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मोदी सरकार के तीन साल

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केन्द्र की मोदी सरकार को गठित हुए पूरे तीन साल हो चुके हैं और इस दौरान इस सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही है कि इसका शासन पूरी तरह भ्रष्टाचार से मुक्त रहा है। 2014 के लोकसभा के चुनावों में जब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने चुनाव लड़ा था तो भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ा मुद्दा था क्योंकि पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार के भ्रष्टाचार के किस्से जन-जन में चर्चा का विषय बने हुए थे। श्री मोदी ने प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर बैठने के बाद जो सबसे महत्वपूर्ण घोषणा देश की संसद से की कि उनकी सरकार गरीबों की सरकार होगी। उनके इस कथन से देश के सत्तर प्रतिशत लोगों ने राहत की सांस लेते हुए समझा कि अब उनके अच्छे दिन अवश्य आयेंगे। असल में यह एक सैद्धान्तिक विचार था जो श्री मोदी ने देश के सामने रखा था। इस पर अमल करने के लिए सरकार को ऐसी नीतियां बनानी थीं जिससे लोगों को यह आभास लगे कि नई दिल्ली में बैठी हुई सरकार गरीबों की सरकार है और उनके बारे में ही यह सोचती है मगर यह कार्य आसान नहीं था क्योंकि देश 1991 से जिस बाजार मूलक अर्थव्यवस्था की तरफ चल रहा था उसका आधार ही पूंजी मूलक विकास था। श्री मोदी ने बहुत बड़ी चुनौती स्वयं ही अपने लिए खड़ी की थी जिससे गरीबों की अपेक्षाएं बढ़ गई थीं।

वह भी तब जब संसद से लेकर सड़क तक समस्त विपक्षी पार्टियां उन पर आरोप लगा रही थीं कि उनकी सरकार की नीतियां पूंजीपतियों के हक में हैं। यहां तक कि उनकी सरकार को सूट-बूट की सरकार तक कह दिया गया। श्री मोदी के लिए चुनौती घर में ही नहीं विदेशों में भी थी क्योंकि मनमोहन सरकार के अन्तिम दो वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को जो सन्देश गया था वह भारत में नीतिगत अस्त-व्यस्तता और नेतृत्व शून्यता का था। भारत में सत्ता परिवर्तन के बाद इस देश की सरकार की विश्वसनीयता को पुरजोर तरीके से पेश करने की चुनौती ऐसी थी जिसका सम्बन्ध भारत की आन्तरिक मजबूती से था क्योंकि आर्थिक भूमंडलीकरण के दौर में विदेशी निवेश विकास की जरूरी शर्त बन चुका था। अत: गरीबों के विकास की योजनाएं इस मोर्चे पर आश्वस्त हुए बिना शुरू नहीं की जा सकती थीं। खुली अर्थव्यवस्था ने सामान्य जन की अपेक्षाओं को इतना अधिक बढ़ा दिया था कि हर पढ़ा-लिखा नवयुवक अमेरिका और विदेश के सपने देखने लगा था। इस दौड़ में देश के सत्तर प्रतिशत लोग स्वयं को तमाशबीन की तरह देखने लगे थे। उनके विकास के लिए महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना चलाकर सोच लिया गया था कि इससे उनका बेड़ा पार हो जायेगा। यह पलायनवाद के अलावा और कुछ नहीं था। साल भर में केवल एक सौ दिन का रोजगार मुहैया कराकर गरीबों को जिन्दा तो रखा जा सकता था मगर उन्हें गरीबी से ऊपर नहीं लाया जा सकता था। श्री मोदी ने पिछले तीन सालों में सबसे बड़ी उपलब्धि यह प्राप्त की है कि उन्होंने तमाम ऐसी सरकारी योजनाओं का पैसा समाज के गरीब तबकों के हाथ में सीधे पहुंचाने का पुख्ता इन्तजाम किया है जो उनके नाम पर चलाई जाती हैं। सामाजिक कल्याण की विभिन्न परियोजनाएं भारत में सभी मन्त्रालयों और विभागों को मिलाकर दो लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा की बैठती हैं।

इनमें शिक्षा से लेकर विभिन्न ग्रामीण व सामाजिक क्षेत्र की परियोजनाएं तक शामिल हैं। यह दो लाख करोड़ रुपए अब सीधे उन लोगों के हाथ में पहुंचता है जिनके लिए ये योजनाएं शुरू की गई हैं। यह कार्य सीधे उनके बैंक खातों में धनराशि भेजकर किया जाता है। बहुत ही साधारण सी बात लगती है कि गरीब परिवारों को ईंधन गैस के कनैक्शन बिना किसी फीस के दिये जायें मगर इसका असर असाधारण तरीके से गरीबों का सशक्तीकरण करता है और यकीन दिलाता है कि सरकार को उनकी परवाह है मगर सबसे बड़ा ठोस उपाय पांच सौ और एक हजार रुपए के बड़े नोट बन्द करके किया गया। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि इसका गरीबों से क्या लेना-देना हो सकता है? मगर यह कार्य गरीबों के हक में ही अन्तत: जायेगा क्योंकि जो भी धनराशि बिना बाजार के चक्र में आये हुए तिजोरियों में रखी हुई थी वह बैंकिंग चक्र में प्रवेश कर चुकी है और इसके जायज होने के सबूत जुटाने पर ही यह पुन: रोकड़ा के जमाखोरों के पास पहुंच सकती है। नाजायज धनराशि सरकार की सम्पत्ति है जिसका उपयोग उन नीतियों को लागू करने में किया जायेगा जो गरीबों के हितों के लिए बनाई जा रही हैं। मसलन 2022 तक हर गरीब हिन्दोस्तानी को मकान देने का वादा हवा में छड़ी घुमाने से पूरा नहीं हो सकता। इसके लिए धन की जरूरत होगी, लेकिन ऐसी नहीं है कि सारी तस्वीर गुलाबी ही है, कई मोर्चों पर स्याही के छींटे भी पड़े हैं। बेशक महंगाई की दर नीचे है मगर गरीब आदमी को इससे राहत नहीं है क्योंकि उसकी आय में बाजार वृद्धि का अनुपात भी ठहर गया है। बिना शक राष्ट्रीय समस्याएं भी हैं।

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