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ये पब्लिक है सब जानती है!

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दलितों पर अत्याचार या उनके उत्पीड़न के मामलों को यदि हम साधारण कानून व्यवस्था की नजर से देखेंगे तो उस आजाद और लोकतान्त्रिक भारत में एेतिहासिक गलती करेंगे जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी धर्म, जाति या वर्ण अथवा लिंग के आधार पर भेदभाव किये बिना एक समान अधिकार दिये गये हैं। हमें सबसे पहले यह सोचना होगा कि भारत केवल संविधान के आधार पर चलने वाला देश है और वह किसी भी धर्म अथवा मजहब की परंपराओं व रवायतों से स्वयं को निरपेक्ष रखता है जो विभिन्न सम्प्रदायों में होती हैं।

हिन्दू सम्प्रदाय में जारी जाति व्यवस्था को मिटाने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने अथक परिश्रम करके एेसे प्रावधान संविधान में डाले हैं जिनसे इस समाज के प्रति हजारों वर्ष से हो रहे क्रूर-पशुवत व्यवहार का खात्मा हो सके और केवल इंसानियत की बुनियाद पर उनके साथ न्याय हो सके। अतः यह समझना मुश्किल काम नहीं है कि संविधान में अनुसूचित जातियों के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गई जिससे सामाजिक व आर्थिक स्तर पर इस श्रेणी की जातियों के लोग विकास कर सकें और समाज में उन्हें वही स्थान व सम्मान मिले जो अन्य कथित सवर्ण जातियों के लोगों को मिलता है अथवा उन्होंने बलात कब्जा करके इसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार बना लिया है।

इसके पीछे कुछ लोग ‘मनुस्मृति’ जैसे हिन्दू ग्रन्थ का हवाला भी देते हैं मगर संविधान की नजर में इसकी कोई कीमत नहीं है और हिन्दू समाज की आन्तरिक व्यवस्था से इसका किसी प्रकार का लेना-देना नहीं है। यह भारतीयों को प्रागैतिहासिक काल में पीछे ले जाने वाला पोंगापंथी ग्रन्थ है जिसमें मानवीयता को एक किनारे रखकर समाज संरचना का उत्पीड़न और शोषण के आधार पर खाका खींचा गया है।

अतः सबसे पहले यह समझा जाना चाहिए कि दलितों को जो भी विशेष अधिकार व रियायतें हमारे संविधान निर्माताओं ने दी हैं वे कोई खैरात में या उपकार भाव से नहीं दी हैं बल्कि उनके हक के आधार पर दी हैं। सदियों से उनका हक मारने वाला समाज किसी भी तौर पर यह आवाज नहीं उठा सकता कि उन्हें मिलने वाली सुविधाएं समाप्त की जानी चाहिएं या उनके साथ होने वाले व्यवहार को साधारण कानून-व्यवस्था का मामला माना जाना चाहिए। कुछ लोग मूलभूत गलती कर जाते हैं जब यह तर्क देते हैं कि देश में हर कानून का दुरुपयोग होता है अतः दलित उत्पीड़न को रोकने वाले कानून का भी दुरुपयोग हो सकता है और इसके लिए किसी निर्दोष को सजा नहीं दी जा सकती।

घरेलू हिंसा से लेकर दहेज विरोधी कानून का जो दुरुपयोग होता है वह किन्हीं दो परिवारों या परिवार के बीच का मामला होता है, जबकि दलित उत्पीड़न का मामला ‘समूचे समाज की व्यापक सोच की अवधारणा में व्यक्तिगत आक्रमणकारी रवैये’ का होता है। यह रवैया केवल किसी व्यक्ति की अपनी सोच का परिणाम नहीं होता, बल्कि पूरे समाज के व्यापक विचार की अभिव्यक्ति होता है अतः इसमें वह सिद्धान्त हम लागू नहीं कर सकते जो अन्य आपराधिक मामलों में करते हैं।

दलित विरोधी कानून का मुख्य लक्ष्य यही था कि किसी भी स्तर पर समाज के वे लोग अपनी उस जातिगत आधार पर दुर्व्यवहार की धारणा का प्रदर्शन न करें जो सदियों से उनके समाज में व्याप्त है और जिसके आधार पर वे दलित घर में पैदा हुए किसी भी नागरिक को अपने से नीचे रखकर देख सकते हैं। दलितों की सुरक्षा के लिए बनाये गये कानून की अंतरात्मा यही है कि दलित को दलित समझकर नहीं बल्कि एक इंसान समझ कर बात की जाए और उसकी समस्याओं का समाधान किया जाए।

सदियों से चली आ रही कुरीति को क्या हम केवल सत्तर साल तक कुछ विशेष रियायतें देकर समाप्त कर सकते हैं? इसके लिए जरूरी है कि कानूनी तौर पर भी हम एेसा वातावरण तैयार करें जिसमें मनोवृत्ति विकार की गुंजाइश को ही समाप्त कर दिया जाए। बेशक इससे डर भी पैदा हो सकता है मगर इस डर का उस डर से कोई मेल नहीं है जो हजारों वर्षों से दलितों के रक्त में कथित ऊंची जातियों के लोगों ने घोल रखा है।

यह कीमत समाज में हर इंसान को इंसान का दर्जा देने के लिए कुछ भी नहीं है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दलितों के साथ मनुष्यवत व्यवहार करने की सीख हमें स्वयं ऊंची जाति के लोगों से ही पहले मिली है। चाहे वह गुरुनानक देव जी हों या महात्मा गांधी या फिर डा. राम मनोहर लोहिया, सभी ने हिन्दू समाज को मानवीय धर्म अपनाने की सलाह दी। डा. भीमराव अम्बेडकर ने तो इस समाज के लोगों में आत्म विश्वास भरने पर बल दिया जिससे वे सभी अत्याचारों का मुकाबला डटकर हिम्मत के साथ कर सकें।

डा. भीमराव अम्बेडकर के सिद्धान्तों को ही मानें तो सबसे पहले आदमी को आदमी ही मानना होगा मगर कयामत है कि बैलों की जगह दलितों को जोतने वाले समाज के लोग आज केवल एक कानून से घबरा रहे हैं और कह रहे हैं कि इसका दुरुपयोग होता है? सवाल यह है कि दुरुपयोग की गुंजाइश ही क्यों रहे अगर हिन्दू समाज के लोग अपनी मानसिकता में सुधार कर लें और जातिगत पहचान को भूलकर मानव पहचान को सबसे ऊपर रखें! लोकतन्त्र तभी सफल माना जायेगा जब एक महारानी और एक मेहतरानी एक साथ एक ही स्थान पर बैठकर एक समान भोजन करेंगी।

यह मैं नहीं कह रहा हूं, बल्कि डा. लोहिया ने कहा था मगर देखिये क्या सितम हुआ कि अपनी जायज मांगों के हक में प्रदर्शन करने वाले दलितों के आन्दोलन को ही कुछ दलित विरोधियों ने हिंसा का रूप देकर उसे इस समाज प्रति नफरत पैदा करने का औजार बनाने की कोशिश कर डाली मगर लोगों काे बेवकूफ न्यूज चैनलों पर सदाचार के भाषण दे-देकर नहीं बनाया जा सकता। यह ‘पब्लिक’ है सब जानती है कि कौन कितने पानी में है और कौन घड़ियाली आंसू बहा रहा है आैर कौन असली दर्द से कराह रहा है।

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