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‘ब्रिक्स’ की बन्द मुट्ठी में दुनिया

दुनिया के पांच महत्वपूर्ण व प्रभावशाली देशों ने आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए प्रतिरोधी तन्त्र गठित करने की जरूरत बतायी है।

ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन, द.अफ्रीका) देशों के सम्मेलन में भाग लेकर प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी स्वदेश वापस लौट आये हैं परन्तु ब्राजील की राजधानी ब्रासीलिया में हुए इस सम्मेलन से एक आवाज स्पष्ट तौर पर उभरी है कि आतंकवाद को रोकने के लिए पूरी दुनिया को एक इकाई के रूप में चट्टान की तरह खड़ा होना होगा। दुनिया के पांच महत्वपूर्ण व प्रभावशाली देशों ने आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए प्रतिरोधी तन्त्र गठित करने की जरूरत बतायी है। 
दरअसल ब्रिक्स संगठन भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी की ही देन है जिन्होंने 2006 में राष्ट्रसंघ की बैठक में भाग लेते समय इस विश्व पंचायत के पुराने ढर्रे के ढांचे में बदलाव की आवश्यकता महसूस की थी और बदलती दुनिया की सामयिक स्थितियों को देखते हुए इसके समग्र दृष्टिकोण में समयानुकूल संशोधन को जरूरी बताया था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद गठित राष्ट्रसंघ में पश्चिमी यूरोप व अमेरिका के वर्चस्व के वे कारण 2006 में ही समाप्त हो चुके थे जिनकी वजह से  विश्व के सकल आर्थिक स्रोतों पर उन्हीं देशों का प्रभुत्व था जिन्हें विकसित देश कहा जाता था। 
श्री मुखर्जी की ही यह दूरदृष्टि थी कि उन्होंने प्रारम्भ में दुनिया के तीन महाद्वीपों के तेजी से विकास करते देशों में सहयोग बढ़ाने की गरज से 2006 में ‘ब्रिक’संगठन को मूर्त रूप दिया जिसमें भारत, रूस, चीन व ब्राजील थे और बाद में अफ्रीकी महाद्वीप के प्रतिनिधि​​ के तौर पर इसमें दक्षिण अफ्रीका को भी शामिल किया गया जिससे ब्रिक ‘ब्रिक्स’  बन गया। सबसे बड़ा कमाल श्री मुखर्जी ने उस समय यह किया था कि  चीन, रूस, ब्राजील को उन्होंने पूरी तरह इस बात पर राजी कर लिया था कि विश्व अर्थव्यवस्था को गति देने की कुंज्जी जिन देशों के हाथ में आने वाली है उन्हें स्वयं मिल कर संगठित रूप से दुनिया के सकल आर्थिक स्रोतों में न्यायोचित बंटवारे की मांग सशक्त रूप से उठानी चाहिए। 
यह भी हकीकत है कि राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का मामला भी श्री मुखर्जी ने तभी उठा कर चीन को तटस्थ बने रहने की प्रेरणा दी थी। क्योंकि उससे पहले रक्षामन्त्री के रूप में श्री मुखर्जी जब बीजिंग की आठ दिवसीय यात्रा पर गये थे तो वहीं खड़े होकर ऐलान कर आये थे कि ‘आज का भारत 1962 का भारत नहीं है और चीन व भारत के आपसी सहयोग के साथ ही विकास को आगे बढ़ाया जा सकता है क्योंकि दोनों ही तेजी से विकास करती अर्थव्यवस्था वाले देश हैं’ यह बहुत खुशी की बात है कि प्रधानमन्त्री मोदी ने ब्रासीलिया में ब्रिक्स की बैठक में भाग लेने आये चीन के राष्ट्रपति शी-जिनपिंग से अलग से द्विपक्षीय वार्ता की और दोनों देशों के आपसी सम्बन्धों के बारे में विचारों का आदान-प्रदान किया (इस बारे में पाठक कल विस्तार से पढ़ सकते हैं) फिलहाल ब्रिक्स संगठन की विश्व के सन्दर्भ में उपयोगिता पर केन्द्रित होना जरूरी है। 
ब्रिक्स में चार महाद्वीपों एशिया, अफ्रीका, द. अमेरिका व यूरोप की भागीदारी है। ब्राजील द. अमेरिका महाद्वीप का सबसे तेज बढ़ता राष्ट्र है जबकि द. अफ्रीका ‘अफ्रीका महाद्वीप’ का और रूस यूरोप का व भारत व चीन एशिया महाद्वीप के। ये पांचों देश यदि आर्थिक स्तर सहयोग को प्रगाढ़ बनाते हुए ऐसे साझा तन्त्र की स्थापना करने में सफल हो जाते हैं जिसमें आयात-निर्यात निर्भरता व उत्पादन गतिविधियों का परिचालन एक-दूसरे की जरूरतों व उत्पादन क्षमता के आसरे सरल शुल्क प्रणाली से जुड़ा हो तो दुनिया भर से निवेश को खींच सकते हैं और विश्व बाजार को अपने प्रभाव में ले सकते हैं। ब्राजील ऐसा देश है जो भारत की तरह ही कृषि उत्पादों के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उदाहरण के लिए इसके मसालों विशेषकर इलायची का आयात भारत में जमकर होता है। 
इसके साथ ही चीनी का उत्पादन भी जमकर करता है। भारत और इसके बीच ऐसे उत्पादों में मूल्य समरूपता (प्राइस पैरिटी) पैदा करके कृषि क्षेत्र की लाभप्रदता को बढ़ाया जा सकता है। यह भी महत्वपूर्ण है कि ब्रिक्स की स्थापना के बाद विश्व बैंक की तर्ज पर ही ब्रिक्स बैंक की स्थापना की गई थी जिससे इन देशों को अपनी आर्थिक आवश्यकताओं के लिए विश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की ‘पक्षपातपूर्ण’ नीतियों का शिकार न होना पड़े। 
संयोग से इस बैंक की स्थापना के पीछे भी श्री प्रणव मुखर्जी की सोच ही रही क्योंकि 2009 से 2012 तक भारत के वित्तमन्त्री रहते हुए उन्होंने कई बार विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की बैठकों में चेतावनी दी थी कि आर्थिक स्रोतों का बंटवारा भी अब उन देशों के पक्ष में न्यायपूर्ण ढंग से होना चाहिए जिनके ऊपर सकल विश्व अर्थव्यवस्था को गतिमान रखने की जिम्मेदारी आ गई है अथवा स्वयं उन्होंने अपने प्रयासों से यह रुतबा हासिल किया है। 
इन्हीं देशों की सरकारी, गैर सरकारी व अन्य जन कल्याण की विकास परियोजनाओं के वित्तीय पोषण हेतु 2014 में ‘ब्रिक्स विकास बैंक’ की स्थापना हुई और इसके पहले अध्यक्ष भी भारतीय श्री के.वी. कामथ बने हालांकि इसका मुख्यालय चीन में रखा गया। भारत की अर्थव्यवस्था की मजबूती का विश्व बैंक को ही तब पता लगा था जब वित्तमन्त्री के तौर पर श्री मुखर्जी ने इससे 300 टन सोना खरीद कर भारतीय खजाने में भरा था। 
दरअसल यह प्रमाण था कि भारत ही नहीं बल्कि कुछ अन्य देशों ने भी दुनिया का शक्ति क्रम बदल कर रख दिया है और उसी के अनुरूप विश्व संस्थाओं को व्यवहार भी करना चाहिए। यह पूरी तरह जायज मांग ही नहीं बल्कि हक की बात थी, अतः ब्रिक्स अपना हक अधिकारपूर्वक लेने की गरज से बनाया गया संगठन है जिसके केवल आर्थिक आयाम ही नहीं बल्कि सामरिक आयाम भी हैं क्योंकि ‘भारत-रूस-चीन सुरक्षा चक्र’ के तार जब भी जुड़ेंगे तब इसी दरवाजे से होकर जुड़ेंगे।

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