पुरानी बात है। इंदिरा गांधी की एमरजैंसी का समर्थन करने के बाद 1977 में वरिष्ठ मंत्री बाबू जगजीवन राम कांग्रेस को छोड़ कर जनता पार्टी में शामिल हो गए। वह जालंधर में जनता पार्टी की सभा को सम्बोधित करने के लिए आए तो मैंने उनसे मुलाक़ात की थी। उनके द्वारा पार्टी छोड़ने पर जब मैंने सवाल किया तो उनका जवाब आज तक मुझे याद है, "यह राजनीति है धर्म नीति नहीं, बेटा"। बाबू जगजीवन राम के पास तो फिर औचित्य था कि वह इंदिरा गांधी की तानाशाही का विरोध करने के लिए जनता पार्टी में शामिल हुए हैं। उस समय तो बहुत कम लोग दलबदल करते थे, पर आजकल की हमारी राजनीति तो भारत की आज़ादी से पहले ब्रिटेन के नेता विंसटन चर्चिल के हमारे नेताओं के बारे कहे शब्द, "यह तिनकों के बने लोग हैं", जीवित हो उठते हैं। जिस तरह थोक में पार्टियां बदली जा रही हैं लगता तो यही है कि हमारी राजनीति के एक बड़े वर्ग की अंतरात्मा सचमुच तिनकों से बनी है।
राजनीति तो बहुत पहले लोकसेवा नहीं रही थी, वैसे भी जो रातोंरात बदल रहे हैं वह जनता की सेवा क्या करेंगे? सबसे बुरी मिसाल मेरे अपने चुनाव क्षेत्र जालंधर से है। 5 अप्रैल 2023 को सुशील कुमार रिंकू कांग्रेस छोड़ आप में शामिल हुए थे। आप की टिकट पर वह सांसद बने। वर्तमान चुनाव में भी उन्हें आप का टिकट दिया गया। 10 दिन उन्होंने प्रचार भी किया, पर फिर भाजपा में शामिल हो गए जिसने उन्हें उम्मीदवार घोषित कर दिया। एक साल में रिंकू जी ने तीसरी पार्टी बदली है। अब वह भाजपा का पटका डाल कर मुस्कुराते वोट मांग रहे हैं। कांग्रेस में और फिर आप में रहते हुए जो नरेन्द्र मोदी और भाजपा की आलोचना करते रहे आज उन्हें उन्हीं के नाम पर वोट मांगते ज़रा भी अटपटा नहीं लगा? और तर्क वही है कि मैंने तो जनता की सेवा करने के लिए पार्टी बदली है।
हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस के छह बाग़ी विधायक भाजपा में शामिल हो गए हैं। इन्हें उपचुनाव के लिए भाजपा का टिकट भी मिल गया है। इससे पहले कई सप्ताह वह दूसरे राज्यों के फाइव स्टार होटलों में छिपे रहे क्योंकि लोगों का सामना करने की हिम्मत नहीं थी। अब वह पूरी सिक्योरिटी लेकर प्रदेश लौट तो आए हैं, पर पार्टी के अन्दर ऐसी विद्रोह की स्थिति है जो पहले कभी नहीं देखी गई। जनता और भाजपा के अपने कैडर दोनों को यह दलबदल बिल्कुल रास नहीं आ रहा। पार्टी के अंदर विरोध की जो आग भड़क रही है हो सकता है चुनाव तक कुछ ठंडी हो जाए, पर जिस तरह भाजपा कांग्रेस और दूसरी पार्टियों से लोगों को शामिल कर रही है उससे बहुत गलत संदेश जा रहा है। जो वर्षों से पार्टी के लिए संघर्ष करते रहे, दरियां बिछाते रहे और दीवारों पर पोस्टर चिपकाते रहे वह अवाक हैं कि उनकी जगह उनको टिकट मिल रहे हैं जो गला फाड़-फाड़ कर नरेन्द्र मोदी और भाजपा की आलोचना करते रहे। इससे पार्टी के अंदर नाराज़गी है। वैसे तो हर पार्टी छापा मारने की कोशिश कर रही है, पर भाजपा तो बहुत तेज है। साधन भी हैं, पंजाब में कांग्रेस और आप से आयात किए गए तीन लोगों को टिकट दिए गए हैं। इनमें रवनीत बिट्टू भी शामिल हैं जिनके दादा सरदार बेअंत सिंह ने कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहते शहादत दी थी लेकिन ज़माना बदल गया, जैसे शायर ने कहा भी है, "जब तवक्को ही उठ गई ग़ालिब, क्या किसी से गिला करें कोई"।
पंजाब में भाजपा अध्यक्ष सुनील जाखड़ ही पुराने कांग्रेसी हैं। पंजाब से भी अजीब हालत हरियाणा की है जहां जिन्हें भाजपा की टिकट दी गई 10 में से 6 वह हैं जिनकी कांग्रेस की पृष्ठभूमि है। केवल चार शुद्ध भाजपाई हैं। अशोक तंवर कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और आप का चक्कर काट कर भाजपा में आए हैं। तेलंगाना में भाजपा के 17 में से 9 उम्मीदवार बीआरएस से हैं जिसे वह अत्यंत भ्रष्ट पार्टी कहते रहे हैं और जिसके पूर्व मुख्यमंत्री के.चन्द्रशेखर राव की बेटी कविता को शराब घोटाले में गिरफ्तार किया गया है।
आंध्र प्रदेश से भाजपा के 4 में से 3 उम्मीदवार दूसरी पार्टियों से हैं। ऐसा कई प्रदेशों में हो रहा है। इससे वह मायूस हो रहे हैं जो सदैव पार्टी की सेवा करते रहे। हर इंसान महत्वकांक्षी होता है। अगर वह अपने लिए दरवाज़े बंद होते देखेगा तो उसका नाराज़ होना स्वभाविक है। यह नाराज़गी आगे चल कर पार्टी को परेशान करेगी। दूसरा, पार्टी की विशिष्ट विचारधारा का क्या बनेगा अगर उन लोगों को भी शामिल किया गया जो इस विचारधारा का विरोध करते रहे? अगर उन लोगों को शामिल किया गया जो दागी हैं और जिनके ख़िलाफ़ भाजपा खुद शोर मचाती रही तो भाजपा का भ्रष्टाचार विरोधी मुद्दा कुंद पड़ जाएगा। अभी से विपक्ष मज़ाक़ उड़ा रहा है कि भाजपा 'वाशिंग मशीन' है जिसमें दाखिल होकर सब गंदे साफ़ हो जाएगे। प्रफुल्ल पटेल के खिलाफ गम्भीर मामले ख़त्म कर सीबीआई ने उन्हें क्लीन चिट दे दी। ईमानदारी और जवाबदेही के सिद्धांत सब पर बराबर लागू होने चाहिए केवल विपक्षी नेताओं पर ही नहीं।
ठीक है, चुनाव में जीतने की क्षमता देखना भी ज़रूरी है, पर मूल सिद्धांतों से समझौता महंगा पड़ सकता है। हर किसी को शामिल कर कांग्रेस ने खुद को बहुत कमजोर कर लिया था। जिन लोगों के कारण कांग्रेस बदनाम हुई है उन्हें शामिल कर भाजपा की छवि प्रभावित हो रही है। अब कांग्रेस पर भ्रष्ट होने की तोहमत कैसे लगेगी? परिवारवाद की प्रधानमंत्री बहुत आलोचना करते हैं पर महाराजा पटियाला का सारा शाही परिवार ही भाजपा ने शामिल कर लिया। परनीत कौर पटियाला से चुनाव लड़ रही हैं। ऐसे बहुत से उदाहरण है। भाजपा को कांग्रेस के नक्कशे कदम पर नहीं चलना चाहिए इससे इसकी विशेषता ख़त्म हो जाएगी। पुराने संस्कार जिसने पार्टी को यहां तक पहुंचाया है उनकी तिलांजलि नही होनी चाहिए। भाजपा को 'नई कांग्रेस' नहीं बनना चाहिए।
लोग देख रहे हैं कि उनके जन प्रतिनिधि अपने खेलों में मस्त हैं और लोगों के हित और कल्याण देखने की जगह वह अपना हित और कल्याण देख रहें हैं। जो पावर-हंगरी है वह जनता का क्या सुधारेंगे? और दुख तो यह है कि इसकी ज़रूरत भी नहीं। जब आप के पास नरेन्द्र मोदी जैसा लोकप्रिय नेता है और भाजपा और संघ का मज़बूत संगठन है तो ऐसे समझौते करने की ज़रूरत भी क्या है? भाव यह है कि कहीं असुरक्षा है इसलिए दूसरी पार्टियों को तोड़ने की कोशिश हो रही। वैसे तो हर पार्टी अपने प्रतिद्वंद्वी को तोड़ने की कोशिश करती है, पर जिस तरह चुनाव से पहले दो मुख्यमंत्रियों, हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल को गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेज दिया गया और कांग्रेस का खाता फ्रीज हो गया उससे देश में बेचैनी है और विदेश में आलोचना हो रही है। अब आयकर विभाग ने कह दिया कि जुलाई तक वह कांग्रेस पार्टी से 3500 करोड़ रुपया वसूल नहीं करेंगे, पर 'टैक्स के राजनीतिककरण' का मुद्दा तो देश के अंदर और बाहर चर्चा बन गया है।
अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर पहले जर्मनी फिर अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र टिप्पणी कर चुकें है। कहने को तो कहा जाएगा कि हमारे मामलों में दखल करने की ज़रूरत नहीं है, पर यही लोग जब हमारी तारीफ करते हैं तो हम बाग-बाग हो जाते हैं। मामले के गुण-दोष का फैसला अदालत करेगी, पर चुनाव से ठीक पहले गिरफ्तारी की टाइमिंग बहुत गलत है। लोकसभा चुनाव के बाद यह कार्रवाई होती तो कोई आपत्ति न होती। क्या केजरीवाल को इस समय इसलिए गिरफ्तार किया गया है कि वह चुनाव में हिस्सा न ले सके? और यह प्रभाव भी नहीं मिलना चाहिए कि एक उभर रही विपक्षी पार्टी को सरकारी एजेंसियों की मार्फ़त निष्क्रिय करने की कोशिश हो रही है। विदेशों में हमारे लोकतंत्र की छवि पहले वाली नहीं रही। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की संस्थाओं पर सवाल क्यों उठ रहे हैं? हम खुद को विदेशी आलोचना के लिए खुला क्यों छोड़ रहे हैं? वैश्विक व्यवस्था में हमारा उत्कृष्ट स्थान है। यहां तक पहुंचने के लिए इस सरकार ने भी बहुत मेहनत की है। इसे सम्भाल कर रखने की जरूरत है।
– चंद्रमोहन