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यह भारत देश है मेरा…

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संसद से लेकर सड़क तक पूरा देश अचम्भे से देख रहा है कि किस तरह हमारा लोकतन्त्र इतनी रफ्तार में आ गया है कि जिन समस्याओं को हल करने के लिए अपने वक्त के सबसे तेज दिमाग समझे जाने वाले हमारे संविधान निर्माताओं ने सालों लिये उनका हल हम कुछ घंटों में इस तरह निकाल रहे हैं कि जैसे हमारे हाथ में अलादीन का चिराग लग गया हो। हम भूल रहे हैं कि यह देश उस हजारों साल की विरासत से बना है जिसमें दुनिया की न जाने कितनी संस्कृतियों की नदियों ने समागम करके इसे तीर्थ स्थल बनाया है लेकिन आज स्थिति यहां तक आ गई है कि मुल्क के उलझे हुए मसलों के म्युनिसपलिटी की तर्ज पर पर हल करना चाहते हैं लेकिन संसद के दोनों सदनों से बार-बार अध्यक्ष पद पर बैठे पीठासीन अधिकारियों की यह आवाज सुनाई पड़ती है कि जो कुछ भी यहां हो रहा है उसे पूरे देश की जनता देख रही है। हंगामा ही हंगामा हो रहा है।

बेशक जनता बहुत ध्यान से संसदीय करतबों का जायजा ले रही है और सोच रही है कि कितनी खूबसूरती के साथ तीन महीने से भी पहले होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए उसके दरबार में गुहार लगाने के नारे गढे़ जा रहे हैं लेकिन क्या नजारा है कि फिल्मों से लेकर क्रिकेट तक के मैदानों पर भी चुनावी गोटियां बिछाई जा रही हैं। फिल्में पहले से ही ऐसी तैयार कर ली गई हैं कि वे चुनावी माहौल में अपना हिस्सा अदा कर सकें मगर जिस तरफ से सब बेफिक्र नजर आते हैं वह सड़कों पर फैला वह कोहराम है जिसके शोर में किसान से लेकर बेरोजगार युवा की सिसकियां शामिल हैं। हम सिर्फ लिबास बदलकर अपना किरदार बदलना चाहते हैं।

मजहब के आधार पर जब 1947 में भारत के टुकड़े हुए थे तो उसका असर दोनों ही मुल्कों पर होना लाजिमी था। धर्म के आधार पर राष्ट्रीयता तय करने के जिस रास्ते पर मुहम्मद अली जिन्ना चल पड़े थे उसने हिन्दोस्तान की आत्मा को मार कर रख दिया था क्योंकि इस मुल्क की तरक्की में मुगल बादशाहों का योगदान इस हद तक था कि उन्होंने इसकी विभिन्न रियासतों को जोड़कर एकल रूप में सार्वभौमिकता प्रदान करते हुए दुनिया के कारोबार में इसका हिस्सा 50 प्रतिशत से भी ऊपर करने में सफलता प्राप्त की थी। यही वजह थी कि ब्रिटिश, फ्रांस व पुर्तगाल जैसे देशों ने उस दौरान भारत में तिजारत के जरिये अपने पैर जमाने की कोशिश की थी।

भारत का दबदबा पूरी दुनिया में किस कदर था इसका सबूत इतना ही काफी है कि जब 1756 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के लार्ड क्लाइव ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को पलाशी के मैदान में धोखे से मीर जाफर जैसे गद्दार की मदद से हराया तो दुनिया के कारोबार में इसका हिस्सा 25 प्रतिशत के लगभग था लेकिन इसके बाद अंग्रेजों ने इसे कब्जा कर कंगाल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी मगर हिन्दोस्तान को कंगाली के दरवाजे पर खड़ा करने के लिए अंग्रेजों ने जिस हथियार का अपनी फौज से भी ज्यादा इस्तेमाल किया वह इस देश के हिन्दू-मुसलमानों के बीच नफरत पैदा करना था। इसी नफरत को फैलाकर उन्होंने इस मुल्क के दो टुकड़े तक कर डाले। अतः भारत के नागरिकता कानून में भी अगर हम सम्प्रदाय के आधार पर भेदभाव करने का प्रावधान रखेंगे तो उसके परिणाम भविष्य की आने वाली सन्ततियों को भोगने पड़ सकते हैं।

लोकतन्त्र की पद्धति इसीलिए सबसे ज्यादा मुफीद मानी जाती है क्योंकि यह लोगों की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व इस प्रकार करती है कि आने वाली पीढि़यों का रास्ता आसान हो सके और वे लगातार प्रगति के नये रास्ते खोज सकें। यह हम कैसे भूल सकते हैं कि पाकिस्तान को बीच से चीर कर बांग्लादेश का निर्माण हमारी ही दूरदर्शिता की राजनीति ने कराया है वरना इसके मुस्लिम आधार पर पूर्वी पाकिस्तान होने की वजह से हम उपेक्षा भाव रख सकते थे लेकिन यह धर्म से ऊपर मानवीयता का मामला था और 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के लोग अपने इन्हीं जायज मानवीय अधिकारों के लिए पाकिस्तान की खूंखार फौजों से मुकाबला कर रहे थे। इसलिए श्रीमती इन्दिरा गांधी ने इसे मानवीय अधिकारों की लड़ाई बनाकर पूरी दुनिया में बांग्लादेश की पृथक सत्ता के लिए समर्थन मांगा था। यह इतिहास की कोई साधारण घटना नहीं थी जिसे हम हिन्दू-मुसलमान के नजरिये से देखने की गलती कर जायें।

भारत की धर्मनिरपेक्षता ‘धर्म विहीन राज’ नहीं बल्कि सभी धर्मों का समान रूप से आदर करने की है। पश्चिमी सेकुलरिज्म से यह विचार पूरी तरह अलग है। इसका खुलासा स्वयं पं. जवाहर लाल नेहरू ने ही किया था। अतः बांग्लादेश, पाकिस्तान या अफगानिस्तान से धार्मिक आधार पर भेदभाव होने की वजह से भारत आने वाले वहां के नागरिकों को भारत की नागरिकता देने के मुद्दे पर हमें भारत की ही संस्कृति के अनुरूप विशाल उदारता के साथ विचार करना चाहिए और फिर से यह विचार सतह पर आना चाहिए जिसे समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने 1955 के करीब रखा था कि भारत-पाक महासंघ बना कर दोनों देशाें के नागरिकों के मानवीय अधिकारों की रक्षा की जाये। उस समय अफगानिस्तान में तालिबान समस्या नहीं थी और बांग्लादेश का उदय भी नहीं हुआ था। अतः अब इसका विस्तार करके इसमें नेपाल, श्रीलंका व म्यामांर को भी शामिल किया जाना चाहिए। श्रीलंका से भारी संख्या में तमिल शरणार्थी भारत में आते रहे हैं। यह भी याद रखना जरूरी है कि डा. लोहिया के इस विचार का समर्थन तब जनसंघ के नेता दीनदयाल उपाध्याय ने भी किया था।

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