केन्द्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में एक दशक बाद हुए विधानसभा चुनावों में अच्छा खासा उत्साह नजर आया था। जनता ने स्पष्ट जनादेश देकर यह संदेश दिया कि वे आतंकवाद और अलगाववाद से मुक्ति पाना चाहते हैं। राज्य की जनता ने अपनी उम्मीदों को लेकर सरकार चुनी और नैशनल कांफ्रैंस पर भरोसा जताया। नई सरकार के सामने जनता की उम्मीदों को पूरा करने की चुनौती तो है ही, सबसे बड़ी चुनौती तो आतंकवाद को जड़ से खत्म करना और ऐसा वातावरण सृजित करना है जिसमें आम आदमी खुद को सुरक्षित महसूस करे और इस क्षेत्र में विकास की धारा के साथ कदम से कदम मिलाकर चले। नई सरकार बनने के बाद आतंकियों ने गांदरबल में श्रीनगर-लेह नैशनल हाइवे के सुरंग निर्माण स्थल पर एक डाक्टर समेत 7 लोगों की हत्या कर दी। मरने वाले पंजाब, बिहार और कठुआ के रहने वाले मजदूर शामिल हैं। जो सुरंग परियोजना में काम कर रहे थे। इस घटना से चार दिन पहले शोपियां में बिहार के एक मजदूर की हत्या कर दी थी। यह हत्याएं आतंकवाद की अंधाधुंध प्रकृति को उजागर करती हैं जो अपने रास्ते में किसी को भी नहीं छोड़ता। निर्दोष नागरिकों की बेवजह हत्या किसी एक परिवार के किसी प्रियजन को ही नहीं छीनता बल्कि उन लोगों में भी खौफ पैदा करता है जो आतंकवाद की छाया में भी रोजी-रोटी कमाने के लिए जम्मू-कश्मीर में मजदूरी करते हैं।
राज्य में टारगेट किलिंग कोई नई नहीं है। हाल ही के वर्षों में सुरक्षा बलों के कैम्पों से लेकर प्रवासी मजदूरों के घरों पर हमला करने के पीछे आतंकी संगठनों की हताशा ही दिखाई देती है। टारगेट किलिंग पाकिस्तान की कश्मीर में अशांति फैलाने की नई साजिश है। अनुच्छेद-370 हटाए जाने के बाद से ही टारगेट किलिंग की घटनाएं बढ़ी हैं। वर्ष 2022 और 2023 में आतंकियों ने न केवल कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया बल्कि प्रवासी मजदूरों की भी लक्षित हत्याएं की। कश्मीरी पंडितों की हत्याएं जम्म-कश्मीर में उनके पुनर्वास की योजनाओं पर पानी फेरने के मकसद से की गई जबकि प्रवासी कामगारों को निशाना इसलिए बनाया गया ताकि बाहर के मजदूर राज्य में आकर काम न कर सके। विधानसभा चुनावों से पहले सुरक्षा बलों के जवानों को भी लगातार निशाना बनाया जाता रहा है। यहां तक कि सरकार या पुलिस में काम करने वाले उन स्थानीय मुस्लिमों को भी निशाना बनाया गया जिन्हें वे भारत के करीबी मानते हैं। टारगेट किलिंग की घटनाएं अलग-अलग होने के बावजूद इनका पैटर्न एक जैसा ही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सुरक्षा बलों ने आतंकवाद को रोकने में प्रगति की है लेकिन आतंकियों की मौजूदगी चिंताजनक छाया के रूप में बनी हुई है। निष्क्रिय स्लीपर सेल का अस्तित्व एक गुप्त खतरा पैदा करता है। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि आतंकवादियों के पास गैर-स्थानीय और अल्पसंख्यक व्यक्तियों, विशेष रूप से पर्यटन से जुड़े या क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के बारे में जानकारी तक पहुंच है। लक्षित हत्याएं न केवल पीड़ितों और उनके परिवारों को अपूरणीय क्षति पहुंचाती हैं, बल्कि जम्मू-कश्मीर में स्थायी शांति को बढ़ावा देने के प्रयासों को भी गहरा झटका देती हैं।
अब नई सरकार और सुरक्षा बलों को सतर्क रहना चाहिए, क्योंकि आतंकवादी हैंडलर नई सरकार के कामों को बाधित करने की कोशिश करेंगे। इस डिजिटल युग में उन्नत इलेक्ट्रॉनिक निगरानी क्षमताएं सर्वोपरि हैं जो आतंकवादी गतिविधियों को रोकने और विफल करने में एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में काम करती हैं। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। प्रौद्योगिकी और नवीन रणनीतियों का लाभ उठाते हुए आतंकी मॉड्यूल को उनके भयावह मंसूबों को अंजाम देने से पहले ही नष्ट कर दिया जाए। आत्म संतुष्टि कोई विकल्प नहीं है, जैसा कि स्लीपर आतंकी सेल द्वारा अवसर मिलते ही कार्रवाई करने की तत्परता से स्पष्ट होता है, जिसके परिणामस्वरूप निर्दोष नागरिकों के लिए दुखद परिणाम होते हैं। लक्षित हत्याएं न केवल जम्मू-कश्मीर के समाज के विविध ताने-बाने को कमजोर करती हैं, बल्कि घाटी में रहने वाले गैर-स्थानीय और अल्पसंख्यक समुदायों में असुरक्षा भी पैदा करती हैं। सुरक्षा बलों पर विभाजनकारी ताकतों के खिलाफ अपना दृढ़ रुख बनाए रखने का दायित्व है, जिसे संदिग्ध गतिविधियों के बारे में जानकारी साझा करने में स्थानीय लोगों के सक्रिय सहयोग से बल मिलता है। जबकि घाटी में शांति ने प्रगति की है, इस नाजुक संतुलन को बाधित करने के किसी भी प्रयास का सुरक्षा बलों और स्थानीय लोगों, दोनों द्वारा कड़ा विरोध किया जाना चाहिए।
जम्मू-कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार और केन्द्र सरकार को मिलकर प्रयास करने होंगे ताकि राज्य में शांति कायम होने के साथ विकास की नई बहार चले। उमर अब्दुल्ला जानते हैं कि शासन चलाने में अब उन्हें पहले जैसी स्वतंत्रता नहीं होगी क्योंकि केन्द्र शासित राज्य में उपराज्यपाल के पास व्यापक अधिकार और शक्तियां हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य की संवेदनशीलता को देखते हुए उपराज्यपाल और सरकार में टकराव देखने को नहीं मिलेगा। यह भी ध्यान में रखना होगा कि नई सरकार को प्रशासनिक मामलों में नौकरशाही का बहुत अधिक हस्तक्षेप अशांति का वाहक बन सकता है। जम्मू-कश्मीर में गरीबी, अन्याय और आतंकवाद के खिलाफ अभी भी समर शेष है। आतंकवादी गिरोहों से किसी तरह की उम्मीद करना बेमानी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सुरक्षा बल आतंकवाद को काबू पाने में और सख्त कदम उठाएंगे ताकि घाटी में लोकतंत्र महकता रहे दहकता नहीं।