दिल्ली फिर एक बार धुआं हुई,
नियम-कायदे यहां कौन समझता है,
दीये नहीं पटाखे जलाने से धर्म झलकता है,
परम्परा का हवाला दे आतिशबाजियां हजार हुईं,
दिल्ली फिर एक बार धुआं हुई,
दिल्ली वाले जिम्मेदार बने खुद अपनी बर्बादी के,
किसान भी कहां पीछे रहते अपनी फसलों को जलाने में,
धुंध की चादर तले फिर कितनी सुबह हुई,
दिल्ली वालों के हाथों दिल्ली फिर धुआं हुई।
दिल्ली के हालात पर अमन श्रीवास्तव की पंक्तियां पूरी तरह से सटीक उतरती हैं। सर्दी का मौसम आ गया और हर बार की तरह राजधानी में धुंध नहीं, स्मॉग छाई है। बुधवार की सुबह तो स्मॉग मंगलवार से कहीं अधिक गहरा था। ऐसे हालात केवल दिल्ली में ही नहीं बल्कि पूरे राष्ट्रीय राजधानी योजना क्षेत्र के तहत आने वाले शहरों में हैं। स्कूल बन्द कर दिए गए हैं। सांस लेना भी दूभर हो चुका है। यह तय था कि राजधानी दिल्ली समेत उत्तर भारत में फिर पराली का दमघोटू धुआं मंडराएगा। खरीफ सीजन की प्रमुख फसल धान की कटाई शुरू होते ही पराली जलाकर खेत खाली करने की जल्दी मच गई। इसे रोकने के सभी सख्त कदम धरे के धरे रह गए। राजधानी दिल्ली की आबोहवा को पराली के धुएं से दूषित करने वाले ऐसे सभी राज्यों को केन्द्र ने सख्त चेतावनी भेजनी शुरू कर दी थी लेकिन परिणाम इस बार भी कुछ नहीं निकला और दिल्ली लोगों को मारने पर तुल गई। दिल्ली वालों के फेफड़े तो रोजाना 40 सिगरेट पीने के बराबर का धुआं सोख रहे हैं आैर इन दिनों हम कितनी सिगरेट का धुआं सोख रहे हैं, इसकी कल्पना की जा सकती है। दिल्ली के हर चौथे बच्चे को फेफड़े की िशकायत है। दिल्ली वालों के फेफड़े काले हो चुके हैं। इस बार सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के कारण दीपावली पर पटाखे उतने नहीं चले जितने पिछले सालों से फोड़े जाते रहे हैं। दीपावली के दूसरे दिन प्रदूषण का स्तर तो घटा लेकिन वह रहा खतरनाक स्तर से ऊपर ही।
इसका अर्थ यही है कि दिल्ली में प्रदूषण के और भी कई कारण हैं। राजधानी में गाड़ियों द्वारा छोड़ा गया धुआं वायु प्रदूषण का बड़ा कारण है। चिमनियों और फैक्टरियों का धुआं भी एक वजह है। भलस्वा आैर गाजीपुर में कूड़े के पहाड़ में लगी आग का धुआं भी नीले आकाश को काला कर रहा है। एनजीटी की बार-बार फटकार के बाद सब लोग मुआयने में जुट जाते हैं लेकिन काम कुछ नहीं किया जाता। स्थानीय नगर निकायों ने भी नहीं सोचा कि दिल्ली की चारों दिशाओं में बन चुके कूड़े के पहाड़ों को कैसे निपटाया जाए। दिल्ली वालों ने भी नहीं सोचा कि हम स्वयं इस धुएं की चुनौती का मुकाबला कैसे कर सकते हैं। क्या हम स्वेच्छा से कुछ दिन के लिए निजी वाहनों का इस्तेमाल बन्द नहीं कर सकते। सवाल यह भी है कि अगर दिल्ली वाले निजी वाहनों का इस्तेमाल बन्द कर भी दें तो क्या राजधानी की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था इतनी आबादी का बोझ सह लेगी? दिल्ली में बार-बार स्कूल बन्द कर दिए जाते हैं। सरकार यह क्याें नहीं कहती कि महानगर में डीजल कारों का पंजीकरण बन्द हो, कारों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि बन्द हो। कारण सबको पता है लेकिन समाधान में किसी की भी गहरी दिलचस्पी नहीं है। सभी को ऐसा लगता है कि यह चार-पांच दिनों की बात है, बाद में हालात सामान्य हो जाएंगे।
दिल्ली तो आपात स्थिति से गुजर रही है। साथ ही गुड़गांव, रोहतक, चंडीगढ़, फरीदाबाद आदि शहरों में भी हवा जहरीली हो चुकी है परन्तु दिल्ली पर मीडिया बहुत ज्यादा शोर मचाता है। जब भी शरद ऋतु शुरू होती है ताे इसके कारण तापमान व्युत्क्रम (टैम्प्रेचर इन्वर्जन) यानी जमीन पर हवा का तापमान ज्यादा होता है आैर ऊपर जाते-जाते तापमान कम होता जाता है। जब वह हवा ऊपर उड़ती है तो उसमें मौजूद पोषक तत्व भी उड़ते हैं आैर एक चादर बना लेते हैं। दिल्ली में ऊंची इमारतें हैं कि हवा वहां रुक जाती है। अब सब शहरों में बहुमंजिली इमारतें बनने लगी हैं, कोई दिल्ली से सबक नहीं ले रहा। हर बार राजधानी में निर्माण, डीजल जनरेटर के इस्तेमाल आैर कोयला प्लांट बन्द करने जैसे कदम उठाए जाते हैं। ऑड-ईवन फार्मूला भी फिर से अपनाया ही जाएगा। ये सब फौरी उपाय तो सही हैं लेकिन जहरीले वातावरण से बचने के लिए दीर्घावधि योजना की जरूरत है। चीन जैसे देशों में तो हेलीकॉप्टरों का इस्तेमाल कर पानी का छिड़काव कर प्रदूषण कम किया जाता है लेकिन हमारे यहां ऐसा कोई प्रयास नहीं किया जाता। आज के वैज्ञानिक युग में बहुत से उपाय किए जा सकते हैं। पराली जलाने पर केवल सियासत हो रही है। पंजाब सरकार पराली नहीं जलाने की एवज में सब्सिडी देने, नई तकनीक और जागरूकता अभियान के लिए 9391 करोड़ मांग रही है। उधर हरियाणा सरकार 303 करोड़ रुपए मांग रही है। आखिर कब तक पराली दांवपेचों में उलझी रहेगी। क्या हम अपने बच्चों को सांस लेने के लिए शुद्ध हवा भी नहीं दे पाएंगे। सारे सवाल इन्सान के सामने हैं। कोई भी इन्सान जरा भी सुख-सुविधा छोड़ने को तैयार नहीं, फिर समस्या का समाधान कैसे होगा?