फिल्म संसार के पर्याय माने जाने वाले कपूर खानदान की महान और शानदार विरासत को अपनी अदाकारी की रोशनी से जगमगाने वाले ऋषि कपूर के निधन से भारत के जनमानस को खालीपन का जो एहसास हुआ है उसकी प्रतिध्वनि प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा दी गई श्रद्धांजलि में बखूबी सुनी जा सकती है कि ‘वह प्रतिभा के पावर हाऊस ( ऊर्जा घर) थे’। प्रधानमंत्री समेत देश के कला प्रेमियों के लिए यह दोहरा झटका है, जो कि कल ही नई पीढ़ी के होनहार कलाकार इरफान खान भी परलोक सिधार गए थे। वह भी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। ब्लड कैंसर से जूझ रहे ऋषि कपूर के निधन की खबर सुनकर मुझे मेरे पूजनीय पिताश्री अश्विनी कुमार जी की स्मृतियों ने घेर लिया। सारे दृश्य मेरी आंखों के सामने आने लगे। जिन परिस्थितियों का सामना मैंने अपनी मां किरण चोपड़ा और भाइयों अर्जुन और आकाश के साथ किया, वैसी ही परिस्थितियों की सामना ऋषि कपूर के परिवार को भी करना पड़ा। पिताश्री अश्विनी कुमार जी जब न्यूयार्क के सलोन केट्रिंग अस्पताल में उपचार के लिए गए तो मेरी मां किरण चोपड़ा और मेरे दो भाई भी साथ थे। उसी दिन ऋषि कपूर भी उसी अस्पताल में एडमिट हुए थे। उनकी पत्नी नीतू सिंह भी साथ थीं। आज हृदय फिर पीड़ा से द्रवित हुआ। आज जब मैंने उनके बेटे रणवीर कपूर को अपने पिता के अंतिम दर्शन करते देखा तो मुझे स्वयं अपने पिता की याद आ गई। एक पिता के जाने का दुख क्या होता है यह तो हम लोग ही जानते हैं। यह दर्द तो जिन्दगी भर रहेगा। मुझे इस बात का अहसास है कि पिता का साया उठ जाने का दर्द रणवीर कपूर और उनकी बहन रिद्धिमा कपूर और साथ ही मां नीतू कपूर को जीवन भर रहेगा।
कला जगत के महान रंग कर्मी पृथ्वीराज कपूर के पौत्र ऋषि कपूर में अदाकारी का बीज पारिवारिक माहौल में ही बो दिया गया था जिसे उन्होंने अपनी मेहनत और लगन से एक घने वृक्ष के रूप में विकसित किया और अपनी प्रतिभा को खानदानी विरासत का मोहताज नहीं बनने दिया। स्व. पृथ्वी राज कपूर ऐसी हस्ती थे जो सभी प्रकार की सुख सुविधाओं को तिलांजलि देकर कला की सेवा के लिए निकल पड़े थे और उन्होंने अपने पिता की दौलत की परवाह न करते हुए अपने लिए नाट्यकर्मी की भूमिका चुनी थी जबकि पृथ्वी राज पेशावर शहर (अब पाकिस्तान में है) के पहले स्नातक थे और उन्होंने बीए की यह डिग्री पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त करके हासिल की थी। आज की पीढ़ी को आश्चर्य होगा कि जब स्व. पृथ्वी राज ने यह रुतबा हासिल किया था तो पेशावर शहर में ‘छह घोड़ों की बग्घी’ पर बैठा कर उन्हें जुलूस में घुमाया गया था। कला को समर्पित पृथ्वी राज कपूर ने तब ‘आई सी एस’ बनना गंवारा न करते हुए पिता से विद्रोह करके नाट्यशाला का रास्ता पकड़ा था और कालान्तर में ‘पृथ्वी थियेटर’ की नींव डाली थी। अतः यह जायज ही था कि ऐसे महान कलाप्रेमी के तीनों पुत्र राजकपूर, शम्मी कपूर व शशि कपूर कलाजगत को ही अपना लक्ष्य बनाते और फिल्मों की अदाकारी को नई ऊंचाइयां देते। इनमें से स्व. राजकपूर फिल्म जगत के सबसे बड़े ‘शो-मैन’ कहलाये और उन्होंने सफल व उद्देश्यपूर्ण फिल्मों का इतिहास बना डाला इसी क्रम में स्व. राजकपूर ने 1970 में फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ बनाई और उसमें अपने छोटे बेटे चिंटू (ऋषि कपूर) को बाल कलाकार के रूप में प्रस्तुत किया बाल्य अवस्था से किशोर अवस्था की दहलीज पर कदम रखते बालक के रूप में किरदार को ऋषि कपूर ने इतनी सहजता और भावात्मकता के साथ निभाया कि पूरी फिल्म में उनकी यह भूमिका बड़े-बड़े कलाकारों ( मनोज कुमार, राजेन्द्र कुमार व स्वयं राजकपूर) पर भी भारी पड़ गई और इसके लिए उन्हें ‘राष्ट्रीय पुरस्कार’ दिया गया।
फिल्म के किरदार में स्वयं को समाहित करने में माहिर ऋषि कपूर तब पूरे भारत की युवा पीढ़ी के दिल की धड़कन बन गये जब 1973 में उनकी फिल्म ‘बाबी’ आयी। राजकपूर द्वारा बनाई गई इस फिल्म ने चित्रपट कथाओं का इतिहास ही नहीं बदल डाला अपितु पूरे फिल्म उद्योग को नये चरण में प्रवेश करा डाला। तब ऋषि कपूर सुपर स्टार कहे जाने वाले ‘राजेश खन्ना’ से भी बहुत आगे निकल गये और बाबी फिल्म कई बड़े शहरों में कई साल तक सिनेमाघरों की शोभा बनी रही। दरअसल यह फिल्म उस समय के भारत की ‘नौबहार’ फिल्म मानी गई थी जिसने युवा पीढ़ी को पारंपरिक रूढि़वादिता को तोड़ने की प्रेरणा दी थी। इस फिल्म की लोकप्रियता की हद यह थी कि जब 25 जून, 1975 को इन्दिरा जी ने देश पर इमरजेंसी लगाई थी तो उससे पहले दिल्ली के रामलीला मैदान में स्व. जय प्रकाश नारायण की जनसभा संयुक्त विपक्ष की तरफ से आयोजित की गई थी। उस समय एकमात्र दूरदर्शन ही टीवी चैनल हुआ करता था।
इन्दिरा गांधी की सरकार के खिलाफ संयुक्त विपक्ष द्वारा चलाये जा रहे अभियान का नेतृत्व स्व. जय प्रकाश नारायण कर रहे थे। 12 जून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला आ चुका था जिसमें इन्दिरा जी के रायबरेली से जीते गये चुनाव को अवैध घोषित कर दिया गया था। जनमानस स्व. जय प्रकाश नारायण के आन्दोलन के प्रति खासा आकर्षित था अतः तब की कांग्रेस सरकार ने दूरदर्शन पर घोषणा कराई कि वह फिल्म बाबी का प्रसारण ठीक उसी समय करेगा जिस समय जय प्रकाश नारायण जनसभा को सम्बोधित करेंगे। इस फिल्म के प्रसारण का जिक्र रामलीला मैदान में तब जनसंघ के नेता श्री विजय कुमार मल्होत्रा ने करते हुए कहा था कि ‘लोगों को घरों पर रोकने की ही कांग्रेसी कोशिशों के बावजूद रामलीला मैदान में भारी भीड़ एकत्र हुई है’। यह सब लिखने का आशय केवल इतना ही है कि उस समय ऋषि कपूर की लोकप्रियता कोई सीमा स्वीकार करने को तैयार नहीं थी। मगर इसके बाद का फिल्मी सफर ऋषि कपूर ने कलात्मकता की विविधता और जीवन्तता के साथ जिस प्रकार पूरा किया, उसका भी दूसरा उदाहरण मिलना कठिन है। उन्होंने हालीवुड के साथ ही दो ब्रिटिश फिल्मों में भी काम किया और अपनी अदाकारी का लोहा मनवाया, परन्तु ऋषि कपूर को केवल फिल्मों तक सीमित करना उनके प्रति अन्याय होगा। वह राजनीतिक रूप से सजग नागरिक भी थे जो समय-समय पर सामयिक राजनीतिक परिस्थितियों पर अपना दिमाग साफ तौर पर प्रकट करते थे। संभवतः यह गुण उनके खून में था जो दादा पृथ्वी राज कपूर की विरासत से मिला था। स्व. पृथ्वीराज कपूर राज्य सभा के सदस्य रहे थे जहां उन्होंने भारत के कलाजगत और राजनीति के बीच के सम्बन्धों पर एकाधिकबार विद्वतापूर्ण बयान दिये थे। बेशक कपूर खानदान के चश्मो- चिराग के तौर पर फिलहाल ऋषि कपूर के सुपुत्र रणवीर कपूर फिल्म जगत की सेवा में हैं परन्तु ऋषि कपूर का चले जाना दिये की लौ को आगे बढ़ा कर इसे रौशन रखने की इल्तिजा जरूर कर रहा है।