अब जबकि लोकसभा के लिए सभी चरणों का मतदान समाप्त होने जा रहा है और इससे पहले जो कुछ हुआ उसे हम सामान्य मान सकते हैं लेकिन बोल वचनों को लेकर भी जो कुछ हुआ उसे भी नेताओं की फिसलती जुबान मानकर नजरंदाज किया जा सकता है। क्या बंगाल में जो कुछ हुआ उसे भी नजरंदाज कर दिया जाना चाहिए? बिल्कुल नहीं। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो के दौरान जिस तरह से हिंसा, आगजनी के बीच बवाल हुआ वह चुनावी हिंसा की श्रेणी में आता है। देश से चुनावी हिंसा का खात्मा होना चाहिए परंतु यहां तो लोकतांत्रिक मर्यादाएं खत्म हो रही हैं। लिहाजा सवाल उठने स्वाभाविक ही हैं।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार से दो महीने पहले राजनीतिक टकराव का रास्ता चुना है उसकी शुरूआत तो उनके गद्दी संभालने से ही हो गई थी परंतु पूरी सीबीआई टीम को जब उनकी पुलिस ने बंदी बनाया तो फिर केंद्र सरकार ने अपना रूप दिखाया। अब चुनाव सामने थे तो रैलियों के लिए इजाजत न देने के मामले सामने आने लगे। भारतीय जनता पार्टी के कई बड़े नेताओं की रैलियां न हो सकीं और जब ऐसा ही अमित शाह के साथ हुआ तो उन्होंने फिर जवाब दिया जिस पर अब ममता पलटवार कर रही हैं।
चुनाव आयोग ने वहां स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभूतपूर्व पग उठाते हुए चुनाव प्रचार निर्धारित समय से 20 घंटे पहले प्रतिबंधित कर दिया। जो कुछ हुआ वह लोकतंत्र की शुचिता और उसके वजूद के लिए बहुत जरूरी था। महान समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर की प्रतिमा तोड़ दी जाए। श्री अमित शाह ही क्यों, किसी भी नेता के रोड शो में गोलाबारी, पथराव और आगजनी क्यों हो। मुश्किल यह है कि चुनावी हिंसा अब पश्चिम बंगाल की पहचान बन गयी है और उसके दामन पर लगा यह कलंक कैसे साफ होगा इसका जवाब ममता बनर्जी को देना है लेकिन उनका मानना है कि भाजपा को रोकने के लिए आक्रामक तरीके से ही जवाब देना होगा।
केंद्र सरकार के साथ-साथ ममता सरकार ने अब भाजपा के साथ भी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता शुरू कर दी है और ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि एक आम आदमी और जमीनी कामगार फैसला करें कि यह बंगाल किसका है? पंचायत चुनाव के दौरान वहां जो हिंसा हुई वह अब लोकसभा के चुनावों में उतर चुकी है। बंगाली लोगों से अब अपने विचारों को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए केंद्र सरकार से टकराने का जो आह्वान किया जा रहा है इससे एक नई हिंसात्मक परंपरा स्थापित हो रही है। इस विचारधारा को भी चकनाचूर करना होगा। इसी बंगाल से कितने क्रांतिकारी पैदा हुए जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को कुचलने के लिए अपनी जान तक कुर्बान कर दी थी। लेकिन आज सब कुछ अपनी ही सरकार के खिलाफ, अपने ही देश के खिलाफ अगर हिंसात्मक टकराव होता है तो इसका जवाब ममता दीदी को देना होगा लेकिन सोशल साइट्स पर जो भावनाएं केंद्र सरकार को लेकर उजागर हो रही हैं उसे भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता।
सोशल मीडिया पर कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री या बड़े-बड़े स्तर पर मंचों से एक राज्य सरकार के 40 विधायकों के अपने संपर्क में होने की बात कहकर चुनौती देना, ऐसे उत्तेजक बयान शोभा नहीं देते। फिर भी ममता बनर्जी एक लोकप्रिय सरकार की प्रतिनिधि हैं लेकिन सोशल मीडिया पर इस बात को काफी शेयर किया जा रहा है कि अगर कोई आप पर हमला करता है तो उसका जवाब हमले से ही दिया जाना चाहिए। राजनीतिक हत्याएं अब पश्चिम बंगाल में आम हो गई हैं। लोकतंत्र की यह कैसी राजनीतिक संस्कृति है इसका जवाब ममता बनर्जी को ही नहीं केंद्र सरकार को भी ढूंढना होगा।
दीदी के बंगाल में अब उद्योग धंधे तबाह हो रहे हैं, मजदूर पलायन कर रहे हैं। पंगेबाजी तो कम्युनिस्टों के शासन में ही शुरू हो गई थी जिसे ममता ने उखाड़ फैंका था और अब ममता अगर व्यक्तिगत तौर पर इसे सुशासन कहती हैं तो फिर उन्हें धैर्यशीलता तो दिखानी ही होगी। उनका अपना आचरण जितना दयालु होगा जितना फ्लैक्सीवल होगा लोग उतना ही उनके साथ जुड़ेंगे लेकिन आपसी टकराव के चलते जो कुछ वहां हो रहा है वह सत्ता प्राप्ति के लिए भाजपा और टीएमसी के बीच राजनीतिक जंग ही कहलाएगा।
अल्पसंख्यकों के नाम पर अगर वोटतंत्र नहीं चल सकता तो फिर हिंदूवाद को लेकर भी यह नहीं चलना चाहिए ऐसी बातें सोशल मीडिया पर कही जा रही हैं और इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि सांप्रदायिक सद्भाव बरकरार रहना चाहिए और हर धर्म का सम्मान किया जाना चाहिए। आने वाले दिन सचमुच खतरनाक हो सकते हैं। एक हिंसात्मक आगाज किस अंजाम पर पहुंचेगा यह बंगाल किसी एक का नहीं वहां के हर नागरिक का है। यह किसी की जागीर नहीं है यह बात हमारे राजनीतिज्ञों को समझ लेनी चाहिए और लोकतंत्र की जंग में आम आदमी की जीत होनी चाहिए, आपसी टकराव और राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता खत्म होनी चाहिए।