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लाल किले से आयी आवाज…

मोदी में यह अद्भुत कला उनके जमीन से जुड़े होने की वजह से ही है जो उन्हें इस दौर का ‘महानायक’ बनाती है। ऐसा नहीं है कि इस स्तर को पाने वाले स्वतन्त्र भारत में वह पहले राजनीतिज्ञ हैं।

ऐतिहासिक लाल किले की प्राचीर से देश को लगातार छठी बार सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने देशवासियों की जागृत हुई आकांक्षाओं को आवाज देकर सिद्ध कर दिया कि उनमें 21वीं सदी के युवा भारत के समक्ष आने वाली चुनौतियों का सामना करने की सामर्थ्य की कमी नहीं है। लोकतन्त्र में एक सफल राजनीतिज्ञ के लिए सबसे ज्यादा जरूरी यह होता है कि वह देश के जनमानस के अन्तर्मन की उस भाषा को पढ़े जो न तो किसी दीवार पर या किताब में लिखी होती है। श्री मोदी में यह अद्भुत कला उनके जमीन से जुड़े होने की वजह से ही है जो उन्हें इस दौर का ‘महानायक’ बनाती है। ऐसा नहीं है कि इस स्तर को पाने वाले स्वतन्त्र भारत में वह पहले राजनीतिज्ञ हैं। 
उनसे पहले पं. जवाहर लाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी इस स्तर को पाने में सफल रहे हैं परन्तु वर्तमान समय में श्री मोदी ने इस स्तर को जिस तरह छुआ है वह परिस्थितिजन्य कारणों से अत्यन्त दुरूह कहा जायेगा क्योंकि 1991 के बाद शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण से उपजे प्रभावों के कारण भारत की सामाजिक संरचना में गुणात्मक परिवर्तन आना शुरू हुआ। बाजारमूलक अर्थव्यवस्था को मानवीय चेहरा देना दुष्कर कार्य था क्योंकि इसमें सरकार की भूमिका लगातार पर्यवेक्षक के होने का खतरा मंडराता रहता है। इसके बावजूद अपने पिछले पांच साल के कार्यकाल में श्री मोदी की सरकार की नीतियों से समाज के वंचित व गरीब लोगों के लिए इसी बाजार के फार्मूले को अपनाकर जो फैसले किये उन्होंने श्री मोदी को पिछड़े व गरीब समझे जाने वाले वर्ग के बीच ‘जननायक’ बना डाला। 
हालांकि समूचे आर्थिक मोर्चे पर निजी क्षेत्र की गतिविधियों पर कोई अवरोध नहीं लगा और उन्हें अपना कार्य उन्मुक्त तरीके से करने की छूट भी दी गई। अतः श्री मोदी का मूल्यांकन केवल उनके राष्ट्रीय ‘स्वयं सेवक संघ’ के प्रचारक रहने के आधार पर नहीं किया जा सकता बल्कि ‘गांधीवाद’ के जनकल्याणकारी दायरे में किया जाना जरूरी है। बेशक कुछ बुद्धिजीवी इन तर्कों से सहमत नहीं होंगे परन्तु उन्हें यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि मोदी की ‘कथनी और करनी’ में कोई अन्तर नहीं है, जो गांधीवाद का पहला सिद्धान्त है। इसलिए श्री मोदी के इस बार दिये गये ‘राष्ट्र सम्बोधन’ को इसी पैमाने पर मापना होगा और तय करना होगा कि भारत की भविष्य की दिशा क्या होगी? 
श्री मोदी ने सैन्य क्षेत्र में संरचनागत जबर्दस्त संशोधन करने का फैसला किया है और तीनों सेनाओं के अध्यक्ष के ऊपर एक ‘प्रमुख सेनापति’ बनाने का ऐलान लाल किले से ही किया है। भारतीय संविधान में सशस्त्र बलों के ‘सुप्रीम कमांडर’ राष्ट्रपति होते हैं। राष्ट्रपति के निर्देशन में ही तीनों सेनाओं थलसेना, जलसेना व वायुसेना के चीफ कमांडर काम करते हैं। बदलती सामरिक आवश्यकताओं और युद्ध तकनीकों को देखते हुए श्री मोदी ने यह फैसला लिया है। भारत की तीनों सेनाओं के आधुनिकीकरण व सुसज्जीकरण के लिए एक प्रमुख सेनापति की नियुक्ति किस हद तक सहायक होगी, इसका विस्तृत खाका सरकार को अभी देश को बताना होगा। पिछले दिनों से सेना के राजनीतिकरण का विवाद भी देश में समय-समय पर उठता रहा है, इसे भी नजर में रखना होगा और सबसे ऊपर भारत की संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली के तहत तीनों सेनाओं के कमांडरों की रक्षा मन्त्रालय के मार्फत जवाबदेही के सवालों से भी जूझना होगा। 
जाहिर है कि वर्तमान रक्षामन्त्री श्री राजनाथ सिंह ने इन सभी प्रश्नों के भीतर जाकर जवाब खोजने की कोशिश की होगी और तब जाकर यह महत्वपूर्ण फैसला लिया गया होगा। इसके अलावा लाल किले से ‘तीन तलाक’ कानून का प्रधानमन्त्री ने जिक्र किया और कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 (ए) को समाप्त करने का भी हवाला दिया। हकीकत में ये दोनों ही फैसले दिलेरी भरे कहे जायेंगे। कश्मीर के मामले में तो पूरी दुनिया भारत सरकार के इस फैसले के साथ है और भारत के भीतर भी लगभग प्रत्येक राजनीतिक दल इस फैसले का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समर्थन करता लगता है। संसद के भीतर इस मुद्दे पर हुए मतदान में जिस तरह का वातावरण बना उससे ही यह सिद्ध हो गया था कि भारत दिल से कश्मीर को अपने में समाहित करना चाहता है। 
जहां तक तीन तलाक का विषय है वह बेशक एक धर्म विशेष की महिलाओं से जुड़ा हुआ है परन्तु है तो वास्तव में निजी स्वतन्त्रता के अधिकार से जुड़ा हुआ और निर्भय होकर जीवन जीने के हक से। अतः प्रधानमन्त्री ने लाल किले से इसका जिक्र करके साफ कर दिया है कि किसी भी घर की चारदीवारी के भीतर तक महिलाओं को डर-डर कर जीने की जरूरत नहीं है और अपना पारिवारिक धर्म निभाने के लिए उनका भयमुक्त होना बहुत जरूरी है। संभवतः श्री मोदी ऐसे पहले प्रधानमन्त्री हैं जो लाल किले से ‘जन सामान्य’ की दिक्कतों से जुड़े मुद्दे उठाते हैं। पेयजल की समस्या और सम्पूर्णता में जल संकट के बारे में उन्होंने देशवासियों से सीधे ही बात करना उचित समझा और सरकार के इरादे से उन्हें अवगत कराना भी समयानुकूल माना।
देश की आधी आबादी को यदि स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं हो पा रहा है तो आजादी के 72 साल बाद भी इस लक्ष्य को पूरा करना कोई बड़ा संकल्प नहीं माना जा सकता क्योंकि इसी देश के किसानों ने इन 72 वर्षों में भारत की आबादी 33 करोड़ से 130 करोड़ तक पहुंचने के बावजूद खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भरता का लक्ष्य प्राप्त किया है और भारत को बहुतायत में कृषि पैदावार करने वाला देश बना दिया है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने में कुछ विसंगतियां भी आयी हैं जिसकी तरफ श्री मोदी ने किसानों का ध्यान दिलाते हुए उन्हें कम से कम रासायनिक खाद का उपयोग करने की सलाह दी और बढ़ती आबादी की तरफ भी देशवासियों का ध्यान खींचा। ‘छोटा परिवार-सुखी परिवार’ का मन्त्र प्रधानमन्त्री ने अपने अन्दाज में लाल किले से देकर स्पष्ट कर दिया कि विकास के समान बंटवारे के लिए भी घर से शुरूआत की जा सकती है। 
जाहिर है इसका सम्बन्ध समग्र और समानुपाती व समावेशी विकास से इस तरह जुड़ा हुआ है कि हर पांच साल बाद स्थापित सुविधाएं कम होती जायेंगी और किसी भी सरकार के लिए आगे विकास करना चुनौती बनी रहेगी। जल संकट का सम्बन्ध भी इसी से जुड़ा हुआ है। भारत में जितना जल 1947 में सुलभ था उतना ही आज है परन्तु आबादी बढ़ने से प्रति व्यक्ति जल सुलभता घटती जा रही है। अतः इस खाई को पाटने के लिए साढ़े तीन लाख करोड़ रुपये खर्च करने की योजना बनाई जा रही है और प्रत्येक गांव व व्यक्ति को शुद्ध पेयजल देने की कोशिश की जा रही है। इसी प्रकार श्री मोदी ने सरकार की अहमियत और आमजन में उसकी दखलन्दाजी को लेकर भी आम जनता के मन की भाषा पढ़ने का प्रयास किया। 
दैनिक जीवन जीने में सरकार का हस्तक्षेप व्यक्ति में ‘खीझ’ पैदा करता है परन्तु जरूरत पड़ने पर उसकी मदद भी संविधान के अनुसार चलने वाले किसी समाज की आधारभूत आवश्यकता होती है। अतः सरकार का आभास और उसके प्रभाव का समीकरण गढ़ना श्री मोदी के जननेता होने के लिए काफी है। कहने की जरूरत नहीं है कि जिस प्रधानमन्त्री ने पहली बार लाल किले से देश को सम्बोधित करते हुए ‘हर घर में शौचालय’ जैसा  नारा देने की हिम्मत की हो उसका जनमूलक सामर्थ्य का संज्ञान तो कम्युनिस्ट विचारधारा को मानने वाले लोगों तक को लेना चाहिए क्योंकि राजनीति का जनमूलक होने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है ?

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