देशों जैसी नहीं है बल्कि न्याय पाने की उच्चतम सीढ़ी जैसी है। अतः जब भी सर्वोच्च न्यायालय में सामान्य जन के मुकदमे पर कोई फैसला दिया जाता है तो वह राष्ट्रीय स्तर सभी निचली अदालतों के लिए एक उत्प्रेरक का काम करता है जिससे पूरे देश में आ रहे सामाजिक बदलाव से उपजी समस्याओं का निदान हो सके और समाज विकसित होता रहे। श्री चन्द्रचूड़ के इस बयान से साफ है कि वह बदलते सामाजिक समीकरणों को भी अदालतों के संज्ञान में लाना चाहते हैं। इसलिए आम भारतवासी को न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने दिशा दिखाने का काम किया है। एेसा मानना संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर का भी था जिन्होंने संविधान में न्यायपालिका को पूरी तरह स्वतन्त्र व निरपेक्ष रहने का किरदार दिया।

आदित्य नारायण चोपड़ा

Adityachopra@punjabkesari.com

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