उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की सीटें 62 से घट कर केवल 33 रह जाने के बाद जिस तरह कोहराम मचा हुआ है और हार की जिम्मेदारी मुख्यमन्त्री योगी आदित्य नाथ के सिर मढ़ने का एक गुट प्रयास कर रहा है उससे इस पार्टी के भीतर लोकतन्त्र के जीवन्त होने का आभास होता है क्योंकि भाजपा के बारे में यह कहा जाता है कि पार्टी का संचालन एकाधिकारवादी तरीके से होता है। योगी आदित्यनाथ को राज्य के सफल मुख्यमन्त्रियों की श्रेणी में रखा जाता है। विपक्षी दल उनकी शासन पद्धति की आलोचना कर सकते हैं मगर यह भी हकीकत है कि राज्य की आम जनता में उनकी लोकप्रियता कम नहीं है।
राज्य में कानून-व्यवस्था स्थापित करने में उन्होंने जिस नीति का अनुसरण किया उससे आम लोगों में उनकी लोकप्रियता स्थापित हुई है। सवाल यह है कि लोकसभा चुनावों में भाजपा की हार क्यों हुई और प्रतियोगी विपक्षी इंडिया गठबन्धन को 43 सीटें कैसे मिलीं। इनमें छह सीटें कांग्रेस की हैं औऱ 37 सीटें श्री अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी की हैं। लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़े गये थे और खुद प्रधानमन्त्री इसकी कमान संभाले हुए थे इसके बावजूद पूरे राज्य में जमीन पर भाजपा के विरोध में लहर चल रही थी खास कर पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह महसूस की जा रही थी जिसमें अवध मंडल भी शामिल था। इसके बावजूद भाजपा को जो 33 सीटें मिल पाईं वह योगी की छवि का कमाल था।
चुनाव के पहले दो चरणों में राज्य में जिन सीटों पर चुनाव हुए उनमें भाजपा को अपेक्षाकृत बेहतर सफलता मिली मगर बाद के पांच चरणों में इसके हाथ से बाजी फिसलती चली गई। योगी आदित्यनाथ को हिन्दुत्व का व्यावहारिक चेहरा माना जाता है और उनकी यही सबसे बड़ी पूंजी भी है। लोकसभा चुनावों में भी भाजपा ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की हिन्दुत्व को चुनाव प्रचार के केन्द्र में रखा जाये जिसके लिए अयोध्या में श्रीराम मन्दिर प्राण-प्रतिष्ठा समारोह को प्रतीक बनाया गया। परन्तु अयोध्या मुद्दा उसी दिन आम लोगों के जहन से गायब हो गया था जिस दिन इसका निर्माण शुरू हुआ था। परन्तु भाजपा इस गलतफहमी में रही कि राम मन्दिर उसके हिन्दू वोट बैंक को जोड़े रख सकता है मगर मतदाताओं ने उसकी यह गलतफहमी दूर कर दी और एेलान किया कि उन्हें अपना 'परलोक' सुधारने से पहले 'इह लोक' सुधारना है। इसी वजह से चुनावों में महंगाई व बेरोजगारी तथा कल्याणकरी राज के मुद्दे गरमाये रहे। भाजपा इन मुद्दों से बेखबर अपने पुराने मुद्दों पर ही टिकी रही जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा।
उत्तर प्रदेश भाजपा का गढ़ राम मन्दिर मुद्दे की वजह से ही बना था। वरना इससे पहले इस पार्टी को चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय लोकदल ने निपटा दिया था जिसकी शुरूआत चौधरी साहब ने 1969 के राज्य के मध्यावधि चुनावों में अपनी अलग पार्टी 'भारतीय क्रान्ति दल' बना कर की थी। यह वह दौर था जब 1969 के विधानसभा चुनावों में चौधरी साहब की पार्टी की 117 से अधिक सीटें आयी थीं और जनसंघ (भाजपा) की केवल 47 सीटें आयी थी और 425 के सदन में कांग्रेस बहुमत से दूर रह गई थी। इससे पहले के 1967 के चुनावों में जनसंघ की 99 सीटें आयी थी और यह राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी बन कर उभरी थी।
1969 में तस्वीर बदल जाने का मुख्य कारण यह था कि चौधरी साहब ने राज्य के समस्त ग्रामीण वोट बैंक को संगठित कर दिया था मगर यह ध्रुवीकरण न तो मजहब के नाम पर किया गया था और न जातियों के नाम पर बल्कि व्यवसाय या पेशे के आधार पर किया गया जिसमें गांवों की सभी जातियां शामिल थीं। इससे भाजपा को तो बड़ा नुकसान हुआ ही बल्कि कांग्रेस की कमर भी टूट गई जिसे स्व. इंदिरा गांधी ने 1971 के लोकसभा चुनावों में सीधा किया। और हालात इस कदर बदल डाले कि चौधरी साहब खुद भी इन चुनावों में मुजफ्फर नगर लोकसभा सीट से एक कम्युनिस्ट नेता विजयपाल सिंह से हार गये। इसके बाद इमरजेंसी का दौर आया और उसके बाद 1977 में जो लोकसभा चुनाव हुए उनमें उत्तर भारत में कांग्रेस पार्टी की महापराजय हुई क्योंकि इन्दिरा गांधी स्वयं भी रायबरेली सीट से चुनाव हार गई थीं।
जनसंघ और लोकदल का इमरजेंसी के बाद बनी जनता पार्टी में विलय हो चुका था मगर चौधरी साहब का इतना दबदबा था कि जनता पार्टी को मिली कुल 298 सीटों में उनकी पार्टी लोकदल के 174 प्रत्याशी जीते थे। इसके बाद उत्तर प्रदेश में 1989 तक भाजपा हाशिये पर ही रही। मगर इस दशक के आखिर में मंडल कमीशन लागू होने औऱ श्री लालकृष्ण अडवानी द्वारा राम मन्दिर आन्दोलन चलाये जाने की वजह से भाजपा फिर ऊपर उठने लगी लेकिन तब तक चौधरी साहब स्वर्ग सिधार चुके थे। उनकी महान विरासत को संभालने में उनके सुपुत्र स्व. अजित सिंह अपनी अवसरवादिता की वजह से नाकाम रहे। अतः जनसंघ का प्रवेश राम मन्दिर आदोलन की मार्फत उत्तर प्रदेश के गांवों में पुनः शुरू हुआ और पिछड़ी जातियों का उसे समर्थन भी मिलने लगा। अतः भाजपा श्री अडवानी द्वारा अर्जित वोट सम्पत्ति में इजाफा करती रही। दरअसल जब योगी आदित्यनाथ को 2017 के राज्य के चुनावों के बाद मुख्यमन्त्री बनाया गया तो उसके पीछे हिन्दुत्व को मुखर रखने की राजनीति ही थी। योगी ने 2017 में पद पर बैठते ही इस हिन्दुत्व को शासन में व्यावहारिक बनाने की रणनीति अपनाई। उनकी इस रणनीति से असहमत तो हुआ जा सकता है मगर उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता क्योंकि इसी रास्ते से उन्हें राज्य की जनता में लोकप्रियता मिली।
योगी ने बुलडोजर न्याय प्रणाली अपना कर हिन्दुत्व की राजनीति की पराकाष्ठा को छू डाला जिससे उबाऊपन आना स्वाभाविक है क्योंकि उत्तर प्रदेश की सामाजिक संरचना में मुस्लिम अल्पसंख्यक वर्ग का ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा हिस्सा है और इसके चलते हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा अन्तर्निहित है। वैसे भी योगी उस नाथ सम्प्रदाय के शीर्ष पुरुष हैं जो 'अलख निरंजन' (निराकार ब्रह्म) में यकीन रखता है। नाथ सम्प्रदाय के दर्शन में हिन्दू- मुसलमान में भेद नहीं होता है। 1947 से पूर्व पाकिस्तान बनने से पहले संयुक्त पंजाब में नाथ सम्प्रदाय बहुत लोकप्रिय रहा था जिसका प्रमाण यह है कि प्रेम की प्रतिमूर्ति कहे जाने वाले 'रांझे' ने अपनी 'हीर' के वियोग में नाथ सम्प्रदाय का 'जोगी' बन जाना पसन्द किया था। मगर लोकसभा चुनावों ने सिद्ध कर दिया है कि राजनीति हिन्दू-मुस्लिम विमर्श से ऊपर उठ कर सामाजिक न्याय और जन सामान्य के आर्थिक मुद्दों की ओर बढ़ चली है। अतः हम बहुत जल्दी देख सकते हैं कि योगी आदित्यनाथ अपने मूल नाथ सम्प्रदाय के मानकों की तरफ बढ़ चलें। वैसे राज्य में भाजपा की जो 33 सीटें आयी हैं वह भी कम नहीं हैं क्योंकि 1967 के आम चुनावों में समस्त भारत से भाजपा की इतनी ही 33 सीटें आयी थीं। भाजपा में योगी को हटाने को लेकर जो अफवाहें हैं उनका कोई ठोस आधार नहीं है क्योंकि योगी अभी भी राज्य की जनता में लोकप्रिय हैं।
अपने शासनकाल में वह राज्य में अच्छा-खासा निवेश लाने में भी समर्थ रहे हैं। यह बेवजह नहीं है कि योगी ने बुलडोजरों को अब खड़ा करा दिया है क्योंकि लोग इस प्रकार की राजनीति से ऊब चुके हैं। जहां तक भाजपा आलाकमान का प्रश्न है तो उसके पास फिलहाल योगी का कोई विकल्प नहीं है क्योंकि योगी की छवि जनता में आज भी एक बैरागी की ही है जिसका अपना कुछ नहीं है, मगर योगी जी को भी नये सिरे से विपक्ष के रोजी-रोटी के विमर्श की काट इस तरह सोचनी होगी।
कुछ लिख के सो,
कुछ पढ़ के सो
तू जिस जगह जागा सबेरे
उस जगह से बढ़ कर सो
– राकेश कपूर