लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

लोकसभा चुनाव पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

संसद को सिर झुकाओ!

NULL

भारत के संसदीय लोकतन्त्र में जिस तरह संसद की प्रतिष्ठा पर आघात हो रहा है उससे आम जनता में निराशा के भाव को फैलने से नहीं रोका जा सकता। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमने जिस द्विसदनीय (लोकसभा व राज्यसभा) संसदीय व्यवस्था को लागू किया था उसका मूल उद्देश्य राष्ट्रीय स्तर से लेकर राज्य स्तर तक पर सत्ता में आम लोगों की भागीदारी करने का इस तरह था कि राज्य व केन्द्र दोनों इस मोर्चे पर कोई खाली स्थान न रहने दें। यह बेवजह नहीं है कि हमने राज्यसभा को उच्च सदन कहा और इसकी भूमिका इस तरह निर्धारित की लोकसभा में प्रत्यक्ष रूप से चुन कर आये किसी भी राजनैतिक दल के सदस्यों के बहुमत की अकड़ को विभिन्न राज्यों के राजनैतिक दलों की ताकत के आगे जवाबदेह बनाया जा सके जिससे भारत सही अर्थों में राज्यों का संघ ( यूनियन आफ इंडिया) व्यावहारिक तौर पर बन सके। इसके लिए दोनों ही सदनों को चलाने की नियमावली बनाई गई और इनके पीठासीन अध्यक्षों को सरकारों की सत्ता से उदासीन रखते हुए स्वतन्त्र भूमिका में लाया गया। बेशक इन पदों पर पांच वर्ष के लिए चुनाव दल गत वरीयता से ही तय होते हैं, परन्तु राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति के चुनाव में किसी भी राजनैतिक दल को अपने सांसदों या विधायकों को चुनाव मे मत डालने के लिए निर्देश जारी करने का अधिकार नहीं दिया गया।

उपराष्ट्रपति ही राज्यसभा के सभापति होते हैं अतः उनके द्वारा इस सदन का संचालन स्वतः राजनीति निरपेक्ष हो जाता है। दूसरी तरफ लोकसभा अध्यक्ष के पद पर सर्वसम्मति बनाने की परंपरा स्थापित करने के पीछे यही मन्तव्य था कि सदन के संरक्षक के रूप में वह अपना कार्य दलगत भावना से ऊपर उठ कर इस प्रकार कर सकें कि अध्यक्ष की स्वतन्त्र सत्ता को कहीं से चुनौती देने की कोशिश न हो सके। किसी भी चुनी हुई सरकार की संसद के प्रति जवाबदेही तय करने के लिए हमारे पुरखों ने हमें जो यह व्यवस्था साैंपी है वह संवैधानिक पवित्रता से सीधी इस तरह बन्धी हुई है कि सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलाने की प्राथमिक जिम्मेदारी सत्तारूढ़ दल पर ही डाली गई जिससे अल्पमत में बैठे विपक्ष को सरकार की जवातलबी करने में असुविधा पैदा न हो सके, क्योंकि संख्या में कम रहने के बावजूद उसके सदस्य भी जनता के वोट से ही सदन में आते हैं। अतः हमने अपनी संसदीय प्रणाली में यह परंपरा भी स्थापित की कि किसी भी हालत में सत्तारूढ़ दल के सदस्य सदन के भीतर अध्यक्ष या सभापति के आसन के निकट आकर व्यवधान पैदा नहीं करेंगे और न ही विपक्षी सदस्यों की भांति कार्यवाही में बाधा पैदा करने की कोशिश करेंगे। गठबन्धन सरकारें होने की स्थिति में इस सिद्दान्त पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, क्योंकि जो भी पार्टी सरकार में शामिल है वह सत्ता का ही अंग इसलिए है कि कोई भी सरकार सामूहिक जवाबदेही से बन्धी होती है, परन्तु पिछले दो दिनों से संसद में अजीब तमाशा चल रहा है कि मोदी सरकार में शामिल आन्ध्र प्रदेश की तेलगू देशम पार्टी के सांसद दोनों ही सदनों में व्यवधान पैदा कर रहे हैं।

सरकार में रहते हुए सरकार के विरोध की दोहरी भूमिका किस तरह निभाई जा सकती है ? यदि इस पार्टी को खुद के सरकार में शामिल रहने के बावजूद वित्तमन्त्री श्री अरुण जेटली द्वारा रखे बजट से शिकायत है और वह इसे आन्ध्र प्रदेश के साथ अन्याय मानती है तो किस तरह उसके सांसद मोदी सरकार का हिस्सा बने रह सकते हैं, क्योंकि यह बजट भाजपा का नहीं बल्कि तेलगू देशम के भी मन्त्रियों वाली सरकार का है। इसका मतलब यही है कि इस बजट को तेलगूदेशम का भी समर्थन प्राप्त है, क्योंकि सरकार की जिम्मेदारी सामूहिक होती है, जहां तक राज्यसभा का सवाल है, सदन में व्यवस्था कायम करने के अधिकार से लैस सभापति सत्ता और विपक्ष दोनों को ही नियन्त्रित करते हैं। इस सदन का शून्यकाल सदन के बैठते ही एक घंटे के लिए शुरू हो जाता है जिसमें विपक्षी सांसद देश के समक्ष तात्कालिक महत्वपूर्ण मुद्दे उठा कर सरकार से जवाब मांगते हैं, मगर दो दिन से यह सदन बैठने के कुछ देर बाद ही सीधे दोपहर बाद दो बजे तक के ले स्थगित हो रहा है जिस पर समूचे विपक्ष ने गहरी आपत्ति व्यक्त करते हुए आज पूरे दिन के लिए कार्यवाही का बायकाट कर डाला। सवाल यह है कि सांसदों को विशेषाधिकार इसीलिए दिये गये हैं कि वे बिना किसी खौफ या डर के सदन के भीतर जनहित के मुद्दे जोर–शोर से उठा सकें और सरकार की जवाब-तलबी कर सकें। सांसदों के अधिकारों की रक्षा से सभापति बन्धे होते हैं। यही वजह है कि सदन चलाने के नियम इसी सिद्धान्त पर आधारित होते हैं। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि सत्ता में शामिल कोई भी दल विपक्षी सांसदों को अधिकारविहीन बना नहीं बना सकता। यह देखना भी सभापति का काम होता है।

अतः सभापति द्वारा सदन को स्थगित करना समूचे विपक्षी सांसदों को खटक गया और उन्होंने मंगलवार को पूरे दिन के लिए सदन का बहिष्कार किया और विपक्ष के नेता श्री गुलाम नबी आजाद ने आरोप लगाया कि सभापति पक्षपात कर रहे हैं। इसे नाजायज भी नहीं कहा जा सकता। दूसरी तरफ लोकसभा में प्रधानमन्त्री की मौजूदगी के बावजूद राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद ज्ञापन पर हो रही चर्चा के दौरान जिस तरह तेलगू देशम पार्टी के सांसद लगातार अध्यक्ष के आसन के निकट आकर नारे बाजी करते रहे उसने सबसे ज्यादा नुकसान प्रधानमन्त्री की प्रतिष्ठा का ही किया क्योंकि उनकी सरकार में बराबर की हिस्सेदार पार्टी के ही सदस्य सदन की कार्यवाही को नहीं चलने दे रहे थे। दोनों ही सदनों की यह भी स्वस्थ परंपरा है कि धन्यवद प्रस्ताव सर्वसम्मति से ही पारित किया जाता है बेशक अभिभाषण मे संशोधन के प्रस्ताव भी रखे जाते हैं मगर सामान्य तौर पर उन पर मतदान से बचा जाता है, चूंकि किसी भी राजनैतिक दल की सरकार राष्ट्रपति की ही अपनी सरकार होती है क्योंकि प्रधानमन्त्री को नियुक्त वही करते हैं। अतः संसद उनके प्रति धन्यवाद ज्ञापन सर्वसम्मति से पारित करती है, परन्तु धन्यवद प्रस्ताव पर जो चर्चा होती है वह दल गत भावना में ही होती है और प्रत्येक पार्टी सरकार के कामकाज पर अपना नजरिया पेश करती है। हमारे लोकतन्त्र में जिन महान परंपराओं को समाहित किया गया है वे केवल सजावटी या दिखाने के लिए नहीं हैं बल्कि समूची दुनिया को सन्देश देने के लिए हैं कि भारत कितनी विविधताओं वाला देश है मगर फिर भी एक है।

अभिभाषण पर चर्चा का जो दायरा होता है उसकी कोई विषय वस्तु सीमा इसीलिए नहीं होती कि राष्ट्रपति पूरे देश में संविधान का शासन देखने के दायित्व से बन्धे होते हैं जिसकी वजह से उन्हें संविधान का संरक्षक कहा जाता है। एसे गंभीर विषय पर अगर सत्तारूढ गठबन्धन के सदस्य चौराहे की राजनीति का अनुसरण करते हैं तो उसे जायज किस तरह ठहराया जा सकता है ? लोकसभा मे कांग्रेस के नेता श्री मल्लिकार्जुन खङगे ने फ्रांस से लिये गये जिन लड़ाकू विमानों की कीमत तीनगुनी बढा कर खरीदे जाने का मुद्दा उठाया है उससे भी तो तेलगू देशम पार्टी बन्धी हुई है क्योंकि वह भी सरकार में शामिल है। अपनी इस जिम्मेदारी और जवाबदेही से यह पार्टी किस तरह भाग सकती है? अतः अपने राजनीतिक लाभ के लिए संसद की प्रतिष्ठा को नीचे गिराने का अधिकार भारत के लोग किसी को भी नहीं दे सकते हैं। इसी मुल्क के लोगों की पुरानी पीढि़यों ने लोकतन्त्र पाने के लिए कुर्बानियां देकर अगली पीढि़यों का भविष्य सुरक्षित किया है। उस समय तो तेलगू देशम के महारथी रहे लोग फिल्मों में ‘रूप’ भर रहे थे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

eighteen − 16 =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।